Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 487
________________ औदारिक ४७२ औदार्य चिन्तामणि जालाणि हुँति सोलस य कंडराणि तहा। छच्चेब सिराकुच्चादेहे दो मसरज्जू य ।१०२६। सत्त तयाओ कालेज्जयाणि सत्तेव होति देहम्मि देहम्मि रामकाडोण होति सीदी सदसहस्सा ।१०३०। पक्का मयासयत्थाय अतगुजाओ सोलस हवति । कुणिमस्स आसया सत्त हुति देहे मणुस्सस्स ।१०३१३ थूणाओ तिणि देहम्मि होति सत्तु त्तर च मम्मसदं । णव होति वणमुहाइ णिच्च कुणिम सबताइ ।१०३२। देहम्मि मच्छलिग अजलि मित्त सयप्पमाणेण। अजलिमित्तो मेदो उज्जोवि य तत्तिओ चेव ।१०३३। तिणि य वसजलीओछच्चेर अजलीओ पित्तस्स । सिंभो पित्तसमाणो लोहिदमदाढग होदि ।१०३४। मुत्त आढयमेत उच्चारस्स य हव ति छप्पच्छा। वीस महाणि दंता बत्तीसं होति पगदीए ।१०३६॥ - इस मनुष्यके देहमें ३०० अस्थि है, वे दुर्गन्ध मज्जा नामक धातुसे भरी हुई है। और ३०० ही सन्धि है । १०२७ । ६०० स्नायु है, ७०० सिरा है, ५०० मासपेशिया है ।१०२८।४ जाल है, १६ कडरा है,६ सिराओं के मूल है, और २ मांस रज्जू है ।१०२६। ७ त्वचा है, ७ कालेयक है, और ८०,०००,०० कोटि रोम है ।१०३०। पक्वाशय और आमाशय में १६ आते रहती है, दुर्गन्ध मलके ७ आशय है ।१०३६। ३ स्थूणा है. १०७ मर्मस्थान है, व्रणमुख है, जिससे नित्य दुर्गन्ध सवता है ।१०३२। मस्तिष्क, मेद, ओज, शुक्र, ये चारो एक एक अजलि प्रमाण है ।१०३३। बसा नामक धातु ३ अंजलिप्रमाण, पित्त और श्लेष्म अर्थात् कफ छह-छह अलिप्रमाण और रुधिर १/२ आठक है। १०३४। मुत्र एक आढक, उच्चार अर्थात विष्ठा प्रस्थ, नख २० और दात ३२ है। स्वभावत शरीरमे इन अवयवोका प्रमाण कहा है। २. औदारिक काययोग निर्देश १. औदारिक काययोगका लक्षण पं.स./प्रा. १/६३ पुरु महदुदारुराल एयट्ठं तं वियाण तम्हि भवं । ओरलिय त्ति वुत्त ओरालियकायजोगो सो।१३। पुरु, महत, उदार और उराल ये शब्द एकार्थवाचक है। उदार या स्थूलमें जो उत्पन्न हो उसे औदारिक जानना चाहिए। उदारमें होनेवाला जो काययोग है, वह औदारिक काययोग कहलाता है। (ध. १/१,१,५६/१६०/ २६१); (गो जी /म् २३०/४६२), (प स /सं १/१७३) ध. १/१,१,५६/२८६/१२ औदारिकारोरजनितवीर्याज्जीवप्रदेशपरिस्पन्दनिबन्धनप्रयल' औदारिक काययोग । -यौदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुइ शक्तिसे जोवके प्रदेशोमे परिस्पन्दका कारणभूत जो प्रयत्न होता है उसे औदारिक काययोग कहते है। गो.जी./जी,प्र २३०/४६३/९ औदारिकायार्थ वा आत्मप्रदेशानां कर्मनोकर्मापकर्षणशक्ति' सेव औदारिककाययोग इत्युच्यते तदा औदारिकवर्गणास्कन्धाना औदारिककायत्वपरिण मनकारणं आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो वा औदारिककाययोग इति... अथवा औदारिककाय एवं औदारिक काययोग इति कारणे कार्योपचारात् । -१ औदारिक शरीरके निमित्त आत्मप्रदेश निकै कर्म नोकर्म ग्रहणकी शक्ति सो औदारिक कापयोग कहिए । २ अथवा औदारिकवर्गणारूप पुद्गल स्कन्धनिको औदारिक शरीररूप परिणमावनेको कारण जो आरमप्रदेशनिका चचलपना सो औदारिक कागयोग है। ३, अथवा औदारिककाय सोई औदारिककाययोग है, यहाँ कार्य विषै कारणका उपचार जानना। २. औदारिक मिश्रकाययोगका लक्षण प.स /पा. १/६४ अतोमुहुत्तमझ वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णो त्ति । जो तेण सपओगो ओरालियमिस्सकायजोगो सो ४ -औदारिक शरीरकी उत्पत्ति प्रारम्भ होनेके प्रथम समयसे लगाकर अन्तर्मुहर्त तक मध्यवर्ती कालमें जो अपरिपूर्ण शरीर है, उसे औदारिकमिश्र मानना चाहिए। उसके द्वारा होनेवाला जो सप्रयोग है, वह औदारिक मिश्रकाययोग कहलाता है। अर्थात् शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेसे पूर्व कार्माण शरीरकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले औदारिककाययोगको औदारिक-मिश्रकाययोग कहते है ।१४। (ध. १/१,१,५६/१६२/२६१)। (गा जी /मू २३१/४६४), (५.स /सं १/१७३) । ध, १/१,१.५६/२१०/१ कार्मणौदारिकस्कन्धाभ्या नितवीर्यात्तत्परिस्पन्द नार्थ प्रयत्न औदारिकमिश्रकाययोग । कार्म और औदारिक वर्गणाओके द्वारा उत्पन्न हुए वीर्य से जीवके प्रदेशो में परिस्पन्द के लिए जो प्रयत्न होता है, उसे औदारिक मिश्र काययोग कहते है। गो जी./जी २३१/४६४/११ प्रागुत्तलक्षण मौदारिकशरीर तदेवान्तर्महुर्तपर्यन्तमपूर्ण अपर्याप्त तावन्मिश्रमित्युच्यते अपर्याप्तकालसमन्धिसमयत्रयसभविकार्मणकाययोगोत्कृष्ट कार्मणवर्गणासयुक्तत्वेन परमागमरूढया वा अपर्याप्त अपर्याप्तशरीमिश्रमित्यर्थ । तत कारणादौदारिककायमित्रेण सह तदर्थ वर्तमानो य स प्रयोग आत्मन कर्मनोकर्मादानशक्तिप्रदेशपरिस्पन्दयोग स शरीरपर्याप्तिनिष्पत्त्यभावेन औदारिक्वर्गणास्कन्धाना परिपूर्ण शरीरपरिणमनासमर्थ औदारिककार्यामश्रयोग इति विजानीहि। - औदारिक शरीर यावत्काल अन्तर्मुहूर्त पर्यन्तपूर्ण न होइ अपर्याप्त होइ तावद काल मिश्र कहिए । अपर्याप्तकाल सम्बन्धी तीन समर्यानविषै जो कार्माण योग ताकी उत्कृष्ट कार्मणवर्गणाकरि संयुक्त है तातै मिश्र नाम है।-२ अथवा परमागम विषै ऐसे ही रूढि है। जो अपर्याप्त शरीरको मिश्र कहिए सो तिस औदारिक मिश्र करि सहित सप्रयोग कहिए ताकै अर्थ प्रवा जो आत्माकै कर्म नोकर्म ग्रहण की शक्ति धरै प्रदेशनिका चचलपना सो योग है, सो शरीर पर्याप्तिकी पूर्णताके अभावते औदारिक वर्गणा स्कन्धानको सम्पूर्ण शरीररूप परिणमावनेकौ असमर्थ है, ऐसा औदारिक मिश्रकाययोग तू जानि । ३. औदारिक व मिश्र काययोगका स्वामित्व ष ख ६/११/सू. ५७. ७६/२६५, ३१५ ओरालियकायजोगो ओरालिय मिस्सकायजोगो तिरिक्वमणुस्साण १५७। ओरालयकायजोगो पज्जत्ताणं ओरालिमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताण ७६। -तिर्यच और मनुष्योके औदारिक काययोग और मिश्रकाययोग होता है ।१७। औदारिक काययोग पर्याप्तकोके और औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्तको के होता है ७६। पं.सं /प्रा.४/१२ ओराल मिस्स-कम्मे सत्तापुण्णा य साणिपज्जत्तो। ओरालकाय जोए पज्जत्ता सत्तणायव्वा ।१२। - औदारिक मिश्रकाय योग और कार्मणकाय योगमे सातो अपर्याप्तक तथा सज्ञिपर्याप्तक ये जीव समाप्त होते है। औदारिक काययागमें सातो पर्याप्तक जीव समास जानने चाहिए ।१२।। गो जी./मू.६८०/११२३ ओराल पज्जत्ते थावरकायादि जाव जोगोप्ति । तम्मिस्समपज्जत्ते चदुगुणठाणेसु णियमेण ।६८० मिच्छे सासण सम्मे पंवेदयदे कवाडजोगिम्मि। णरतिरियेवि य दोणिव होतित्ति जिणेहि णिहिट।६८१। -औदारिक काययोग एकेन्द्रिय स्थावर पर्याप्त मिथ्याष्टित लगाय सयोगी पर्यन्त तेरहगुणस्थान निविष है। बहुरि औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्त चार गुणस्थाननिविष ही है नियमकरि ६८०। मिथ्यादृष्टी सासादन पुरुषवेदका उदयकरि सयुक्त, असंयत, कपाट समुधात सहित सयोगी, इति अपर्याप्तरूप च्यारि गुणस्थाननिविष सो औदारिक मिश्रयोग पाइये है । बहुरि औदारिकविषै तौ पर्याप्त सात जीवसमास और औदारिकमिश्रविषै अपर्याप्त सात जीव समास और सह्योगीकै एक पर्याप्त जीव समास ऐसे आठ जीव समास है।६८११ औदार्यचिन्तामणि-भट्रारक श्रुतसागर (वि १५४४-१५५६) द्वारा रचित ४५८ सूत्रबद्ध प्राकृत व्याकरण (ती. ३/३६८) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506