Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 486
________________ औदारिफ ४७१ १. औदारिक शरार निर्देश * औदारिक व मिश्र काय-योगकी सत्' संख्या, क्षेत्र, ३. औदारिक शरीरका स्वामित्व स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहत्व रूप आठ त सू २/४५ गर्भ संमूचनजमाद्यम् ॥४॥ - पहला (औदारिक शरीर) गर्भ और समर्छन जन्मसे पैदा होता है। प्ररूपणाएं -दे. वह वह नाम स. सि. २/४५/१६७/१ यद् गर्भजं यच्च संमूर्छनज तत्सर्वमौदारिक द्रष्टव्यम् । = जो शरीर गर्भ-जन्मसे और संमूर्छन जन्मसे उत्पन्न १. औदारिक शरीर निर्देश हाता है वह सत्र औदारिक शरीर है, यह इस सूत्रका तात्पर्य है। १. औदारिक शरीरका लक्षण (सवा २/४५/१५१/१८) ष.स. १४/६/ सूत्र २३७/३२२ णामाणिरुत्तीए उरालमिदि ओरालिय रा वा. २/४६/८/१५३/२३ औदारिक तिर्थड्मनुष्याणाम् । -तिर्यच और ।२३७। म नामनिरुक्तिकी अपेक्षा उराल है इसलिए जोदारिक है। मनुष्योका औदारिक शरीर होता है। स सि २/३६/१११।५ उदार स्थूलम् । उदारे भवं उदार प्रयोजनमस्येति ४. औदारिक शरीरके प्रदेशानका स्वामित्व वा ओदारिकम् । = उदार और स्थूल ये एकार्थवाची शब्द है। १. औदारिक शरीरके उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशाग्रोके उदार शब्दसे होने रूप अर्थ में या प्रयोजनरूप अर्थ में ठक् प्रन्यय होकर औदारिक शब्द बनता है। (रावा. २/३६/३/१४६/५) (और भी स्वामित्व सम्बन्धी प्ररूपणा-दे (ष खं १४/५.६ सूत्र दे. आगे औदारिक /२/१।। ४१७-४३०/३६७-४११) ध. १/१,१,५६/२६०/२ उदार पुरु महानित्यर्थ , तत्र भवं शरीरमौदा- २. औदारिक शरीरके जघन्य व अजघन्य प्रदेशाग्रोके रिकम् । अथ स्यान्न महत्त्वमौदारिकशरीरस्य। कथमेतदवगम्यते। स्वामित्व सम्बन्धी प्ररूपणा-दे. (ष ख १४.५,६/सूत्र वर्गणासूत्रात् । किं तद्वर्गणासूत्रमिति चेदुच्यते सव्वत्थोवा ओरालियसरीर दम्ब बग्गणापदेसा, ../न, अवगाहनापेक्षया औदारिकारी ४७६-४८२/४२३-४२४) रस्य महत्वोपपत्तेः । यथा 'सव्वत्थोवा कम्मइय-सरि-दव्यवग्गणाए ५. षट्कायिक जीवोके शरीरोका आकार ओगाहणा • ओरालिय-दव्व-वागणाए ओगाहणा असंखेज्ज गुणा त्ति । मू आ १०८६ मतरिय कुसग्गविदू सूइकलावा पडाय स ठाण । कायाण - उदार, पुरु और महान ये एक ही अर्थके बाचक है। उसमें जो गंठाण हरिदतसा णेगस ठाणा ।१०८१। पृथिवीकायिक के शरीरका शरीर उत्पन्न होता है उसे औदारिक शरीर कहते है। प्रश्न औदा-- आकार मसूर के आकार वत, यि पाहाभ के अग्रभागमें स्थित रिक शरार महान् है यह बात नही बनती है। प्रतिप्रश्न -18 कैसे जनबिन्दु त, नेनायिकका सूचीसमुदायबर अर्यात ऊबहुमुखाजाना । उत्तर - वर्गणासूत्रसे यह बात मालूम पड़ती है। प्रतिप्रश्न- कार, वायुकायिका नजा-तु आयत, चतुरस आकार है। सब यह वर्गणा सत्र कौन-सा है। उत्तर-वह वर्गणा-मूत्र इस प्रकार है, वनस्पति और द। इन्द्रिय आदि म जीवोका शरर भेद रूप अनेक 'औसरिक शरीरद्रव्य सम्बन्धी वर्गणाओके प्रदेश सबसे थोडे है।... आकार वाला है । गा जो /मू २०१/४१६ इत्यादि । उत्तर-प्रकृत में ऐसा नहीं है, क्योंकि अबगाहनकी अपेक्षा औदारिक शरीरकी स्थूलता बन जाती है। जैसे कहा भी है-'कार्माण ६ औदारिक शरीर में धातु-उपधातुका उत्पत्ति क्रम शरोर सम्बन्धी द्रव्यवर्गणाकी अवगाहना सबसे सूक्ष्म है। (इसके ध ६/१६-१-२८/श्ला. ११/६३ रसाद्रक्त ततो मासं मासान्मेद प्रवर्तते। पश्चात अन्य शरीरो सम्बन्धी द्रव्य वर्गणाओंकी अवगाहनाएँ क्रमसे __मेदसोऽस्थि तता मज्जा मज शुक्र तत प्रजा ।११। असंख्यात अस ख्यात गुणो है। और अन्तमे) औदारिक शरीर ध.६/१, ६-१.२८/६३/११ चवीसकलासयाई चउरसी दिक्लाओ च सम्बन्धी द्रव्य-वर्णणाकी अवगाहना इससे असंख्यात गुणो है। तिहिसत्तभागे ह परिही णणवव द्वाओ च सो, रसरूवेण अच्छिय ध. १४/५.६.२३७/३२२/५ उरालं थूल वट्ट महल मिदि एयट्ठो। कुदों रुहिर हादि। त हि तत्तिय चेव काल तत्थच्छिय माससरूवेण उरालतं, ओगाहणाए। सेससरोराणं ओगाहणाए एदस्स सरीरस्स परिणमइ । एब रोस धादूर्ण व वक्तव्य । एन मासेन रसो सुकम्वेण ओगाहणा बहुआ त्ति ओरालियसरीरमुराले त्ति यहिद । कुदो बहत्त परिण मह। - रससे रक्त बनता है, रक्तसे मांस उत्पन्न होता मवगम्मदे। महामच्छोरालियसरीरस्स पंचजोयणसद विवरव भेण है, मागसे मेदा पेदा होती है, मेदासे हड्डी बनती है, हड्डोसे मज्जा जोयणसहस्सायामदंसणादो। अथवा सेससरीराण वग्गणोऽगाहणादो पैदा होती है, मज्जामे शुक्र उत्पन्न होता है और शुक्रसे प्रजा उत्पन्न ओरालियसरीरस्स वग्ग ओगाहणा बहुआ त्ति ओरालियवग्गणा- होती है ।११। २५८४ कलामाष्ठा काल तक रस रसस्वरूपसे रहकर मुराल मिदि सण्णा । - उराल, वृत्त, स्थूल और महान् ये एकार्थवाची रुधिररूप परिणत होता है। वह रुधिर भी उतने ही काल तक शब्द है । प्रश्न - यह उराल क्यो है। उत्तर-अवगाहनाकी अपेक्षा रुधिर रूपसे रह कर मासस्वरूपसे परिणत हाता है। इसी प्रकार शेष उराल है। शेष शरीगे की अवगाहनासे इस शरीरको अवगाहना घातुओका भी परिणाम-काल कहना चाहिए। इस तरह एक मासके बहुत है, इसलिए औदारिक शरीर उराल है। प्रश्न- इसकी अनगा- द्वारा रस शुक्र रूपसे परिणत होता है। (गो क /जी प्र३३/३० पर हनाके बहूत्वका ज्ञान कैसे होता है। उत्तर- क्योकि, महामत्स्य का उद्धृत श्न ।क नं०१) औदारिक शरीर पाँच सौ योजन विस्तारवाला और एक हजर योजन गो क/जी.प्र. ३३/३० पर उद्धृत श्लोक नं०२ "वात पित्त तथा श्लेषा आयामवाला देखा जाता है। अथवा शेष शरीरोकी वर्गणाओकी सिरा स्नायुश्च चर्म च। जठराग्निरिति प्राज्ञ प्रत्ता सप्तोपधातव ।" अवगाहनाकी अपेक्षा औदारिक शरीर की वर्गणाओकी अवगाहना वात, पित्त, श्लेष्म, सिरा, स्नायु चम, उदराग्नि ये सात उपबहुत है, इसलिए औदारिक शरीरकी वर्गणाओकी उराल ऐसी धातु है। संज्ञा है। ७. औदारिक शरीरमें हड्डियों आदिका प्रमाण २. औदारिक शरीरके भेद भ.आ/मू १०२७-१०३५/१०७२-१०७६ अट्ठीणि हुंति तिण्णि हु सदाणि ध. १/१,१.५८/२६६/१० औदारिक शरीरं द्विविध विक्रियात्मकम- भरिदाणि कुणिममज्जाए। सवम्मि चेव देहे सधीणि हवं ति विक्रियात्मकमिति । औदारिक शरीर दो प्रकारका है-विक्रिया- तावदिया ।१०२७१ हारूण णवसदाई सिरासदाणि य हवं ति सत्तेव । स्मक और अविक्रियात्मक । (ध.६/४,१.६९/३२८/९)। देहम्मि मंसपेसाणि हुति पंचेव य सदाणि ।१०२८। चत्तारि सिरा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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