Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 477
________________ ४६२ ३. सम्यगेकान्तको इष्टता व इसका कारण' सर्वत्र स्वयं ऐसे भासता है जैसे बिना प्रयोग भी अयोगादिके व्यवच्छेदका बोधक एवकार शब्द । क.पा.१११,१३-१४/श्लो. १२३/३०७ अन्तर्भूतैवकारार्थाः गिर' सर्वा स्वभावत:/१२३ /-जितने भी शब्द है उनमें स्वभाव से ही एव कारका अर्थ छिपा हुआ रहता है। न्या.दी. ३/१८१ उदाहृतवाक्येनापि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां मोक्षकारणत्वमेवन संसारकारणमिति विषयविभागेन कारणाकारणारमकरवं प्रतिपाद्यते। सर्व वाक्यं सावधारणम् इति न्यायात्। -इस पूर्व (सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग ) उद्धृत वाक्यके द्वारा भी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यग्चारित्र इन तीनोंमें मोक्षकारणता ही है संसार कारणता नहीं, इस प्रकार विषय विभागपूर्वक कारणता और अकारणताका प्रतिपादन करनेसे वस्तु अनेकान्त स्वरूप कही जाती है। यद्यपि उक्त वाक्यमें अवधारण करनेवाला कोई एवकार जैसा शब्द नहीं है तथापि 'सभी वाक्य अवधारण सहित होते हैं' इस न्यायसे उसका ग्रहण स्वतः हो जाता है। ६ एवकारका प्रयोजन दृष्टावधारण क. पा. १,१३-१४ श्लो, १२३/३०७ एवकारप्रय गोऽयमिष्टतो नियमाय सः ॥१२३। -जहाँ भी एक्कारका प्रयोग किया जाता है वहाँ वह इष्टके अवधारणके लिए किया जाता है। श्लो. वा. २/१/६/५३/४४६/२५ अथास्त्येव सर्व मिश्यादिवाक्ये विशेष्यविशेषणसबन्धसामान्यावद्योतनार्थम् एवकारोऽन्यत्र पदप्रयोगे नियतपदार्थावद्य तनार्थोऽपीति निजगुस्तदान दोष । 'अस्त्येव सर्व' सभी पदार्थ हैं ही इत्यादि वाक्यों में तो सामान्य रूपसे विशेष्य विशेषण सम्बन्धको प्रगट करने के लिए एवकार लगाना चाहिए। तथा दूसरे स्थलोपर इस पदके प्रयोग करनेपर नियमित पदार्थोंको प्रगट करनेके लिए भी एवकार लगाना चाहिए। इस प्रकार कहेंगे तो कोई दोष नहीं है। यह स्याद्वाद सिद्धान्तके अनुकूल है। ७ एवकारका प्रयोजन अन्ययोग व्यवच्छेद ध. ११/४,२,६.१७७/श्लो.७८/३१७/१० विशेष्याभ्या क्रियया च सहोदितः। पार्थो धनुर्धरो नीलं सरोजमिति वा यथा ७ अयोगम. परोगमत्यन्तायोगमेव च । व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचक -निपात अर्थात् एवकार व्यतिरेचक अर्थात् निवर्तक या नियामक होता है। विशेषण-विशेष्य और क्रियाके साथ कहा गया निपात क्रमसे अयोग, अपरयोग (अन्य योग) और अत्यन्तायोग व्यवच्छेद करता है । जैसे-'पार्थो धनुर्धर ' और 'नील सरोजम्' इन वाक्योंके साथ प्रयुक्त एवकार (विशेष देखो एव') क.पा.१/१,१३-१४/श्लो. १२४/३०७ निरस्यन्ती परस्यार्थ स्वार्थ कथयति अति । तमो विधुन्वती भास्यं यथा भासयति प्रभा।१२४ - जिस प्रकार प्रभा अन्धकारका नाश करती है, और प्रकाश्य पदार्थों को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार शब्द दूसरे शब्दके अर्थका निराकरण करता है और अपने अर्थको कहता है । श्लो, बा.२/१,६/श्लो. ५३/४३१ वाक्येऽवधारणं तावद निष्टार्थ निवृत्तये । कर्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात तस्य कुत्रचित् । -किसी वाक्यमें 'एव' का प्रयोग अनिष्ट अभिप्रायके निराकरण करने के लिए किया जाता है, अन्यथा अविवक्षित अर्थ स्वीकार करना पड़े। स. म २२/२६७/२३ एवकार. प्रकारान्तरव्यवच्छेदार्थ । एवकार प्रका रान्तरके व्यवच्छेदके लिए है। प्र. सा./ता बृ. ११५ ११६२(२० अत्र तु स्यात्पदस्येव यदेवकारग्रहणं तन्नय सप्तभडीज्ञापनार्थमिति भावार्थ. यहाँ जो स्यात् पदवत् ही एव कारका ग्रहण किया है वह नय सप्तभङ्गोके ज्ञापनार्थ है, ऐसा भावार्थ जानना। ३. सम्यगेकान्तकी इष्टता व इसका कारण १ वस्तुके सर्व धर्म अपने पृथक-पृथक स्वभावमें स्थित हैं प्र.सा./त प्र.१०७ एकस्मिन् द्रव्ये य सत्तागुण स्तन्न द्रव्यं नान्यो गुणो न पर्यायो, यच्च द्रव्यमन्यो गुण' पर्यायो वा स न सत्ता गुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभाव स तदभाव लक्षणोऽत्तद्भावोऽन्यत्वनिमन्धनभूतः। -एक द्रव्यमें जो सत्ता गुण है वह द्रव्य नहीं है, अन्य गुण नहीं है, या पर्याय नहीं है । और जो द्रव्य, अन्यगुण या पर्याय है वह सत्ता गुण नहीं है, इस प्रकार एक दूसरे में जो 'उसका अभाव',अर्थात 'तद्रूप होनेका अभाव' है वह तद् अभाव लक्षण 'अतद्भाव' है जो कि अन्यत्वका कारण है। २ किसी एक धर्मको विवक्षा होनेपर उस समय वस्तु उतनी मात्र ही प्रतीत होती है श्लो. वा. २/१,६,५३/४४४/२० ज्ञान हि स्याद् ज्ञेयं स्याद् ज्ञानम् ।..न च ज्ञानं स्वत परतो वा, येन रूपेण ज्ञेय तेन ज्ञेयमेव येन तु ज्ञान तेन ज्ञानमेवेत्यवधारणे स्याद्वादिविरोध, सम्यगेकान्तस्य तथोपगमात । - ज्ञान कथंचिव ज्ञेय हे और कथंचिव ज्ञान है स्याद्वादियोके यहाँ इस प्रकारका नियम करनेपर भी कोई विरोध नहीं है कि ज्ञान स्व अथवा परकी अपेक्षासे जाननेवाले होकर जिस स्वभाव से ज्ञेय है, उससे ज्ञेय ही है और जिस स्वरूपसे ज्ञान है उससे ज्ञान ही है। पं का./त.प्र.८ येन स्वरूपेणोत्पादस्तत्तथोत्पादकलक्षणमेव, येन स्वरूपेणोच्छेदस्तत्तथोच्छेदै क्लक्षणमेव, येन स्वरूपेण धौव्य तत्तथा धौव्यैकलक्षणमेव, तत उत्पद्यमानोच्छिद्यमानावतिष्ठमानाना वस्तुन स्वरूपाणां प्रत्येक त्रै लक्षण्याभावादविलक्षणत्व विलक्षणाया । = जिस स्वरूपसे उत्पाद है उसका उस प्रकार से 'उत्पाद' एक ही लक्षण है। जिस स्वरूपसे व्यय है उसका उस प्रकारसे व्यय एक ही लक्षण है और जिस स्वरूपसे धौव्य है उस प्रकारसे ध्रौव्य एक ही लक्षण है। इसलिए वस्तुके उत्पन्न होनेवाले, नष्ट होनेवाले और ध व रहनेवाले स्वरूपों में से प्रत्येकको त्रिलक्षणका अभाव होनेसे त्रिलसणा-सत्ताको अत्रिलक्षणपना है। प्र, सा/त प्र ११४ सर्वस्य हि वस्तुन सामान्य विशेषात्मकत्वात्तत्स्वरूपमुत्पश्यता यथाक्रम सामान्य विशेषौ परिच्छन्ती द्वे क्लि चश्वषी द्रव्यार्थिक पर्यायाथिकं चेति । तत्र पर्यायाथिक्मेकान्तनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा.. तत्सर्व जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति । यदा तु द्रव्याथिक मेकान्त निमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन पर्यायाथिकेनावलोक्यते तदा विशेषाननेकानवलोकयतामनवलोकितसामान्यानामन्यदन्यव प्रतिभाति । यदा तु ते उभे अपि द्रव्यार्थिकपर्यायाथिके तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्चावलोक्यते तदा जीवसामान्य जीयमामान्ये च व्यवस्थिता विशेषाश्च तुलयकाल मेवावलोक्यन्ते । वास्तव में सभी वस्तु सामान्य विशेषारमक होनेसे बस्तुका स्वरूप देखनेवालोके क्रमशः सामान्य और विशेषको जाननेवाली दो ऑखे है-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । इनमें से पर्यायार्थिक चक्षुको सर्वथा बन्द करके जब मात्र खुले हुए द्रव्यार्थिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब वह सब जीव द्रव्य है' ऐसा दिखाई देता है। और जब द्रव्यार्थिक चक्षुको सर्वथा बन्द करके मात्र खुले हुए पर्यायर्थिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब पर्याप्रस्वरूप अनेक विशेषोको देखनेवाले और सामान्यको न देखने. वाले जीवोकी (वह जीव द्रव्य नारक, मनुष्यादि रूप) अन्य अन्य भासित होता है । और जब उन द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक दोनों आँखोंको एक ही साथ खोलकर उनके द्वारा देखा जाता है तब जीव सामान्य तथा जीव सामान्यमें रहनेवाले पर्यायस्वरूप विशेष तुष्यकाल में ही अर्थात् युगपत् ही दिखाई देते है। (और भी दे. अगले शीर्षक में प ध. के श्लोक) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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