Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 478
________________ एकान्त ४, मिथ्या एकान्त निराकरण ३. एक धर्म मात्र वस्तुको देखते हुए अन्य धर्म उस स. म /श्लो २६/२६७ य एव दोषा. किल नित्यवादे विनाशवादेऽपि समस्त एव । परस्परध्वसिषु कण्टकेषु जयत्यधृष्यं जिनशासन ते।२६। समय विवक्षित नहीं होते। - जिस प्रकार वस्तुको सर्वथा नित्य मानने में दोष आते है, वैसे ही -दे. स्याद्वाद ३ (गौण होते है पर निषिद्ध नहीं) उसे सर्वथा अनित्य मानने में दोष आते है । जैसे एक कण्टक (पाँवमें का,आ./ २६४ णाणा धम्म जुदं पिय एय धम्म पि बुच्चदे अत्यं । चुभे) दुसरे कण्टकको निकालता है या नाश करता है, वैसे ही तस्सेय विवरवादो णस्थि विवक्खा हु सेसाण ।२६४। नाना धर्मोसे नित्यवादी और अनित्यवादी परस्पर दूषणोको दिखाकर एक दूसरे युक्त भी पदार्थ के एक धर्मको नय कहता है, क्योंकि उस समय उसी का निराकरण करते है। अतएव जिनेन्द्र भगवान का शासन अर्थात धर्मको विवक्षा है, शेष धर्मों की विवक्षा नहीं है। अनेकान्त, बिना परिश्रमके ही विजयी है। पं.ध/पू. २६६,३०२,३३६,३४०,७५७ तन्न यत सदिति स्यादद्वैत द्वैतभावभागपि च । तत्र विधौ विधिमात्र तदिह निषेधे निषेधमात्र स्यात् ।२६६। २. एवकारका मिथ्या प्रयोग अज्ञानसूचक है अपि च निषिधत्वे सति नहि वस्तुत्वं विधेरभावत्वात । उभयात्मकं ___ स. म. २४/२६/१३ उक्त प्रकारेण उपाधिभेदेन वास्तव विरोधाभावमयदि खलु प्रकृत न कथ प्रतीयेत ।३०२। अयमर्थो वस्तु यदा केवलमिह प्रबुध्येवाज्ञात्वैव एवकारोऽअवधारणे । स च तेषां सम्यग्ज्ञानस्याभाव दृश्यते न परिणाम । नित्यं तदव्ययादिह सर्व स्यादन्वयार्थ नययोगात एव न पुनर्लेशतोऽपि भाव इति व्यनक्ति। -इस प्रकार सप्तभंगी।३३६। अपि च यदा परिणाम केवल मिह दृश्यते न क्लि वस्तु । अभि- बाद में नाना अपेक्षाकृत विरोधाभावको न समझर अस्तित्व और नवभावानभिनवभावाभावाद नित्यमंशनयात् ॥३४० नास्ति च तदिह नास्तित्व धर्मों में स्थूल रूपसे दिखाई देनेवाले विरोधसे भयभीत विशेष - सामान्यस्य विवक्षिताया वा। सामान्यैरितरस्य च गौणत्वे होकर, अस्तित्व आदि धर्मों में नास्तित्त्व आदि धर्मोका निषेध करने सति भवति नास्ति नयः ।७५७१ = यद्यपि सत् वैतभावको धारण वाले एक्कारका अवधारण करना, उन एकान्तवादियों में सम्यग्ज्ञानका करनेवाला है तत्र भी अद्वैत है, क्यो कि, सदमें विधि विवक्षित होने अभाव सूचित करता है । उनको लेशमात्र भी सम्यग्ज्ञानका सद्भाव पर वह सत् केवल विधिरूप ही प्रतीत होता है। और निषेध विव नही है ऐसा व्यक्त करता है। क्षित होनेपर केवल निषेध ही ।२६६। निपेयत्व विवक्षित होनेके समय अविवक्षित होनेके कारण विधिको वस्तुपना नहीं है ।३०२। सारांश ३. मिथ्या-एकान्तका कारण पक्षपात है यह है कि जिस समय केवल बस्तु दृष्टिगत होती है परिणाम दृष्टि- ध. १/१,१,३७/२२२/३ दोण्ह मज्झे एकस्सेव संगहे कीरमाणे वजभीरुत्त' गत नहीं होता, उस समय यहॉपर द्रव्याथिक नयकी अपेक्षासे वस्तू- विट्टति । दोण्ह पि सगह करताणमाइरियाणं वज्जभीरुत्तास्वका नाश नही हानेके कारण से सभी वस्तु नित्य है ।३३।। अथवा विणासादो। -दोनो प्रकार के वचनो या पक्षो में से किसी एक ही जिस समय यहॉपर केवल परिणाम दृष्टिगत होता है, बस्तु दृष्टिगत वचनके स्ग्रह करनेपर पापभीरुता निकल जाती है, अर्थात उच्छ्रनही होती, उस समय पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे नवीन-पर्यायकी ड्सलता आ जाती है। अतएव दोनो प्रकारके वचनोका संग्रह करनेउत्पत्ति और पूर्व-पर्याय के अभाव होनेसे सब ही वस्तु अनित्य है वाले आचार्यों के पापभीरुता नष्ट नही होती, अति बनी रहती है । ।३४०। और यहॉपर वस्तु, सामान्य की विवक्षामें विशेष धर्मकी ४. मिथ्या एकान्तका कारण संकर्ण दृष्टि है। गौणता होने पर विशेषधर्मो के द्वारा नहीं है । अथवा इतरकी विवक्षामें पं वि.४/७ भूरिधर्मात्मक तत्त्वं दु श्रुतेर्मन्दबुद्धय । जात्यन्धहस्तिअर्थात विशेष की विवक्षा में सामान्यधर्मको गौणता होने पर, सामान्य रूपेण ज्ञात्वा नश्यन्ति केचन ७ = जिस प्रकार जन्मान्ध पुरुष धर्मों के द्वारा नहीं है। इस प्रकार जो कथन है वह नास्तित्व-नय है हाथी के यथार्थ स्वरूपको नही ग्रहण कर पाता है, किन्तु उसके किसी ।७५७। (विशेष दे. स्थाबाद ३) एक ही अगको पकड कर उसे ही हाथी मान लेता है, ठीक इसी ४. ऐसा सापेक्ष एकान्त हमें इष्ट है प्रकार से कितने ही मन्दबुद्धि मनुष्य एकान्तवादियो के द्वारा प्ररूपित स स्तो /मू ६२ यथैकश कारकमर्थ सिद्धये, समीक्ष्य शेष स्वसहायकार- खोटे शास्त्रोके अभ्याससे पदार्थ को सर्वथा एकरूप ही मानकर उसके कम् । तथैव सामान्यविशेषमातृका, नयास्तवेष्टा गुणमुरख्यकलपत १६२॥ अनेक धर्मात्मक स्वरूपको नही जानते है और इसीलिए वे विनाश-जिस प्रकार एक एक ारक, शेष अन्यको अपना सहायकरूप कारक को प्राप्त होते है। अपेक्षित करके अर्थ को सिद्धिके लिए समर्थ होता है, उसी प्रकार ५. मिथ्या एकान्तमें दूषण आपके मतमें सामान्य और विशेषसे उत्पन्न होनेवाले अथवा सामान्य सं स्तो. २४,४२ न सर्वथा नित्य देत्यपैति, न च क्रियाकारकमत्र और विशेषको विषय करनेवाले जो नय है वे मुख्य और गौण की युक्तम् । नेवासतो जन्म सतो न नाशो, दीपस्तम पुद्गलभावतोsकल्पनासे इष्ट है। स्ति ।२४। तदेव च स्यान्न तदेव च स्यात, तथाप्रतीतेस्तब तत्कघ. १/१,१,६५/३३५/४ नियमेऽभ्युपगम्यमाने एकान्तबाद प्रसजतीति थचित । नात्यन्तमन्यत्वमनन्यता च, विधेनिषेधस्य च शून्यदोषात चेन्न, अनेकान्तगर्भ कान्तस्य सत्त्वाविरोधात । -प्रश्न-'तीसरे गुण- (४२। यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उदय अस्तको प्राप्त नहीं स्थानमें पर्याप्त हो होते है। इस प्रकार नियमके स्वीकार करनेपर तो हो सकती, और न उसमे क्रिया कारककी ही योजना बन सकती है। एकान्तबादके सद्भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता। जो सर्वथा असत है उसका भी जन्म नहीं होता और जो सत है ४. मिथ्या एकान्त निराकरण उसका कभी नाश नहीं होता। दीपक भी बुझनेपर सर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय अन्धकाररूप पुद्गल-पर्यायको ५ मिथ्या एकान्त इष्ट नही है धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है ।२४। आपका वह तत्व स रतो /मू ६८ अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सतो शून्यो विपर्यय । तत कथ' चित तद्रूप है और कथ चित् तद्रूप नहीं है। क्योंकि, वैसे ही सर्व मृषोक्त स्यात्तदयुक्त स्वघातत ।१८ - आपकी अनेकान्तदृष्टि सत असत् रूपकी प्रतीति होती है। स्वरूपादि चतुष्टयरूप विधि सच्ची है और विपरीत इसके जो एकान्त मत है वे शून्यरूप असत और पररूपादि चतुष्टयरूप निषेधके परस्परमें अत्यन्त भिन्नता तथा है। अत' जो क्थन अनेकान्तदृष्टिसे रहित हैं वह सब मिथ्या है। अभिन्नता नहीं है, क्योकि वैसा माननेपर शून्य दोष आता है। क्यो कि, वह अपना ही घातक है। अर्थात अनेकान्तके बिना एकान्त न च वृ. ६७ णिरवेक्खे एयन्ते संकरआदिहि ईसिया भावा । णो णिजकी स्वरूप-प्रतिष्ठा बन ही नहीं सकती। कज्जे अरिहा विवरीए ते वि खलु अरिहा ६७ निरपेक्ष-एकान्त तहस जैनेन्द्र सिदान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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