Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 476
________________ एकान्त चेतक स्वरूपी व्यापक के व्याप्य न होनेसे, मुझसे अत्यन्त भिन्न है । इसलिए मे ही अपने द्वारा ही अपने लिए ही अपने से ही अपनेमें हो, अपनेको ग्रहण करता हूँ । = प्र सा / त प्र २३६ इस आत्मज्ञानमागमज्ञानार्थान सयतत्व यौगपद्यमप्यवि चित्रमेव । - इसलिए आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञानतत्त्वार्थअयान और सती युगपता भी अंकि चित्र ही है। २३ स्वज्ञानानामेव श्रमणानामम्पुयानादिका प्रत योऽप्रतिषिद्धा इतरेषा तु श्रमणाभामाना ता प्रतिषिद्धा एव जिनके स्वतत्त्वका ज्ञान प्रवर्तता है, उन श्रमणो के प्रति ही अभ्युत्थानादिक प्रवृत्तियाँ अनिषिद्ध है, परन्तु उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभासोके प्रति प्रवृनि हो है। १० विशेषाद्रव्यस्य सरस्वरूमे का 1= सत्तासे द्रव्य अभिन्न होने के कारण 'सत्' स्वरूप ही द्रव्यका ल ण है । का आ / मू. २२५ जे वत्थु अणेयत त च्चिय कज्ज करेदि नियमेण । बहुधम्मजुद अस्थ कज्जकर दीसदे लोए। जो वस्तु अनेकान्त प है, वही नियम कार्यकारी है, क्योंकि, लोकमे बहुधर्मयुक्त पदार्थ ही कार्यकारी देखा जाता है । २ एवकारका मिथ्या प्रयोग रामा ४/४/१६/२३/२७ तत्रास्तिस्यैकान्तादिन जीव एवं अस्ति' इत्यवधारणे अजोवनास्तित्वप्रसङ्ग भयादिष्टतोऽवधारण विधि अश्येव जीव ' इति नियच्छन्ति तथा चावधारणसामर्थ्यात् शब्दप्रापितादभिप्रायवशवर्तिन सर्वथा जीवस्यास्तित्व प्राप्नोति यदि अस्तित्व एकान्तवादी 'जीव ही है' ऐसा अवधारण करते हैं. तो अजीवके नास्तित्वका प्रसंग आता है । इस भय से 'अम्त्येव' ऐसी प्रयोग विधि इष्ट है । परन्तु इस प्रकार करनेसे भी शब्द प्राप्त अभिप्रायके वशसे सर्वथा हो जीवके अस्तित्व प्राप्त होता है । अर्थात् पुद्गलादिके अस्तित्व से जीवका अस्तित्व व्याप्त हो जाता है. अत Arta और पुद्गल में एकत्वका प्रसंग अता है । ( अत 'स्याव अस्त्येव' ऐसा प्रयोग ही युक्त है ) प का /त प्र १० न चानेकान्तात्मकस्य द्रव्यस्य सन्मात्रमेव स्वरूप अनेकान्तात्मक द्रव्यका सत् मात्र ही स्वरूप नही है । ३ एवकार त चकार आदि निपातोकी सम्यक प्रयोग विधि श्लो वा २/९/३/५३/४३२/९० तत्र हि ये शन्दा स्वार्थ मात्रैऽनवधारिते सके तितास्ते तदनधारणसमुचयादिमाया तु चकारादिशब्दस्। तिनमेजय नहीं नियमित किये गये अपने सामान्य अर्थ के प्रतिपादन करनेमे सकेत ग्रहण किये हुए हा चुके है, वे तो उस अर्थ के नियम करनेकी विवक्षा होने पर अवश्य 'एवकार' को चाहते हैं । जसे जल शब्दका अर्थ सामान्य रूप से जल है । और हमें जल हा अर्थ अभीष्ट हो रहा है तो 'जल ही है' ऐसा एवकार लगाना चाहिए तथा जत्र कभी जल और अन्न के समुच्चय या समाहारकी विवक्षा हो रही है. तब 'चकार' शब्द लगाना चाहिए, तथा विकल्प अर्थको विवक्षा होनेपर 'बा' शब्द जोडना चाहिए (जैसे जल वा अन्न) । • घ Jain Education International ४६१ ४ विवक्षा स्पष्ट कर देनेपर एवकारकी आवश्यकता अवश्य पड़ती है। रा वा ५/२५ / १२ / ४६२ / १७ इत्येव सति युक्तम्, हेतुविशेषसामर्थ्यार्पण अवधारणाविरोधात द्रव्यार्थ तयावस्थानाच्च । - इस प्रकार विशेष विवक्षा में 'कारणमेव ' यह एवकारका भी विरोध नहीं है। रा वा १/९/२/६/९ एवं समशाद ज्ञानदर्शनपर्यायपरिष आत्मैव ज्ञान दर्शन च तत्स्वाभाव्यात् । एवंभूत न की दृष्टि २. एवकार की प्रयोग विधि ज्ञानकिया परिणत आरंमा हो ज्ञान है और दर्शन कियासे परिणत आत्मा ही दर्शन है, क्योकि ऐसा ही उसका स्वरूप | या २/१/६/४६-५२/४०३ प्रश्न शब्द प्रवर्तते। स्वादस्येवालियरूपादि४६ तिस सात प्रकार के (सप्त भग) वाचक शब्दो में कोई शब्द तो प्रश्नके वशसे विधान करनेमें प्रवृत्त हो रहा है, जैसे कि स्वद्रव्यादि चतुश्य से पदार्थ कथंचित् अस्तिरूप ही है । ( इसी प्रकार कोई शब्द निषेध करनेमें प्रवृत्त हो रहा है जैसे पर द्रव्यादिकी अपेक्षा पदार्थ कथचित् नास्तिरूप है इत्यादि) 1 द = श्लोक २/९/६/४/६/४०४/२० येनाननेकान्तस्तेनात्मनानेकान्त एवेरकान्तानुषङ्गोऽपि नानिष्ट प्रमाणसाधनस्यैवान्तरधे नयसाधन्यैकान्तव्यवस्थिते । जिस विपक्षित प्रमाण रूपसे अनेकान्त है, उस स्वरूपसे अनेकान्त ही है, ऐसा एकान्त होनेका प्रसग भी अनिष्ट नहीं है । क्योकि प्रमाण करके साधे गये विषयको ही अनेकान्तता सिद्ध है और नयके द्वारा साधन किये विषयको एकान्तपना व्यवस्थित हा रहा है । पका / ११ द्रव्यार्थार्पणायामनुपन्नमनुच्छेद सत्स्वभावमेव द्रव्यम् । = द्रव्याथिक नयसे तो द्रव्य उत्पाद व्यय रहित केवल सत्स्वभाव हो है । का अ /म. २६१ ज वत्यु अणेयत एयत त पि होदि सविपेक्ख । सुयजाणे एहिस रिवेक्ख दीसदे णेव । जो वस्तु अनेकान्त रूप है वही सापेक्ष दृष्टि से एकान्त रूप भी है। श्रुतज्ञानकी अपेक्षा अनेकान्त रूप है और नयो की अपेक्षा एकान्त रूप है। बिना अपेक्षा के बस्तुका स्वरूप नहीं ही देखा जा सकता है। निसा १६ उपहारे उपहारात निरुपणसुधारम स्वरूप नव जानाति यदि व्यवहारनयविवाया कोऽपि जिननाथतत्र विचारलन्ध कदाचिदेव वक्ति चेत् तस्य न खलु दूषणमिति । -व्यवहार व्यहारकी प्रधानता के होनेके कारण, निरुपराग शुद्धात्मस्वरूपको नहीं ही जानता है, ऐसा यदि व्यवहार न्यकी विलासे का जिननायके तत्व विचार में निविहे तो उसको वास्तव में दूषण नहीं है । पकात ३६/१०६ / १० या देवादि यद्यपि तु वृत्त्या शुकजीवस्वभाव तथापि कर्मक्षयेोपनत्वादुपचारेण कर्मजनित एव । - केवलज्ञानादि रूप जा क्षायिक भाव वह यद्यपि वस्तुवृत्ति से शुद्ध बुद्ध एक जीव स्वभाव है, तथापि कर्म के क्षय से उत्पन्न होनेके कारण उपचार कर्मजनित ही है। S १६/५२/१० जीवनयोगेन पन्नस्वाट्ट व्यवहारेण जीवशब्दो भण्यते, निश्चयेन पुन पुद्गलस्वरूप एवेति । - जीव के सयोग से उत्पन्न होनेके कारण व्यवहार नयकी अपेक्षा जीव शब्द कहा जाता है, किन्तु निश्चय नयसे तो वह शब्द पुद्गल रूप ही है न्याय दी ३ / ९८५ स्यादेकमेव वस्तु द्रव्यात्मना न नाना। द्रव्य रूप से अर्थात सत्ता सामान्यकी अपेक्षा वस्तु कथचित् एक ही है, अनेक नही । 1 न्या दी ३/६८२ / १२६/६ द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण स्वर्ण स्यादेवमेव, पर्यायार्थिकनयाभिप्रायेण स्यादनेकमेव व्याथिक नयके अभिप्राय स्वर्ण कथय एक ही है और पर्यायाथिक नय अभिप्रायसे (आदिरूप) कथंचि अनेक ही है। ५. बिना प्रयोगके भी एवकारका ग्रहण स्वतः हो हो जाता श्लो वा / १.६ / श्लो ५६ / २५७ सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञे सर्वत्रार्थात्प्रतीयते । यथैवकारोऽयागादिव्यवच्छेदप्रयोजन । = स्याद्वादके जाननेवाले बुद्धिधमान जन यदि अनेकान्त रूप अर्थ के प्रकाशक स्यात्का प्रयोग न भी करे तो प्रमाणादि सिद्ध अनेकान्त वस्तुके स्वभाव से ही जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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