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उपशम
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(चारी गतियो, तीनो वेदों व तीनों योगों मेंसे किसी भी गति वेद वा योग वाला हो), कोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी अथवा लोभकषायी अर्थात् चारो कषायोमे से किसी भी कषायवाला हो। किन्तु होयमान कषायवाला होना चाहिए। असंयत हो । (साकारोपयोगी हो) । कृष्णादि छहो लेश्या मे से किसी एक लेश्या वाला हो, किन्तु यदि अशुभ लेश्या हो तो हीयमान होनी चाहिए और यदि शुभ लेश्या हो तो वर्धमान होनी चाहिए। भव्य तथा आहारक हो । रावा. १/२/१३/२६८/२३ अनादिमिध्यादृष्टिर्भव्य पशमिति सत्कर्मक सादिमिध्यादृपिशितमोहनकृतिस्वर्मक विंशतिमोहप्रकृतिसर कर्मको या अष्टाविशतिमोहप्रकृतिसत्कर्मको ना प्रथमसम्यक्त्य ग्रहीतुमारभमाण शुभपरिणामाभिमुख अन्तर्मुहूर्तमनवर्तमानशुद्ध चतुर्षु मनोयोगेषु अन्यतमेन मनोयोगेन, चतुर्षु वाग्येोगेषु अन्यतमेन वाग्योगेन औदारिकवै क्रियककाययोगयोरन्यतरेण काययोगेन वा समाविष्टः हीयमानान्यतमकषाय, सारोपयोग त्रिषु वेदेश्वातमेन वेदेन संस्लेशनिरहित वर्धमान शुभपरिणामप्रतापेन सर्वकमं प्रकृतानां स्थिति हासयद अशुभप्रकृतीनामनुभागबन्धमपसार शुभप्रकृतीना रीणि कर णानि कर्तुमुपक्रमते । - अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के मोहकी छब्बीस प्रकृतियों का सत्व होता है और सादिमिध्यादृष्टि १६२० या २८ प्रकृतियोंका सत्व होता है। ये जब प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करने के उन्मुख होते हैं तब निरन्तर अनन्तगुणी विशुद्धिको बढाते हुए शुभपरिणामों सयुक्त होते जाते है। उस समय ये चार मनोयोगो में से किसी एक मनोयोग, चार वचनयोगसे किसी एक वचनयोग, औदारिक और वैक्रिक में से किसी एक काययोगसे युक्त होते है। इनके कोई भी एक कषाय होती है जो अत्यन्त हीन हो जाती है। साकारोपयोग और तीनों वेदोंमेंसे किसी एक वेदसे युक्त होकर भी सक्लेश रहित हो, प्रवर्धमान शुभ परिणामोसे सभी कर्मप्रकृतियों की स्थितिको कम करते हुए, अशुभ कर्मप्रकृतियो के अनुभागका खण्डन कर शुभ प्रकतियोंके अनुभागरसको बढ़ाते हुए तीन करणोको प्रारम्भ करते है । (ल.सा./ /२/४१) (और भी दे सम्यग्दर्शन IV/A) २. प्रथमोपशममें दर्शनमोह उपशम विधि
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च. ख. ६/१६-८ / सू ३-८ / २०३-२३८ एदेसि चेव सव्यकम्माण जावे अतोकोडा कोडिट्ठिदि बंदि तावे पणमसम्मत्तं लभदि । ३। सो पुण पंचिदिओ सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तओ सव्वविद्धो |४| एसि चैव सम्मान जाये अतोकोडाको डिडिदि वेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि जिस तापमसम्मत्तमुप्पादेदि ॥३॥ पठमसम्मत्तमुप्पादेो अोमुत्तमोहटेदि 14 आहटटेवून मिच्छ तिष्णि भागं करेदि सम्मत्त मिच्छत्त सम्मामिच्छत [७] द सणमोहणीयं कम्म उसमेंदि । इन हो सर्व कर्मोंको जब अन्त. - aternier स्थितिको बाँधता है तब यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है | ३| वह प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला
पंचेन्द्रिय, सही मिध्यादृणि पर्याप्त और सर्व विशुद्ध होता है |४| जिस समय सर्व कर्मोंकी संख्यात हजार सागरोसे होन अन्त - कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण स्थितिको स्थापित करता है, उस समय यह जीव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है |५| प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता हुआ सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव अन्त
काल तक हटाता है, अर्थात अन्तरकरण करता है । ६ । अन्तरकरण करके मिथ्यात्व कर्मके तीन भाग करता है - सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्याख || मिध्यात्वके तीन भाग करनेके पश्चात् दर्शनमोहनीय कर्मको उपशमाता है । भावार्थ- सम्यक्वा भिमुख जोव पंचलब्धिको क्रम से नाप्त करता हुआ उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करता है । क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोपगमन लब्धि व करण लब्धि-ये पाँच लब्धियोके नाम है ।
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२. दर्शनमोहका उपशम विधान
विचारनेकी शक्ति विशेषका उत्पन्न होना क्षयोपशम सन्धि है । परिणामो मे प्रति समय विशुद्धिकी वृद्धि होना विशुद्धि सन्धि है । सम्यक् उपदेशका सुनना व मनन करना देशना लब्धि है। उसके कारण हुई परिणामविशुद्धिके फलस्वरूप पूर्व कर्मों की स्थिति घटकर अन्तःकोडाकोडी सागरगात्र रह जाती है और नवीन कर्म भी इससे अधिक स्थिति नहीं बन्ध पाते, यह प्रायोग्य लब्धि है । अन्तमें उस सुने हुए उपदेशका भलीभाँति निदिध्यासन करना करण लब्धि है । करण लब्धिके भी तरतमता लिये हुए तीन भाग होते है-अध करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण सहाँ अध में परिणामोकी विशुद्ध प्रतिक्षण अनन्त गुणी वृद्धि होती है। अशुभ प्रकृतियोका अनुभाग अनन्तगुणहीन और शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक बन्धता है। स्थिति भी उत्तरोत्तरपश्योपमके असख्यातभाग करि होन होन बान्धती है। अपूर्व करण में विशुद्धि प्रतिक्षण बहुत अधिक वृद्धिगत होने लगती है। यहाँ पूर्व बद्ध स्थितिका काण्डक घात भी होने लगता है, और स्थिति बन्धापसरण भी विशुद्धि में अत्यन्त वृद्धि हो जानेपर वह अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करता है । यहाँ पहले से भी अधिक वेगसे परिणाम वृद्धिमान होते है। यह तीनों ही करण जीवके उत्तरोतर वृद्धिगत विशुद्ध परिणामोके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । इनके प्राप्त करनेमें कोई अधिक समय भी नही लगता। तीनों ही प्रकारके परिणाम अन्तर्मुहूर्त मात्रमें पूरे हो जाते है । तब अनिवृत्तिकरण कालके संख्यातभाग जानेपर अन्तरकरण करता है। परिणामोकी विशुद्धिके कारण सत्ता में स्थित कर्मप्रदेशों में से कुछ निषेकका अपना स्थान छोडकर, उत्कर्षण व अपकर्षण द्वाराऊपरनीचेके निषेकों में मिल जाना ही अन्तरकरण है । इस अन्तरकरण के द्वारा निकोकी एक अटूट पति टूटकर दो भागोंमें विभाजित हो जाती है एक पूर्व स्थिति और दूसरी उपरितन स्थिति बीचमें अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निषेकोका अन्तर पड जाता है । तत्पश्चात् उन्हीं परिणामो के प्रभाव से अनादिका मिथ्यात्व नामा कर्म तीन भागो में विभाजित हो जाता है - मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृतिमा ये तीनों ही कोई स्वतन्त्र प्रकृतियों नहीं है. गश्कि उस एक प्रकृतिमें ही कुछ प्रदेशो का अनुभाग तो पूर्ववत ही रह जाता है उसे तो मियाहते है। कुछ अनुभाग अन हो जाता है. उसे सम्मान बढ़ते है और कुछ अनुभाग पटकर उससे भी अनन्तगुणाहीन हो जाता है, उसे सम्यक्प्रकति कहते है । तब इन तीनो ही भागोकी अन्तर्मुहूर्त मात्र के लिए ऐसी स्थित सी अवस्था हो जाती है कि वे न उदयावली में प्रवेश कर पाते है और न ही उनका उत्कर्षण - अपकर्षण आदि हो सकता है । तब इतने कालमात्र के लिए उदपावलीने से दर्शनमोहकी दोनो ही प्रकृतियोका सर्वथा अभाव हो जाता है। इसे ही उपशमकरण कहते हैं। इसके होनेपर जीवको उपशम सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि विरोधी कर्मका अभाव हो गया है परन्तु अन्तर्मुहूर्त मात्र अधि पूरी हो जानेपर में कर्म पु सचेत हो उठते है और उपमानली में प्रवेश कर जाते है । तब वह जीव पुन मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है । अथवा यदि सम्यग्मिथ्यात्वका उदय होता है तो मिश्र गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है या यदि सम्यक् प्रकृतिका उदय हो जाता है तो क्षयोपशम समयको प्राप्त हो जाता है (रामा/१/१/१३ ६००/३९) (६/११/२००-२४३), (.सा./११०८/४१-१४६ (ग) जी / जो प्र. ७०४/११४१/१०), (गो क / जी. १५५० / ७४२ / १४ ) ३ मिथ्यात्वका त्रिधाकरण
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घ. ६/९.६८००/२३६ तेष खोह दुणेश उसे
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शुभाग वादिय सम्मत-सम्भामिल अणुभागायारेण परिणामिय पठमसम्म पडिणिसे उप्पादेदि (आगे नीचे भाषार्थ) - इसलिए अन्तरकरण करके ऐसा दे
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