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ऋदिध
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कहलाते हैं । वह तप जिनके होता है वे घोरतप ऋधिके धारक है। बारह प्रकारके तपोकी उत्कृष्ट अवस्था में वर्तमान साधु घोर तप कहलाते है, यह तात्पर्य है । यह भी तप जनित (तपसे उत्पन्न होनेवाली) ऋद्धि ही है, क्योंकि, बिना तपके इस प्रकारका आचरण बन नहीं सकता। (रावा. ३/३६/३/२०३/१२). ( चा सा २२२ / २) | ३. घोर पराक्रम तप ऋधि निर्देश
सिमसार
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पि. ४/१०५६-१०५७ विमलतरावा तिहुवण संहरणकरसतिसाकयमुदिरसण समस्या १०५६ सहस सोसणमा जाति जी पिणो घोरपरकमवति सा रिद्धी । १०५७। जिस ऋद्धिके प्रभावसे मुनि जन अनुपम एवं बृद्धिगत तपसे सहित दोगी शोको के सहार करने की शक्तियुक्त, कंटक, शिना, अग्नि, पर्वत, मुख तथा उनका आदिके बरसाने में समर्थ और सहसा सम्पूर्ण समुद्र सलिलसमुह सुलाने की शक्तिले भी संयुक्त होते है यह घोर पराक्रम-तप है।९०६६
१०२७० (रा. बा. २/३६/३/२०३/१६), (घ४/४.१.२७/१३/२). (चा, सा. २२३ / १)
४. घोर ब्रह्मवयं तप ऋद्धि निर्देश
ति. प. ४/१०५८-१०६० जोए ण होति मुणिणो खेत्तम्मि वि चोरपहुदिबाधाओं कालमहाजुद्रादो रिधी चोराचारि ९३८ स
उसमे चारितावरणमोहम्मस्स जा दुस्सम पास शिक्षी सा घोरब्रह्मचारिता | १०५६। अथवा - सव्वगुणेहि अघोरं महेसिणो ब्रह्मसहचारितं । विष्फुरिदाए जीए रिद्धी साघोरब्रह्मचारिता (१०६०।" - जिससे मुनिके क्षेत्रमें भी चौरादिकको बाधाएँ और काल एवं महापादि नहीं होते है, यह 'चोर र २०५८ (ध. ३/४.१.२६ / ६४/३) (वा सा २२३ / ४) पारित्रमोहनीयका उत्कृष्ट क्षयोपशम होने पर जो ऋद्धि दुस्वप्नको नष्ट करती है तथा जिस के आविर्भूत होनेपर महर्षिजन सब गुणों के साथ अपर अर्थात अविनश्वर ब्रह्मचर्यका आचरण करते है वह अघोर ब्रह्मचारित्व ऋद्धि है | १०५६- १०६०। ( रा वा तथा चा सा में इस लक्षणका निर्देश ही घोर गुण ब्रह्मचारीके लिए किया गया है) (रा. वा ३/३६/३/२०३/१६), (चा. सा. २२३/३) ।
६. ६/४.२६ / ६३-६, १४-२ घोरा रद्दा गुणा जैसि ते पोरगुणा कथं चरासादिगुणा चोर चोरकलकारिसजिगादो। ६४६ । • • ब्रह्म चारित्र पचवत समिति त्रिगुप्त्यात्मकम् शान्तिपुष्टिहेतुत्वात् । अघोरा शान्ता गुणा यस्मिन् तदघोरगुणं अघोरगुणं, ब्रह्मचरन्तीति अघोरगुचारिण'। एत्थ अकारो विण्ण सुणिज्जदे । सधिदि साशे । १६-२१ अर्थात है गुण जिनके वे पोर गुण कहे जाते है। प्रश्न- चौरासी लाख गुणोके घोरत्व कैसे सम्भव है । उत्तर- घोर कार्यकारी शक्तिको उत्पन्न करनेके कारण उनके घोरत्व सम्भव है। ब्रह्मका अर्थ पाँच पाँच समिति और तीन गुतिस्वरूप चारित्र है, क्योंकि वह शान्तिके पोषणका हेतु है। अमोर अ शान्त है गुण जिसमें वह अघोर गुण है । अघोर गुण ब्रह्म ( चारित्र) का आचरण करनेवाले अघोर गुण ब्रह्मचारी कहलाते है। (भावार्थअघोर शान्तको कहते है । जिनका ब्रह्म अर्थात् चारित्र शान्त है उनको अधोर गुण ब्रह्मचारी कहते है। ऐसे मुनि शान्ति और पुष्टि के कारण होते है, इसीलिए उनके तपश्चरण के माहात्म्यसे उपरोक्त ईति भीतियुद्ध दुर्भिक्षादि शान्त हो जाते है (चा, सा २२२ / ३ ) |
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• प्रश्न--'णमो घोरगुणबम्हचारीण' इस सूत्र मे अघोर शब्दका अकार क्यों नहीं सुना जाता उत्तर- सन्धियुक्त निर्देश होनेसे |
२. घोर गुण और घोर पराक्रम तपमे अन्तर
ध, १/४,१.२८/६३/८ ण गुण परवकमाण मेयत्त, गुणजणि दसत्तीए परक्कमसादो गुण और पराक्रम के एक नहीं है, क्योंकि गुण से उत्पन्न हुई शक्तिकी पराक्रम सज्ञा है ।
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६. बलऋद्धि निर्देश
५. तप्त दीप्त व महातप ऋद्धि निर्देश
ति प. ४/१०५२-१०५४ बहुविहउववासेहि रविसमवड्ढत काय किरणोघो । कायमण वयणबलिणो जीए सा दित्ततवरिद्धी । १०५२। तत्ते लोहकढाहे पडिक जीए भुवं किहि पाहि सा विभागाहि तत्ततवा | १०५३। मदरपंत्तिप्पमुहे महोववासे क्रेदि सब्वे बि । चउसण्णाण बलेण जीए सा महातवा रिद्धी । १०५४ |
घ. १/४.१.२३/१०/५ सिण केवल दिदिवितुमतो विवड्ढदि । तेण ण तेसि भुत्तिवि तेण कारणाभावादो। ण च भुक्खा दुक्ख व समणट्ठ भुजति, तदभावादी । तदभावो कुदोवगम्मदे । = जिस ऋद्धि के प्रभाव से मन, वचन और कायसे बलिष्ठ ऋषिके बहुत प्रकारके उपवासो द्वारा सूर्य के समान दीप्ति अर्थात् शरीरकी किरणों
समूह बढ़ता हो वह 'दीप्त तप ऋषि' है । १०५२। (रा. वा ३।३६/ ३, २०३ / ९ ); (चासा २२१ / २ ) | ( धवला में उपरोक्तके अतिरिक्त यह और भी कहा है कि उनके केवल दीति हो नही बढ़ती है, किन्तु भी महता है। इसीलिए उनके आहार भी नहीं होता, क्योकि उसके कारणोका अभाव है। यदि कहा जाय कि भूखके दुखको शान्त करनेके लिए वे भोजन करते हैं सो भी ठीक नहीं है. क्योकि उनके भूखके दुखका अभाव है ।) तपी हुई लोहेकी कडाहीमें गिरे हुए जण समान जिस पिसे खाया हुआ पातुओं सहित क्षीण हो जाता है अर्थात्रादि रूप परिणमन नहीं करता है, वह निज ध्यामसे हुई रात है । १०५३० (४. १/४.१.२४/१२/१). ( चा सा मुनि चार सम्मति स अवधि मन पर्यय) के मससे मन्दिर पंक्ति प्रमुख सब ही महाद उपवासको करता है वह 'महा तप ऋद्धि' है । (रा. वा. ३/३/६३/ २०३/११) ।
( रा वा ३ / २२ / ३ / २०३/१०). २२१/३)
६/४१२६/११/२ अणिमादिगुणोवेदो जलचरणादिविह चारणगुणात करियो कुरतसरी पो विरो सव्वोसही सरूवो पाणिपतणिवदिदसव्वहारो अभियसादसरूवेण लावणसमत्यो समसहितो व अर्णतवलो आसीदिठि तत्तव सविहरो मंदि द ओहि ग दिविवारी मुगी महातको मकस्मात
महत्त्व हेतुस्तपोविशेषो महानुच्यते उपचारेण स येषा ते तपस' इति सिद्धत्वात् । अथवा महसा हेतु तप उपचारेण महा इति भवति । = जो अणिमादि आठ गुणोसे सहित है. जलचारणादि आठ प्रकारके चारण गुणोसे अलकृत है, प्रकाशमान शरीर प्रभासे संयुक्त है, दो प्रकारकी अक्षो से युक्त है, सर्वोष स्वरूप है, पाणिपात्र में गिरे हुए आहारको अमृत स्वरूपसे पलटाने में समर्थ है, समस्त इन्द्रो से भी बन सके धारक है. आशीष और सिन्धियो समय है. से युक्त है, समस्त विद्याओके धारक है, तथा मति श्रुत, अवधि, मन पर्यय ज्ञानोसे तीनो लोको व्यापारी जाननेवाले है, वे मुनि 'महातपधि के धारक है। कारण कि महने हेतु विशेषको उपचार महास कहा जाता है। वह जिनके होता है वे महातम ऋषि है, ऐसा सिद्ध है । अथवा, महस् अर्थात् तेजोवा हेतुभूत जो तप है वह उपचार से महा होता है । (तात्पर्य यह कि सातो ऋद्धियोकी उत्कृष्टताको प्राप्त होनेवाले ऋषि महातप युक्त समझे जाते हैं। )
६. बल ऋद्धि निर्देश
४१०६१-१०६६ बलरिद्विधी तिहिप्पा मगवणसरीरयाणभे ए । सुदणाणावरणाए पगडी.ए वीरय तरायाए । १०६१। उक्क्सवख उबसमे सुहुत्तमेत्ततरम्मि सयलसुद । चितह जाणह जीए सा रिद्धी मणबागांना १०६२० जिन्मिदियोइदिय मुदणाणावरण विरिविधणं । उक्कणओवसमे मुहुसमेत तम्मणो ॥१०६॥ समप
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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