Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 472
________________ ऋषि तियंच समा जाते है, वह 'अक्षीण महालय' वृद्धि है १०० (रा.मा. ३/३६ / ३ / २०४ / ६ ), ( ध ६/४, १,४२/१०१/८ / केवल अक्षीण महानसका निर्देश है. अक्षीण महालयका नही), (चासा २२८ / १) । १०. ऋद्धि सामान्य निर्देश १. शुभ ऋद्धि की प्रवृत्ति स्वतः भी होती है पर अशुभकी प्रयत्न पूर्वक ही १ / ४.१.२१ / १५ / ९ असुहसी पद्धती लमिताभसहनी सुहाग ली पडती पुरा दोहि विपयारेहि संभवदि तदिच्छाए विशा वि पउत्तिद सणादो । अशुभ लब्धियोकी प्रवृत्ति धियुक्त जीमोकी बारी होती है किन्तु शुभ य की प्रवृत्ति दोनो हव स्वत सम्भव है, क्योंकि, इच्छा के बिना भी उक्त लब्धियोको प्रवृति देखी जाती है। २ एक व्यक्तिमें युगपत् अनेक ऋद्धियोंकी सम्भावना घ. १ / १,१, ५६ / २६८/६ नैष नियमोऽस्त्येकस्मि नर्द्धयो भूयस्यो भवन्तीति । गण भृत्सु सप्तानामपि वृद्धीनामक्रमेण सवोपलम्भाद। आहारय सह मनपर्ययस्य विरोधो रयते इति नाम न चानेन विरोध इति सर्वाभिर्विरोध पार्यतेऽव्यवस्थापत्तेरिति । एक आत्मामे युगपत् अनेक ऋधियाँ उत्पन्न नही होती, यह कोई नियम नही है, क्योंकि, गणधरो के एक साथ सातो ही ऋद्धियोका सद्भाव पाया जाता है। प्रश्नआहारक ऋविके साथ मन पर्ययका तो विरोध देखा जाता है। उत्तर - यदि आहारक ऋद्धिके साथ मन पर्ययज्ञानका विरोध देखने में आता है तो रहा आवे । किन्तु मन पर्ययके साथ विरोध है, इसलिए दूसरो सम्पूर्ण के साथ विरोध है ऐसा नहीं कहा जा सकता है। अन्यथा अव्यवस्थाको आपत्ति आ जायेगी । (विशेष देखो 'गणधर ") . ३. परन्तु विरोधी ऋद्धियों युगपत् सम्भव नहीं १३/४.३.२५/३२/३ पत्तस जस्स अणिमादिविव्विसमय आहारसरी रुद्रावणसभवाभावादो-अणिमादिधियो सम्पन्न प्रमत्त सयत जीव के विक्रिया करते समय आहारक शरीरकी उत्पत्ति सम्भव नही है । गोजी / २४२/५०५ वे हार किरिया सम पमन्त विश्वहि । जोगो का एक्केप य होदि नियमेण ॥ गो.जी. मप्र २४२/५०० प्रतविरते कपयोगक्रिया आहारक्योगक्रिया च सम युगपन्न संभवत । यदा आहारकयोगमवलम्ब्य प्रमत्तसय तस्य गमनादिक्रिया प्रदायिनि क्रियागमवलम्ब्य किया तस्य न पटले आहारकविभ्यपदवृत्त विरोधात् अनेन गणधरादिनामितर गप सम्भव दर्शित। गुणस्थानमे कथिक और आहारक शरीरकी क्रिया युगपद नहीं होती और योग भी नियम एक कालमे एक ही होता है। प्रमत विरत पट्ट गुणस्थानवर्ती मुनि समकाल ग्रक योगको क्रिया अर आहारक काययोगकी क्रिया नाही । ऐसा नाहीं कि एक ही काल विषे आहारक शरीरको धारि गमनागमनादि अभी क्रिया के बल से वे क्रियायोगको धारि विक्रियासम्बन्धी कार्य भी करें दोऊमें सौ एक ही होड़। यादें यह विकनिक और वृद्धि युगपत् प्रमो विरुध नाहीं । ऋद्धि गौरव गौरव ऋद्ध प्राप्त आर्य-आर्य ऋद्धि मद मद । Jain Education International ४५७ ऋद्धीश - सौधर्म स्वर्गका १३वाँ पटल- दे स्वर्ग ५ / ३ । ऋषभ स्वर सप्तकमे से एक दे. स्वर । ऋषभनाथ (म सर्ग / श्लोक पूर्णक ११० भव'जय (५/१०५), १० को भव में राजा 'महाबल' हुए (४ / १३३) तब किसी मुनिने बताया कि अगले दसवे भव में भरत क्षेत्रके प्रथम तीर्थङ्कर हो । पूर्व केन भव में 'ललिताग' देव हुए (५/२५३), ८ वे भव में (६/२६) ७ भव में भोग-भूमिज आर्य (१/३३), 4 ठे भव मे 'श्रीधर' नामक देव (६/१८५), ६ वे भव मे 'सुविधि' (ही १२१-१२२), चौथे व अन्युरोन्द्र १०११७१), तीसरे भाव मे बज्र नाभि (१९८१) और पूर्व के दूसरे भने अर्थात तीर्थसे पूर्ववाले भय में समर्थसिद्धि 'अमिन्द्र' (२१/९२१) वर्तमान मे इस चौबीसी के प्रथम तीर्थङ्कर हुए । (१३/१), (म पु ४७/३५७३५) आप अन्तिम कुलकर नाभिराय के पुत्र थे। ( १३ / १ ) उस समय प्रजाको असि मसि आदि छह कर्म सिखाये (१६/१७६.१००) । (त्रि. सा / ८०२), तथा क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन वर्गों की स्थापना की (१६ / १८३ ) | आषाढ कृ १ को कृतयुगका आरम्भ होनेपर आप प्रजापतिको उपाधिमे विभूषित हुए (१६ / ११०) नृत्य करते-करते नीलांजना नामकी अप्सरा के मर जानेपर आपको ससारसे वैराग्य आ गया (१७/७.११) एक वर्ष तक आहारका अन्तराय रहा। एक वर्ष पश्चात् राजा श्रेयासके यहाँ प्रथम पारणा हुआ (२०/८०), यद्यपि दीक्षा लेते समय आपने केश लॉच कर लिया था पर एक वर्ष के योगके कारण केश बढकर लम्बी लम्बी जटाऍ हो गयी थी। --- -दे केश लोच । जन्म व निर्वाण काल सम्बन्धी - दे मोक्ष ४ / ३) उनके पाँच कल्याणकोका क्षेत्र, काल, उनकी आयु व राज्य काल आदि तथा उनका सघ आदि सम्बन्धी परिचय सीर्थदूर ऋषि-मगोति सजदोति यरिविमुणिसापुति बीरागोति नामणि विहिदा अनगार भरतोि ऋषिदास । - उत्तम चारित्रवाले मुनियोंके ये नाम है- श्रमण, सयत, ऋषि, मुनि, साधु वीतराग, अनगार, भदत, दान्त, यति । प्र. साता २४६ में तस्वापि "ऋषि प्राप्त साधुको ऋषि कहते है (चा. सा, ४०/९ में घृत (साध ७/२० में उद्धृत) । २ ऋषिके भेद व उनके लक्षण -- प्रसा/ सा. वृ २४ में उद्धृत-- राजाब्रह्मा च देवपरम इति ऋषिर्विक्रियाक्षीणशक्तिप्राप्तो बुद्ध्यौषधीशो वियदयनपटुविश्ववेदी क्रमेण ।" ऋषि चार प्रकार है-राज अधि देव और परम। तिनमे विक्रिया और अक्षीय (क्षेत्र) शक्ति प्राप्त सा राजदि कहना है, बुद्धि औषधि प्रयुक्त साहलाते है आकाशगामी ऋषि सम्पन्न देवनि और विज्ञानी अस भगवान् परमर्षि कहलाते है । (चा सा ४७/१ में उद्वधृत), (सा. घ ७/२० में उद्धृत) ३. अन्य सम्बन्धित विषय * मुख्य ऋषि गणधर है - गणधर । * प्रत्येक तीर्थंकरके तीर्थमे ऋषियोका प्रमाण तीर्थदुर । * पिछले कालके भट्टारक भी अपनेको ऋषि लिखने लग गये थे - जे. २/११ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only ऋषिकेश चतुर्मुख पूजाके कर्ता आचार्य दे वृ. जै शब्दा.द्वि.सं. ऋषिदास- [भगवाद वीरचे तीर्थ के एक अनुत्तरोपपादक --दे, अनुत्तरोपपादक । www.jainelibrary.org

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