Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 470
________________ ऋधि ८ रस ऋद्धि निर्देश मुद जाणइ उच्चारइ जोए विष्फुर तीए । असयो अहिकठो सा रिदीउ णेया वयणबलणामा ।१०६४। उक्कस्सख उसमे पविमेसे विरिपविग्धपगढीए।मासचउमासपमुहे काउसग्गे वि समहीणा ।१०६५। उच्चट्ठिय तेल्लोक्कं झत्ति कणि टुंगुलीए अण्ण त्य । घविद जीए समत्था सा रिद्धी कायबलणामा ।१०६६। मन वचन और कायके भेदसे बल ऋद्धि तीन प्रकार है। इनमें से जिस ऋदिधके द्वारा श्रुतज्ञानावरण ओर वीर्यान्तराय इन दो प्रकृतियोका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर मुहर्तमात्र कालके भीतर अर्थात् अन्तमु हत्त काल में सम्पूर्ण श्रुतका चिन्तवन करता है वह जानता है, वह 'मनोवल नामक ऋद्धि है ।१०६१ १०६२।जिह्वन्द्रियावरण,नोइन्द्रियावरण,श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम होनेपर जिस ऋद्धिके प्रगट होनेसे मुनि श्रमरहित और अहीनकठ होता हुआ मुहर्तमात्र काल के भीतर सम्पूर्ण श्रुतको जानता व उसका उच्चारण करता है.उसे वचनबल' नामकऋद्धि जानना चाहिए।१०६३-१०६४। जिस ऋद्धिके बल से वीर्यान्तराय प्रकृतिके उत्कृष्ट क्षयोपशमको विशेषता होनेपर मुनि, मास व चतुर्मासादिरूप कायोत्सर्ग को करते हुए भी श्रमसे रहित होते है, तथा शीघतासे तीनों लोकोको कनिष्ठ अंगुली के ऊपर उठाकर अन्यत्र स्थापित करने के लिए समर्थ होते है, वह 'कायबल' नामक ऋद्धि है । १०६५-१०६६। (रा. वा ३/३६/३/२०३/१६). (ध ६/४,१. ३५-३१/-88); (चा. सा./२२४/१) । ७. औषध ऋद्धि निर्देश १. औषध ऋद्धि सामान्य रा बा. ३/३६/३/२०३/२४ औषधिरष्टविधा-असाध्यानामप्यामयानी सर्वेषां विनिवृत्तिहेतुरामर्शश्वेलजन्लमल विट सौंषधिप्राप्तास्याविषदृष्टिविषविकल्पात । - असाध्य भी सर्व रोगोकी निवृत्तिकी हेतुभूत औषध-ऋद्धि आठ प्रकारकी है-आमर्ष, ६वेल, जल्ल, मल, विट् , सर्व, आस्याविष और दृष्टिविष । (चा सा २२५/१)। २. आमर्ष श्वेल जल मल व विट औषध ऋद्धि ति प ४/१०६८-१०७२ रिसिकर चरणादीणं अखिल यमेतम्मि। जीए पासम्मि । जोवा होति णिरोगा सा अम्मरिसोसही रिद्धी ।१०६८। जोए लालासेमच्छीमल सिहाणआदिआ सिग्ध । जीवाणं रोगहरणा स च्चिय खेलोसही रिद्धी ।१०६६। सेयजलो अगरय जल्लं भण्णेत्ति जीए तेणावि । जीवाण रोगहरणं रिद्धी जस्लोसही णामा ।१०७०। जोहोट ठद तणासासोत्तादिमलं पि जीए सत्तीए । जोत्राग रोगहरण मलोसही णाम सा रिद्धी ।१०७१ - जिस ऋदिधके प्रभावसे जीव पासमें आने पर ऋषिके हस्त व पादादिके स्पर्शमात्र से ही निरोग हो जाते है. वह 'आमाँषध' ऋद्धि है ।१०६८। जिस ऋद्धि के प्रभावसे लार, कफ, अक्षिमल और नासिकामल शीघ ही जीवोके रोगो को नष्ट करता है वह 'वेलौषध ऋद्धि है।१०६६। पसोनेके आश्रित अगरज जलल कहा जाता है । जिस ऋद्धिके प्रभावसे उस अगर जसे भी जीवो के रोग नष्ट होते है,वह 'जल्लौषधि' ऋद्धि कहलाती है।१०७०। जिस शक्तिमे जिहा. ओठ, दाँत, नासिका और श्रौत्रादिकका मल भी जीवोके रोगों को दूर करनेवाला होता है, वह 'मलौषधि नामक ऋद्धि है। (रा वा. ३/३६/३/२०३/२५), (ध. ६/४,१,३०-३३/६५-६७), (चा. सा. २२५/२), २. आम@षधि व अघोरगुण ब्रह्मचर्य मे अन्तर घ. ६/४,१,३०६६/१ तवोमाहप्पेण जेसि फासो सयलोसहरूवत्तं पत्तो तेसिमाम्मरिसो सहिपत्ता त्ति सण्णा ।=ण च एदेसिमघोरगुणबंभयारीणं अंतब्भावो, एदेसि वाहिविणासणे चेव सत्तिदंसणादो। तप के प्रभावसे जिनका स्पर्श समस्त औषधियोंके स्वरूपको प्राप्त हो गया है,उनको आमाँषधि प्राप्त ऐसी संज्ञा है। इनका अघोर गुणब्रह्मचारियों में अन्तर्भाव नहीं होता, क्योकि, इनके अर्थाव अघोरगुण ब्रह्मचा रियोके केवल व्याधिके नष्ट करने में ही शक्ति देखी जाती है। (पर उनका स्पर्श औषध रूप नही होता)। ३. सर्वोषध ऋद्धि निर्देश ति.प./४/१०७३ जीए पस्स जलाणिलरोमणहादीणि वाहिहरणाणि । दुक्करव जुत्ता रिद्री सम्वोही णामा ।१८७३। जिस ऋद्विधके मलसे दुष्कर तपसे युक्त मुनियो का स्पर्श किया हुआ जल व वायु तथा उन के रोम और नरवादिक व्याधिके हरनेवाले हो जाते हैं, वह सर्वोषधि नामक ऋद्धि है। (रा वा ३/३६//२०३/२६). (चा सा २२५/१२) ध, १/४.१.३४/१७/६रस रुहिर-मास-मेदछि -मज्ज-मुक्क-पुप्फस-रवरीसकालेज्ज मुत्त-पित्त तुच्चारादओ सव्वे ओसाहत्त पत्ता जेसि ते सव्वासहिषत्ता। - रस, रुधिर, मास, मेदा, अस्थि, मज्जा, शुक्र, पुष्फस खरीष, कालेय, मूत्र, पित्त, अतड़ी, उच्चार अर्थात मल आदिक सब जिनके औषधिपने को प्राप्त हो गये है वे सर्वोष धिप्राप्त जिन है। ४. आस्यनिर्विष व दृष्टिनिविष औषध ऋद्धि ति. प/४/१०७४ १०७६ तित्तादिविविहम्मण्ण विसुजुत्तं जीए वयणमे तण । पावेदि णिव्विसत्तं सा रिधी बयणणिव्य साणामा ।१०७४। अहया बहुवाहाहि परिभूदा झत्ति होति जीरोगा। सोदु वयण जीए सा द्विधी वयगणिव्विसाणामा।१०७ारोगाविसे हि पहदा दिट्ठीए जोए झत्ति पावति । णीरोगणिव्विसत्तं सा भणिदा दिदिणि व्विसा रिद्री ११०७६ रा वा ३,३६,३/२०३/३० उग्र विषसंपृक्तोऽप्याहारो येषामास्यगतो निर्विषीभवति यदीयास्य निर्गत वच श्रवणाद्वा महाविषपरीता अपि निर्विषोभवन्ति ते आस्याविषा != (ति.प.)-जिस ऋद्धिसे तिक्तादिक रस व विषसे युक्त विविध प्रकारका अन्न वचनमात्रसे ही निविषताको प्राप्त हो जाता, वह 'वचननिर्विष' नामक ऋद्धि है ।१०७४। (रावा)- उन विषसे मिला हुआ भी आहार जिनके मुख में जाकर निविप हो जाता है, अथवा जिनके मुख से निकले हुए वचनके सुनने मात्र से महाविष व्याप्त भो कोई व्यक्ति निविष हो जाता है वे 'आस्याविष' है । (चा सा. २२६/१) । (ति प ) अथवा जिस अधिके प्रभावसे बहुत व्याधियोसे युक्त जीव, ऋषिके वचनको सुनकर ही झटसे नीरोग हो जाया करते है, वह वचन निविष नामक ऋदिध है ।१०७५॥ रोग और विषसे युक्त जीव जिस ऋद्धिके प्रभावसे झट देखने मात्रसे ही निरोगता और निर्विषताको प्राप्त कर लेते है, वह 'दृष्टिनिविष' ऋद्धि है ।१०७६ । (रा वा ३/३६/३/२०३/३२), चा-सा २२६/२) ८ रस ऋद्धि निर्देश १. आशीविष रस ऋद्धि ति प.४/१०७८ मर इदि भणिदे जोओ मरेइ सहस त्ति जीए सत्तीए । दुक्खरतवजुदमुणिणा आसीविस णाम रिद्धी सा। -जिस शक्तिसे दुष्कर तपसे युक्त मुनिके द्वारा 'मर जाओ' इस प्रकार कहने पर जीव सहसा मर जाता है, वह आशीविष नामक ऋद्धि कही जाती है। (रा वा, ३/३६/३/२०३/३४), (चा सा २२६/५) ध/४.१,२०/८५/५ अविद्यमानस्यार्थस्य आशंसनमाशी, आशीविष एष ते आशीविषा । जेसिज पडि मरिहि त्ति वयण णिप्पडिदं तं मारेदि, भिवरवं भमेत्तिवयणं भिक्ख भमावेदि, सीसं छिज्जउत्ति वयणं सीस छिददि, आसीविसा णाम समणा । क्धं वयणस्स विससण्णा । विसमिब विसमिदि उवयारादो। आसी अविसममियं जेसि ते आसी विसा। जेसि वयण थावर जगम-विसपूरिदजीवे पड़च्च 'णिविसा होतु' त्ति णिस्सरिद ते जीवावेदि । बाहिवेयण-दालिद्दादिविलय पड्डुच्च णिप्पडितं स तं तं त ज्ज रेदि ते वि आसीविसात्ति उत्तं होदि । = अविद्यमान अर्थ की इच्छाका नाम आशिष है। आशिष है विष (वचन) जिनका वे आशीविष कहे जाते है। 'मर जाओ' इस प्रकार जिनके प्रति निकला हुआ जिनका बंधन उसे मारता जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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