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ऋषि
और तिरछे फेलनेवाले धुऍका अवलम्बन करके अस्खलित पादक्षेप देते हुए गमन करते है वह 'धूमचारण' नामक ऋद्धि है । १०४२। जिस ऋधिसे मुनि अकायिक जावको पीडा न पहुँचाकर बहुत प्रकारके मेघोपरसे गमन करता है वह 'मेघचारण' नामक ऋद्धि है । १०४३ | जिसके द्वारा मुनि महर्षि शोमा किये गये निक्षेपमेत्यन्त लघु होते हुए मकडीके तन्तुओ की पक्तिपरसे गमन करता है वह 'मकडोसन्तुचारण' ऋद्ध है । १०४५। जिसके प्रभावमे मुनि नाना प्रकार की गति से युक्त वायु प्रदेशकी पक्ति पर अस्खलित होकर पदविक्षेप करते हैं, वह 'मारुतचारण' ऋद्धि है । (रावा ३/३६/३/२०२ २७) : ( वा सा २१८/१) ।
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घ ६/४,९,१७/८०-१,८१-८ धूमग्गि- गिरि तरु त तुसताणेसु उढारोहणजुलानाम ८०-१ धूममिवाद-महाविचारणा ततु-सेडिचारणेसु अतभाओ, अणुलोमविलोमगमणेसु जीवपीडा प्रकरण तिस जुनादी धूम, अग्नि पर्वत और वृक्ष सन्तु समूह परसे ऊपर चढने की शक्तिसे संयुक्त 'श्रेणी चारण है। धूम, अग्नि, वायु और मेघ आदिकके आश्रय से चलनेवाले चारणोका 'तन्तु श्रेणी' चारणो में अन्तर्भाव हो जाता है कि वे अनुलोम और प्रतिलोम गमन करनेमें जीवोको पीडा न करनेकी शक्तिसे संयुक्त है। ७ धारा व ज्योतिष चारण निर्देश
ति प ४ / १०४४,१०४६ अविराहिय तल्लोणे जीवे व्रणमुक्कवारिधाराण । उवरि ज जादि मुणी सा धाराचारणा ऋद्धि । १०४४। अब उड्ढतिरियपसरे किरणे अविल बिदूण जोदीण । ज गच्छेदि तवरसी सा रिद्धी जोदि चारणा णाम । १०४६। जिसके प्रभाव से मुनि मेधोरो छोडो गयी जलधारा स्थित जो बोको पीडान पहुँचाकर उनके ऊपर से जाते है, वह धारा चारण द्वि है । १०४४। जिससे तपस्त्री नीचे ऊपर और तिगो केशली ज्योतिषी देवोके गानो विरोका अवलम्बन करके गमन करता है वह ज्योतिश्चारण ऋद्धि है | १०४६ । ( इन दोनो का भी पूर्व बाले शीर्षक में दिये धवला ग्रन्थके अनुर तन्तु श्रेणी ऋद्धि अन्तर्भाव हो जाता है)
८. फल पुष्प बीज व पत्रचारण निर्देश
ति प ४/१०३८-१०४० अविराहिदूण जीवे तल्लोणे बणफलाण विविहाण | उवरिम्मि जपधावदि स च्चिय फलचारणा रिद्धी । १०३८ । अविराहिंदू जीवे विहान पुप्फा उबरिम्मि ं पराप्यदि सा रिफा १०२०१ हिदू जी सही बहुविहाण पत्ताण । जा उवरि बच्चदि मुणी सा रिद्धी पत्तचारणा णामा | १०३ | - जिस ऋद्धिका धारक मुनि वनफलोमें, फूलोमें, तथा पत्तो में रहनेवाले जोवोकी विराधना न करके उनके ऊपरसे जाता है वह फलचारण, पुष्पचारण तथा पत्रचारण नामक ऋद्धि है ।
ध १/२१,१७/७६-७,८१ ५ तंतुफल पुप्फीजचारणाणं पि जलचारणाणं व देही पिपलिया विचारणा फलधारणेस अभाव त जोपरिहरणतं पठि भेदाभावादी संकरतण पवालादिचारणाण पुप्फचारणेसु अंतब्भावो, हरिदकायपरिहरणकुसन्नत्तेण साहम्मादो।८१/५१ - तन्तुचारण, फलचारण, पुष्पचारण और बोजचारणका स्वरूप भी जलचारणोके समान कहना चाहिए (अर्थात् उनमें रहने वाले जोवोको पीडा न पहुँचाकर उनके ऊपर गमन करना) । ७६-७ । कुंथुजीव, मुत्कण, और पिपीलिका आदि परसे संचार करनेवालोका फलचारणो में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, इनमें सजीवो के परिहारकी कुशलताकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है । पत्र, अकुर, तृण और प्रवाल आदि परसे संचार करनेवालोका पुष्पचारणीमें अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, हरितकाय जीवोके परिहारकी कुशलताकी अपेक्षा इनमें समानता है ।
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५. तपऋद्धि निर्देश
५. तपऋषि निर्देश
१. उग्रतपऋद्धि निर्देश
ध १/४,१,२२/८७-५, ८६-६ उग्गतवा दुविहा उग्गुग्गतवा अवद्विदुग्गतवा चेदि । तत्थ जो एक्कोववास काऊण पारिय दो उववासो करेदि. पुरविपारि तिमि उपवास करेदि । एवमेत्तरी जीवद त तिगुत्तिगुत्तो होदूण उपवासे करे तो उम्मगतवो णाम । एदस्सुववास पारणाणणे सुत्तं - " उत्तरगुणिते तु धने पुनरप्यष्टापितेऽत्र गुणमादिय उत्तरविशेषिति च योग्याग्ये २३ । इत्यादि तत्थ दिवखट्ठेमेगीवबासं वाऊण पारिय पुर्णा एक्वहंतरेण रोग धीयवासी जादो
वासेण विहर तस्स अट्ठमोबवासी जादो एव दसम लिसादिकमेण हेट्ठा ण पदंतो जाव जीवितं जो विहरदि अवट्रिट्ठदुग्गतवो णाम । एसिमेोदि
- उग्रतप
के धारक दो प्रकार है - उग्राग्रतप ऋषि धारक और अवस्थितउग्रतप ऋद्विध धारक । उनमें जो एक उपवासको करके पारणा कर दो उपवास करता है, पश्चात् फिर पारणा कर तीन उपवास करता है । इस प्रकार एक अधिक वृद्धिके साथ जीवन पर्यन्त तीन सियोसे रक्षित होकर उपवास करनेवाला 'उग्रोग्रतप' ऋद्धिका धारक है। इसके उपवास और पारणाओका प्रमाण लानेके लिए सूत्र - (यहाँ चार गाथाएँ दी है जिनका भावार्थ ग्रह है कि १४ दिन में १० उपवास व ४ पारणाएँ आते है। इसी कमसे आगे भी जानना) (ति ४/९०५१०५१) दीक्षा के लिए एक उपवास करके पारणा करे, पश्चात् एक दिनके अ तरसे ऐसा करते हुए किसो निमित्तसे षष्टशेपवास (बेला) हो गया फिर पूर्वाद हो उस पास बिहार करनेवाले के (कदाचित् ) अष्टमोपवास (तेला) हा गया। इस प्रकार दशमद्वादशम आदि क्रमसे नीचे न गिरकर जा जीवन पर्यन्त विहार करता है, वह अवस्थित उग्रतप ऋद्धिका धारक कहा जाता है। यह भी तपका अनुष्ठान वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे होता है । ( रा वा ३/३६/३ २०३ / ८) (चा. सा २२० /१) ।
२. घोर तपऋषि निर्देश
[वि.] ४१०५५ जनसम्पमुहाणं रोगेणच्चतुपी साईदि दुर्धरतव जोए सा घोरतवरिधी । १०५५ ।
वदसि
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६/४.९.२६/१२/२ उनवासमासीनमासो अनमोदयिएको उतिपरिचरे गोयराभिग्गहो, रसाउहजद्दोयणभयण, वित्तियणासणेसु वय वग्घ-तरच्छ छल्लादिसावयसेमियासुसज्ममा काम से सुतिय हिमवासादिशिअम्भोका सरुवखमूलादारणजागग्गण । एवमब्भं तर बेसु वि उक्कट्ठतवपत्रणा कायव्या। एसो बारह विह वि तबो कायरजाणं रज्झसजणणो त्ति घोरत्तवो । सो जेभिते घोरत्तवा । बारसविहतबकट्ठट्ठा वट्टमाणा घोरतवा त्ति भणिद होदि । एसा वि तवणि दरिद्धो चेव, अण्णहा एवं विहाचरणाणुवत्रत दो। (ति प) जिसके बल पर और शुनादि रोगसे शरके अध्यन्त पीडित होने पर भी साधुजन दुर्धर तपको सिद्ध करते है, वह घोर तपऋधि है । १०५५। उपवासोमे छह मासका उपवास अमोदर्य पोमे एक ग्रास वृतिपरिवाओ मे चौराहेने भिक्षाकी प्रतिज्ञा, युक्त बोदनका भोजन वनों में वृक, व्याघ्र, तरस, छत्रल्ल आदि श्वापद अर्थात् हि सजीवोसे सेवित साध्य आदि (सोको वियोगे निवास, कायपलेशों में तीव्र हिमालय आदिके अन्तर्गत देशो मे खुले आकाश के नीचे.. वृक्षमूल में, आतापन योग अर्थात् ध्यान ग्रहण करना। इसी प्रकार अभ्यन्तर तपो में भी उत्कृष्ट तपकी प्ररूपणा करनी चाहिए। ये बारह प्रकार ही तर कायर जनोको भयोत्पादक है, इसी कारण घोर तप
अथवा
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