Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 467
________________ ऋदिध ४५२ ४ चारण व आकाशगामित्व ऋद्धि निर्देश यहाँ चारण ऋषियोके एक सयोग, दो सयोग आदिके क्रमसे २५५ भग उत्पन्न करना चाहिए। एक सयोगी-८, द्विसयोगी-२८, त्रिसं योगी-५६, चतु सयोगी ७०; पचसयोगी ०५६, षट्संयोगी -२८, सप्तसयोगी.., अष्टसयोगी-१ । कुल भंग- २५५ । (विशेष दे गणित II/४) प्रश्न-एक ही चारित्र इन विचित्र शक्तियोका उत्पादक कैसे हो सकता है। उत्तर - नही, क्योकि परिणामके भेदसे नाना प्रकार चारित्र होनेके कारण चारणोकी अधिकतामे कोई विरोध नही है । प्रश्न-जब चारणो के भेद २५५ है तो फिर उन्हे आठ प्रकार का बतलाना कैसे युक्त है । उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योकि, उनके आठ होने का कोई नियम नही है। तथा २५५ चारण आठ प्रकार चारणोसे पृथक् भी नही है। ३. आकाशचारण व आकाशगामित्व १. आकाशगामित्व ऋद्धिका लक्षण ति प ४/१०३३ १०३४ । अट्ठीओ आसीणो काउसग्गेण इदरेण । १०३३' गच्छेदि जोए एसा रिद्धी गयणगामिणी णाम ॥१०३४ - जिस ऋद्धिके द्वारा कायोत्सर्ग अथवा अन्य प्रकारसे ऊर्ध्व स्थित होकर या बैठकर जाता हे वह आकाशगामिनी नामक ऋद्धि है । रा वा ३/३६/३/२०२/३१ पर्यावस्था निषण्णा वा कायोत्सर्गशरीरावा पादोधारनिक्षेपण विधिमन्तरेण आकाशगमनकुशला आकाशगामिन ।" -पर्यासनसे बठकर अथवा अन्य किसी आसनसे बैठकर या कायोत्सर्ग शरीरसे (पैरोको उठाकर रखकर (धवला)] तथा बिना पैरोको उठाये रखे आकाशमे गमन करने में जो कुशल होते है, वे आकाशगामी है। (घ१/४,१,१७/८०/५), (चा सा २१८/४) ध,६/४,१,१६/८४/५ आगासे जहिच्छाए गच्छता इच्छिदपदेस माणुसुत्तर पबवावरुद्ध आगासगामिणा त्ति घेतव्यो। देव विज्जाहरण जग्गहण जिणसहणु उत्तीदा। आकाशमे इच्छानुसार मानुषोत्तर पर्वतसे घिरे हुए इच्छित प्रदेशोमे गमन करनेवाले आकाशगामी है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। यहाँ देव व विद्याधरो का ग्रहण नहीं हे, क्योकि 'जिन' शब्दती अनुवृत्ति है। २ आकाशचारण ऋद्धिका लक्षण ध.६/४.१,१७/८०/२ चउहि अगुले हितो अहियपमाणेण भूमीदो उवरि आयासे गच्छतो आगासचारण णाम। -चार अगुलसे अधिक प्रमाणमे भूमिसे ऊपर आकाशमें गमन करनेवाले ऋषि आकाशचारण कहे जाते है। ४ जलचारण निर्देश १. जलचारणका लक्षण घ १/४,१,१७/७६-३, ६-७ तत्थ भूमीए इव जलकाइयजीवाण पीडमकाऊण जल मफुसता जहिच्छाए जलगमणसस्था रिसओ जलचारणा णाम । पउणिपत्तं व जलपासेण विणा जलमज्झगामिणो जलचारणा त्ति किण्णण उच्चति । ण एस दोसो, इच्छिउजमाणत्तादो 108-३। आसकरखासधूमरोहिमादिचारणाण जलचारणेसु अतभावो, आएक्काइयजीवपरिहरणकुशलत पडि साहम्मदसणादो 1८१-७/- जो ऋषि जलकायिक जीवोको बाधा न पहुँचाकर जलको न छूते हुए इच्छानुसार भूमिके समान जलमें गमन करने में समर्थ है, वे जलचारण कहलाते है। (जल पर भी पाद निक्षेपपूर्वक गमन करते है)। प्रश्नपद्मिनीपत्रके समान जलको न छूकर जलके मध्यमें गमन करनेवाले जल चारण क्यो नहीं कहलाते ? उत्तर-यह कोई दोष नही है,क्योंकि ऐसा अभीष्ट है । (ति. प ४/१०३६) (रा वा ३/३६/३/२०२/२८) (चा. सा २१८/२)। ओस, ओला, कुहरा और बर्फ आदि पर गमन करनेवाले चारणोका जल चारणोमे अन्तर्भाव होता है। क्यो कि, इनमें जलकाधिक जोवो के परिहारकी कुशलता देखी जाती है। २ जलचारण व प्राकाम्य ऋद्धिमे अन्तर घ६/४,१,१७/७१/५ जलचारण-पागम्मरिद्धी दोण्हं को विसेसो। घणपुढ वि-मेरुसायराणमतो सव्वसरीरेण पवेससत्ती पागम्म णाम। तत्थ जीवपरिहरण कउसल्ल चारणत्त । -प्रश्न--जलचारण और प्राकाम्य इन दोनो ऋद्धियोमे क्या विशेषता है 1 उत्तर--सघन पृथिवी, मेरु और समुद्र के भीतर सब शरीरसे प्रवेश करनेकी शक्तिको प्राकाम्यऋद्धि कहते हैं, और यहाँ जीवों के परिहारकी कुशलताका नाम चारण ऋद्धि है। ५. जंघाचारण निर्देश ति प १०३७ च उर गुल मेत्तम हि छ डिय गयणम्मि कुडिलजाणु विणा । ज बहुजोयणगमणं सा जंघाचारणा रिद्धी ।१०३१ - चार अंगुल प्रमाण पृथिवीको छोडकर आकाशमे घुटनोको मोडे बिना (या जल्दो जल्दी जघाओको उत्क्षेप निक्षेप करते हुए-रा. वा) जो बहुत योजनो तक गमन करना है, वह जघाचारण अद्धि है। (रा. वा ३/३६/३/२०२/२६), (चा सा. २१८/३)। ध/४,१,१७/७४/७, ८१/४ भूमीए पुढधिकाइयजीवाण बाहमकाऊण अणेगजोयणसयगामिणो जघाचारणा णाम ७६ ७ चिखल्लछारगोवर-भूसादिचारणाणं जघाचारणेसु अतन्भावो, भूमीदो चिखलादोण कधंचि भेदाभावादो १८१-४-भूमिमे पृथिवीकायिक जीवोको बाधा न करके अनेक सौ योजन गमन करनेवाले जघाचारण कहलाते है। कोचड भस्म, गोबर और भूसे आदि परसे गमन करनेवालोका जधाचारणोमे अन्तर्भाव होता है, क्यो कि, भूमिसे कीचड आदि में कथंचित् अभेद है। ६. अग्नि, धूम, मेघ, तन्तु, वायु व श्रेणी चारण ति प ४/१०४१-१०४३, १०४५,१०४७ अबिराहिदूग जोवे अग्नि सिहा लठिए विचिताण । ज ताण उपरि गमण अग्निसिहाचारणा रिधी ११०४११ अधउड्ढतिरियपसर धूम अवल निऊण ज देंति। पदखेवे अक्रवलिया सा रिद्धी धूमचारणा णाम । १०४२। अविरा दूणजोवे अपु काए बहुबिहाण मेघाण। ज उबरि गछिइ मुणी सा रिद्धी मेघचारणाणाम।१०४३१ मकडयत तुप तीउपरि अदिलघुओ तुरदपदखेवे। गच्छेदि मुणिमहेसी सा मकडत तुचारणा रिद्धी ।१०४५। णणाविहगदिमादपदेसपंतीसु देति पदखेवे। ज अक्खलिया मुणिणो सा मारुदचारणा रिद्धी ।१०४७१ अग्निशिखामें स्थित जीवोकी विराधना न करके उन विचित्र अग्नि-शिखाओपरसे गमन करनेको 'अग्निशिखा चारण' ऋद्धि कहते है ।१०४१। जिस ऋद्विधके प्रभाव से मुनिजन नीचे ऊपर ३. आकाशचारण व आकाशगामित्वमे अन्तर घ. ६/४,१,१६/०४/4 "आगासचारणाणमागासगामोण च को विससो। उच्चदे-चरण चारित्तं स जमो पावकिरिवागिरोहा त्ति एयट्ठो, तमि कुसला णिउणो चारणो। तब विसेसण जणिदागासट्ठियजाव (-बध) परिहरणकुसलतणेण सहिदो आगासचारणो। आगासगमणमेतजुतो आगासगामी। आगासगा मित्तादा जोववधपरिहरणकुसलत्तणेण विसे सिदागासगामित्तस्स विसेसुरल भादो अस्थि विसेसो। - प्रश्न-आकाशचारण और आकाशगामी के क्या भेद है। उत्तर - चरण, चारित्र, सम व पापक्रया निरोध, इनका एक ही अर्थ है। इसमें जो कुशल अर्थात् निपुण है वह चारण कहलाता है । तप विशेषसे उत्पन्न हुई, आकाशस्थित जोत्रो के (वधके) परिहारकी कुशलतासे जो सहित है वह आकाशचारण हे । और आकाश में गमन करने मात्रसे आकाशगामो कहलाता है। (अर्थात् आकाशगामीको जीववध परिहारकी अपेक्षा नही हातो)। सामान्य आकाशगामित्व की अपेक्षा जोबोके वर परिहार की कुशलतासे विशेषित आकाशगामित्वके विशेषता पायी जाने से दोनो मे भेद है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506