Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 471
________________ ऋषि 1 है, 'भिक्षा के लिए भ्रमण करो' ऐसा वचन भिक्षार्थ भ्रमण कराता है, 'शिरका छेद हो' ऐसा बचन शिरको छेदता है, (अशुभ) आशीविष नामक साधु है। प्रश्न-वचनके विष संज्ञा कैसे सम्भव है 1 उत्तरविषके समान विष है । इस प्रकार उपचारसे वचनको विष सज्ञा प्राप्त है। आशिष है अविष अर्थात् अमृत जिनका वे शुभ आशीविष हैं। स्थावर अथवा जगम विषसे पूर्ण जीवोके प्रति 'निर्विष हो' इस प्रकार निकला हुआ जिनका बच्चन उन्हे जिलाता है. व्याधिवेदना और दारिद्र्य आदिके विनाश हेतु निकला हुआ जिनका वचन उस उस कार्यको करता है, वे भी आशय है, यह सुत्रका अभिप्राय है। २. दृष्टिवित्र व दृष्टि अमृत रस ऋद्धि १. दृष्टिविष रस ऋषिका लक्षण पि. ४/२००६ जीए जीवो दिट्ठी महासिणा रोसमरिवहिदए । हरिदिदा काम सारिद्री १०० जिस ऋद्धिके बल से रोषयुक्त हृदय वाले महर्षिसे देखा गया जीब सर्प द्वारा काटे गये समान मर जाता है, वह दृष्टिविष नामक ऋद्धि है ( रा वा. १/३/३/२०४९), (चास २२७/९) ६] १/४.१.२९/८६० हिरिति चर्मनस तोभयत्र शिशब्दप्रदर्शनाद। तत्साहचर्यात्कर्मणोऽपि रुद्रो आदि फोएदि चितेदि किरियं करेदि वा 'मामि' त्ति तो मारेदि, अण्ण पि असुहकम्मल कृषमाणोदि पिसो नाम दृष्टि शब्द से यहाँ चक्षु और मन (दोनों) का ग्रहण है, क्योकि उन दोनोमें दृष्टि की प्रवृत्ति देखी जाती है। उसकी सहचरता किवाश भी ग्रहण है । रुष्ट होकर वह यदि 'मारता हूँ' इस प्रकार देखता है, (या) सोचता है व क्रिया करता है तो मारता है; तथा क्रोधपूर्वक अवलोकनसे अन्य भी अशुभ कार्यको करनेवाला (अशुभ) दृष्टि कहलाता है । २. दृष्टि अमृतरस ऋद्धिका लक्षण ६/४.१.२९/०६/१ एव दिजनिया विजाणिव Exc - इसी प्रकार दृष्टि अमृतोका भी लक्ष जानकर कहना चाहिए । (अर्थात् प्रसन्न होकर वह यदि 'नोरोग करता हूँ' इस प्रकार देखता है, (या) सोचता है, व क्रिया करता है तो नीरोग करता है, तथा प्रसन्नतापूर्वक अशोकनसे अन्य भी शुभ कार्यको करनेवाला अमृत कहलाता है) । ३. दृष्टि अमृत रस ऋद्धि व अघोरब्रह्मचर्य तपमे अन्तर ध. ६४.१.२१ १४/८ अभियानमोगुणवया को मिसेस उवजोगसहेज्जदिट्ठीए दिट्ठिल द्विधजुत्ता दिकिविसा नाम। अघोर गुगमभयारीगण सहधी असं खेज्जा सम्बनगया, एसिम लगाये सियासतद शादी तो अभेद गरि असुवलधोण पउत्ती लद्धिमताणमिच्छाव सबट्टणी । सुहाणं पउत्ती दोहि विपयारेहि संभवदि तदिच्छाए बिना डिसि णादो। प्रश्न- दृष्टि-अमृत और अघोर गुणब्रह्मचारीके क्या भेद है 1 उत्तर--उपयोगकी सहायता युक्त दृष्टिमे स्थित लब्धि से सयुक्त दृष्टि कहलाते है। किन्तु अपचारियोकीयों स असंख्यात है । इनके शरीर से स्पृष्ट वायुमे भी समस्त उपद्रवोको नष्ट करनेकी शक्ति देखी जाती है इस कारण दोनोमे भेद है। विशेष इतना है कि अशुभ लब्धियों की प्रवृत्ति लब्धियुक्त जीवो की इच्छा बढ़ा होती है। किन्तु शुभदियोकी प्रवृत्ति दोनो ही प्रकासे सम्भव है, क्योकि उनकी इच्छा के बिना भी उक्त तदियोकी प्रवृत्ति देखी जाती है। 1 3. क्षीर-मधुसर्पि व अमृनखावी रस ऋषि पि. ४/ १०००-१००० करुणाहारादिया पार्वति खोरभाव जीए खीरोसवी रिद्धी । १०८० अहवा दुक्ख पहूदी Jain Education International ९. क्षेत्र ऋद्धि निर्देश जीए मुणिवयण सवण मेत्तेण । पसमदि णरतिरियाणं स च्चिय खीरोसभी की। १०१ क्वाहारादियाणिहोत खणे । जोए महुररसाइ स च्चिय महुवासवी रिद्धी । १०८२ | अहवा दुखदीजीए मुणिवयवमेतेण शासदि परतिरिमाणं चिमवासी रही । १०८३ मुणिपाणिसठियाणि रुक्ताहारा दियाणि जीय खणे । पावति अभियभाव एसा अभियासवी ऋद्धी ॥१०८४। अह्वा दुक्खादोण महेसिवयणस्स सबणकालम्मि । णासति जीए सिग्ध रिधी अभियआसवी णामा । १०८५ | रिसिपाणितलणिवित्त रुक्खाहारादिय पि खमेत्ते । पावेदि सप्रूिव जीए सा पियासी रिवी । १०८६ अहवा दुक्खप्पमुह सवणेण मुर्णिदव्ववयणस्स । उवसामदि जीवाणं एसा सप्पियासवी रिद्धी | १०८७जिससे हस्ततल पर रखे हुए रूखे आहारादिक तत्कालही दुग्धपरिणाम को प्राप्त हो जाते है, वह 'क्षीरसावी' ऋधि कही जाती है । १०८० अथवा जिस ऋद्धि से मुनियोंके वचनोके श्रवणमात्र से ही मनुष्य तियंचोके दुखादि शान्त हो जाते है उसे सीरवी समा चाहिए | १०८१। जिस ऋषि से मुनिके हाथ में रखे गये रूखे आहारादिक क्षणभरमै मधुररसमे युक्त हो जाते है. यह 'मध्यावऋषि है ११०२२० जिसके वचनों के मासे मनुष्यतिfe दुखादिक नष्ट हो जाते है वह मध्वास्रावी ऋद्धि है | १०८३॥ जिस ऋधिके प्रभावसे मुनिके हाथमें स्थित रूखे आहारादिक क्षणमात्रमे अपनेको प्राप्त करते है, यह अमृता नामक है | १०६४ | अथवा जिस ऋद्विधसे महर्षिके वचनोके श्रवण काल में यीम ही दुखादि नष्ट हो जाते है. वह अमृतसामी नामक ि है | १०८ ५। जिस ऋधिसे ऋषिके हस्ततल में निक्षिप्त रूखा आहारादिक भी क्षणमात्रमे पृतरूपको प्राप्त करता है. यह है अथवा जिस के प्रभारी मुनी दिव्य सुनने से ही जीयोके बुखादि शान्त हो जाते है, वह सी १०८ (रावा ३/३६/३/२०४/२५). ( १/४.२.२८/४१/६११०१) ( च सा २२७/२) - नोट-धवला में हस्तपुटवाले लक्षण है। वचन वाले नही । रा. वा ब चा सा, में दोनो प्रकारके है । ४. रस ऋद्धि द्वारा पदायका क्षोरादि रूप परिणमन कैसे सम्भव है ? [ ६६४१२८/१००/ १ रातरेस दिव्याणं तखणादेव सीरासादसरूवेण परिणामो। ण अभियसमुद्दम्मि णिर्वादिदविसस्सेव पचमहव्वय समिइ तिगुत्ति लावघडिदज लिउणिव दियाण तदविरोहादो । प्रश्न - अन्य रसोमें स्थित द्रव्यका तत्काल ही क्षीर स्वरूपसे परिणमन कैसे सम्भव है 1 उत्तर नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार अमृत समुद्र में गिरे हुए बिषका अमृत रूप परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियोके समूह से घटित अजलिपुटमें गिरे हुए सब आहारोका क्षीर स्वरूप परिणमन करनेमें काई विरोध नही है । ९. क्षेत्र ऋद्धि निर्देश १. अक्षीण महानस व अक्षीण महालय ऋद्धिके लक्षण ति प ४ / १०८६ - १०६१ लाभ तरायकम् मक्ख उबसमसजुदए जीए फुडें । मुणिभुत्तमसेसमण्ण धामत्थ पिय ज क पि । १०८६ तद्दिवसे खज्जत वधावारण चक्कवट्टिस्स । भिज्जइ न लवेण वि सा अक्खीणमहाणसा रिद्धो । १०६०। जीए चउधणुमाणे समचउरसालयम्मि परतिरिया । मतियसखेज्जा सा अक्खीणमहालया रिद्धी । १०६१। लाभान्तरायकर्मक्षयोपशमयुक्त जिसके प्रभावसे मुनिके आहार से शेष, भोजनशालायें रखे हुए अमेज भी प्रिय वस्तुको यदि उस दिन चक्रवर्तीका सम्पूर्ण क्टक भी खावे ता भी वह लेशमात्र क्षीण नही होता है, वह 'अक्षीणमहानसिक' ऋद्धि है । १०८६-१०६६। जिस ऋद्धिसे समचतुष्कोण चार धनुषप्रमाण क्षेत्र में असख्यात मनुष्य ४५६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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