Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 456
________________ उपशम ४४१ ६. औपशमिक भाव निर्देश २३८) अन्तरकरण विधिके हो जाने के पश्चात. क्रमकरण करता है अर्थात् क्रमपूर्वक इन २१ प्रकृतियोका उपशम करता है ।) प्रथम समयसे लेकर ऊपर अन्तर्मुहुर्त जाकर असंख्यातगुणीश्रेणी के द्वारा 'नपु सकवेद का' उपशम करता है। तदनन्तर एक अन्तर्मुहूर्त जाकर 'खीवेदका' उपशम करता है। फिर एक अन्तमुहूर्त जाकर 'पुरुषवेद' के । एक समय घाट दो आवलीमात्र नवक समयप्रबद्धोको छोडकर बाकी सम्पूर्ण) प्राचीन सत्तामें स्थित कर्मके साथ 'छह मोकषायोका' (युगपत) उपशम करता है। इसके आगे एक समय कम दो आवली काल बिताकर पुरुषवेदके नवक समय प्रबद्धका उपशम करता है। इसके पश्चात् (पुरुषवेदवत् ही पहिले प्राचीन सत्ताका और फिर नवक समयप्रबद्धका उपशम करने के क्रमपूर्वक असंख्यातगुणश्रेणी के द्वारा 'सज्वलन क्रोध' के साथ 'अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोधोका' फिर इसी प्रकार 'तीनो मानव मायाका' उपशम करता है। तत्पश्चात् प्रत्येक समयमें असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे कर्म प्रदेशोका उपशम करता हुआ, लोभवेदकके दूसरे त्रिभागमें सूक्ष्मकृष्टिको करता हुआ 'संज्वलन लोभ' के नवक समय प्रबद्धोको छोडकर प्राचीन सत्तामे स्थित कर्मों के साथ प्रत्यारण्यान व अप्रत्याख्यान इन दोनो लोभोका एक अन्तर्मुहूर्त में उपशम करता है। इस तरह सूक्ष्मकृष्टिगत लोभको छोडकर और एक समय कम दो आवलीमात्र नवक समय प्रबद्ध तथा उच्छिष्टावली मात्र निषेकोको छोडकर शेष स्पर्ध कगत सम्पूर्ण बादर लोभ अनिवृत्ति करके चरम समयमें उपशान्त हो जाता है। इस प्रकार नपुसकवेदसे लेकर जब तक बादर सज्वलन लोभ रहता है तब तक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाला जीव इन पूर्वोक्त प्रकृतियोका उपशम करनेवाला होता है। इसके अनन्तर समयमें जो सूक्ष्मकृष्टिगत लोभका अनुभव करता है और जिसने 'अनिवृत्ति' इस संज्ञाको नष्ट कर दिया है, ऐसा जीव सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती होता है। तदनन्तर वह अपने कालके चरम समयमें सुक्ष्मकृष्टिगत सम्पूर्ण लोभ सज्वलनका उपशम करके उपशान्तकषाय वीतराग-छद्मस्थ होता है। इस प्रकार मोहनीयकी उपशम विधिका वर्णन समाप्त हुआ । (ध ६/१,६-८,१४/२६२-३१६) ४. उपशम सम्बन्धी कुछ नियम व शंकाएँ १. अन्तरायाममें प्रवेश करनेसे पहले मिथ्यात्व ही रहता है ध.६/१,६-८,६/६/२४० मिच्छत्तवेदणीयं कम्म उवसामगस्स बोद्धव्व । उवसते आसाणे तेण परं होइ भयणिज्जं ।- उपशामकके जब तक अन्तर प्रवेश नही होता है तब तक मिथ्यात्ववेदनीय कर्मका उदय जानना चाहिए। दर्शनमोहनीयके उपशान्त होनेपर, अर्थात् उपशम सम्यक्त्वके कालमें, और सासादन कालमें मिथ्यात्व कर्मका उदय नहीं रहता है। किन्तु उपशम सम्यक्त्वका काल समाप्त होनेपर मिथ्यात्व का उदय भजनीय है, अर्थात् किसीके उसका उदय भी होता है और किसीको नहीं भी होता है (मिश्रप्रकृति या सम्यक्रव प्रकृतिका उदय हो जाता है)। २. उपशान्त द्रव्यका अवस्थान अपूर्वकरण तक ही है ऊपर नहीं गो. क./जी. प्र. ४५०/५६६/५ यत् उपशान्तद्रव्यं उदयावव्या निक्षेप्तुमशक्यं तव अपूर्व करणगुणस्थानपर्यन्तमेव स्यात् । तदुपरि गुणस्थानेषु यथासंभव शक्यमित्यर्थ । - उपशान्त द्रव्यका उदयावलीमें प्राप्त करने को समर्थ न होनेका नियम अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त ही होता है। उसके ऊपर के गुणस्थानमें यथासम्भव शक्य है। ३.नवक प्रबद्धका एक आवलीपर्यन्त उपशम सम्भव नहीं घ.११.१.२७/२१५ विशेषार्थ /१३ जिन कर्मप्रकृतियोंकी मन्ध, उदय और सत्त्व व्युच्छित्ति एक साथ होती है, उनके बन्ध और उदय व्युच्छित्तिके कालमें एक समय क्म दो आवली मात्र नवक समय प्रबद्ध रह जाते है। (दे उपशम ३), जिनकी सत्त्व व्युच्छित्ति अनन्तर होती है, वह इस प्रकार है कि विवक्षित (पुरुषवेद आदि) प्रकृतिके उपशम या क्षपण होनेके दो आवली काल अवशिष्ट रह जानेपर द्विचरमावली के प्रथम समयमे बन्धे हुए द्रव्यका,अन्धावलीको व्यतीत करके चरमावली के प्रथम समयसे लेकर, प्रत्येक समयमें एक फालिका उपशम या क्षय होता हुआ चरमावलीके अन्त समयमें सम्पूर्ण रीतिसे उपशम या क्षय होता है। तथा द्विचरमावलीके द्वितीय समयमे जो द्रव्य बन्धता है उसका चरमावली के द्वितीय समयसे लेकर अन्त समय तक उपशम या क्षय होता हुआ अन्तिम फालिको छोडकर सबका उपशम या क्षय होता है। इसी प्रकार द्विचरमावलीके तृतीयादि समयोमे बन्धे हुए द्रव्यका बन्धावलीको व्यतीत करके, चरमावलीके तृतीयादि समयसे लेकर एक-एक फालिका उपशम या क्षय होता हुआ क्रमसे दो आदि फालिरूप द्रव्यको छोडकर शेष समका उपशम या क्षय होता है। तथा चरमावलोके प्रथमादि समयोंमें बन्धे हुए द्रव्यका उपशम या क्षय नहीं होता है, क्योंकि, बन्ध हुए द्रव्यका एक आवलो तक उपशम नहीं होता ऐसा नियम है । इस प्रकार चरमावलीका सम्पूर्ण द्रव्य और द्विचरमावलीका एक समय कम आवली मात्र द्रव्य उपशम या क्षय रहित रहता है, जिसका प्राचीन सत्तामे स्थित कर्मके उपशम या क्षय हो जानेके पश्चात ही उपशम या क्षय होता है। ४. उपशमन काल सम्बन्धी शंका प्रश्न-ल सा /जी, प्र.८७ के अनुसार प्रथम स्थितिके प्रथम समयसे लेकर उसके अन्तिम समय तक प्रति समय द्वितीय स्थितिके द्रव्यको उपशमाता है। परन्तु ल सा/जी प्र. ६४ के अनुसार प्रथम स्थितिके कालसे दर्शनमोहको उपशमाने काल समयकम दो आवली मात्र अधिक है। इन दोनो कथनोमे विरोध प्रतीत होता है। उत्तरपहिले कथनमें नवीन बन्धकी विवक्षा नहीं है, और दूसरेमें नवीन बन्धकी विवक्षा है। जो बन्ध हुए पीछे एक आवली तक तो अचल रहता है और उसके आगे एक आवली उसको उपशमाने लगता है। (देखो इससे पहिला शीर्षक)। ५. उपशम विषयक प्ररूपणाएं * मूलोत्तर प्रकृतियोंकी प्रशस्त अप्रशस्त उमशमनाका नाना जीवापेक्षा भंग विचय -दे ध. १५/पृ.२७७-२८० * मूलोत्तर प्रकृतियोंकी स्थिति उपशमना सम्बन्धी समुकीर्तना व भंग विचय -दे.ध. १५/पृ २८०-२८१ __ * मूलोत्तर प्रकृतियोंकी अनुभाग उपशमना सम्बन्धी समुकीर्तना व भंग विचय -दे.ध. १५/पृ २८२ * मूलोत्तर प्रकृतियोकी प्रदेश उपशमना सम्बन्धी समु कीर्तना व भंग विचय -दे. घ. १५/पृ. २८२ ६. औपशमिक भाव निर्देश १. औपशमिक भावका लक्षण स. सि. २/९/१४६/8 "उपशम' प्रयोजनमस्येत्यौपामकः।" -जिस भावका प्रयोजन अर्थात कारण उपशम है वह औपशमिक भाव है। (रा. वा. २/१/८/१००/२३) घ. १/१,१,८/१६१/२ तेषामुपशमादीपशमिकः । • गुणसहचारित्वादारमापि गुणसंज्ञा प्रतिलभते ।-जो कम के उपशमसे उत्पन्न होता है उसे औपशमिक भाव कहते है। (क्योंकि) गुणोके साहचर्य से आत्मा भी गुणसंज्ञाको प्राप्त होता है। (ध.५४१, ७, १/१८५/१), (ध.५/ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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