Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 459
________________ उपाध्याय xx उभयशुदिध यह अनुमान सोपाधिक है । क्योंकि यह मैचतनयत्व' हेतु शाकपा- कंजरव उपाधिके ऊपर अवलम्बित है। सम /रायचन्द ग्रन्थमाला/पृ १८४/१/१ विवक्षित किसी वस्तुमें स्वयं रहकर उसको अनेकों वस्तुओसे जूदा करने वाला जो धर्म होता है, उसको उपाधि कहते है। उपाध्याय—नि सा /मू ७४ रयणत्तयसंजुता जिगकहियपयत्थदेसया सूरा । णिक्कखभावसहिया उबज्झाया एरिसा होति ।७४। -रत्नत्रयसे संयुक्त जिनकथित पदार्थोंके शूरवीर उपदेशक और नि कांक्ष भाव सहित, ऐसे उपाध्याय होते है। (द्र. स /मू १३)। मू आ /मू १११ वारसग जिणक्खादं सज्झाय कथितं बुधे । उव देसइ सज्झायं तेणूवज्झाय उच्चदि ५११॥ -बारह अग चौदहपूर्व जो जिनदेवने कहे हैं उनको पण्डित जन स्वाध्याय कहते है। उस स्वध्यायका उपदेश करता है, इसलिए वह उपाध्याय कहलाता है। घ. १/१,१.१/३२/१० चोद्दस-पुव्व-महोपहिम हिगमम सिवस्थिओ सिवत्थीणं । सीलंधराण वत्ता होइ मुणीसो उवज्झायो ।३२॥ -जो साधु चौदह पूर्व रूपी समुद्र में प्रवेश करके अर्थात परमागमका अभ्यास करके मोक्षमार्ग में स्थित है, तथा मोक्षके इच्छुक शोल धरो अर्थात मुनियोको उपदेश देते है, उन मुनीश्वरोको उपाध्याय परमेष्ठी कहते है। रा. वा. ६/२४/४/६२३/१३ विनयेनोपेत्य यस्माद् व्रतशोलभावनाधिष्ठानादागर्म श्रुतारख्यमधीयते इत्युपध्याय । = जिन व्रतशील भावनाशाली महानुभावके पास जाकर भव्य जन विनयपूर्वक श्रुतका अध्ययन करते है वे उपाध्याय है । (स.सि १/२४/४४२/७), (भ. आ./वि. ४६/ १५४/२०)। ध १/१,१.१/५०/१ चतुर्दश विद्यास्थानव्याख्यातार उपाध्याया. तात्कालिकप्रवचनव्याख्यातारो वा आचार्यस्योक्ताशेषलक्षणसमन्विता. संग्रहानुग्रहादिगुणहीनाः । स चौदह विद्या स्थानोके व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय होते है,अथवा तत्कालीन परमागमके व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय होते है । वे स ग्रह अनुग्रह आदि गुणोको छोड़कर पहिले कहे गये आचार्य के समस्त गुणोंसे युक्त होते है । (प प्र/टो.७)। पं.ध./उ.६५६-६६२ उपाध्याय समाधीयान् वादी स्याद्वादकोविद । वाग्मी वारब्रह्मसर्व ज्ञ. सिद्धान्तागमपारग'६५६। कवि त्यग्रसूत्राणां शब्दार्थः सिद्धसाधनात्। गमकोऽर्यस्य माधुर्ये धुर्यो वक्तृत्ववर्त्मनाम् । ६६०। उपाध्यायस्वमित्यत्र श्रुताभ्यासोऽस्ति कारणम् । यदध्येति स्वयं चापि शिष्यानध्यापयेद्गुरु ।६६१। शेषस्तत्र वतादीना सर्वसाधारणो विधि .६६२१ = उपाध्याय-शका समाधान करनेवाला, सुवक्ता, वाग्ब्रह्म, सर्वज्ञ अर्थाव मिद्धान्त शास्त्र और यावत आगमों का पारगामी, वार्तिक तथा सुत्रोंको शब्द और अर्थ के द्वारा सिद्ध करनेवाला होनेसे कवि, अर्थ में मधुरताका द्योतक तथा वक्तृत्वके मार्ग का अग्रणी होता है।६५६-६६।उपाध्यायपनेमें शास्त्रका विशेष अभ्यास ही कारण है, क्योकि जो स्वय अध्ययन करता है और शिष्योको भी अध्ययन कराता है वही गुरु उपाध्याय है।६६१। उपाध्यायमें वतादिकके पालन करनेकी शेष विधि सर्व मुनियोके समान है।६६२। २. उपाध्यायके २५ विशेष गुण ११ अंग व १४ पूर्वका ज्ञान होनेसे उपाध्यायके २५ विशेष गुण कहे जाते हैं। शेष २८ मुलगुण आदि समान रूपसे सभी साधुओं में पाये जानेके कारण सामान्य गुण है। ३. अन्य सम्बन्धित विषय * उपाध्यायमे कथंचित् देवत्व-दे. देव /१ * आचार्य उपाध्याय साधुमें कथचित् भेदाभेद-दे, साधु ६ * श्रेणी आरोहणके समय उपाध्याय पदका त्याग-दे. साधु ६ उपायविचा-धर्मध्यानका एक भेद दे. धर्मध्यान १ उपालम्भ-न्या सू /भाषा १-१/४१ स्थापना साधन प्रतिशेष उपा लम्भ.। - स्थापना अर्थात् साधन और प्रतिषेध अर्थात् उपालम्भ । उपासकाचार-दे. उस नामका श्रावकाचार। उपासकाध्ययन-दव्यश्रुतज्ञानका सातवाँ अंग-दे. श्रुतज्ञान III उपासना-प्र. सा /ता वृ २६२/३५४/१२ उपासन शुद्धात्मभावनासहकारिकारणनिमित्तसेवा । = शुद्धात्म भावनाकी सहकारी कारणरूपसे की गयी सेवाको उपासना कहते है। उपद्रवरांगचरित्र/सर्ग/श्लोक) मथुराके राजाका पुत्र था (१६) ललितपुरके राजा देवके साथ युद्ध में वराग द्वारा मारा गया (१८/६५) उपेक्षा-स सि १/१०/१७/१० रागद्वेषयोरप्रणिधान मुषेक्षा।-रागद्वेष रूप परिणामोका नही होना उपेक्षा है (भ.आ/वि.१६६६/१५१६/१६) त अनु/मू १३६ माध्यस्थ्य समतोपेक्षावैराग्यं साम्यमस्पृहा। बैतृष्ण्यं प्रशम. शान्तिरित्येकार्थोऽभिधीयते ।१३।। -माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहा, वैतृष्ण्य प्रशम और शान्ति ये सम एक हो अर्थको लिए हुए है । (और भी दे. सामायिक १/१) * अन्तरंग अशुद्धताके सद्भावमे भी उसकी अपेक्षा कैसे करे-दे. अनुभव है। उपेक्षा संयम-दे. संयम १। उपोदधात-दे. उपक्रम। उभय दूषण-न्याय विषयक एक दोष । श्लो. वा.न्या. ४५६/५५१७ मिथो विरुद्धानां तदीयस्वभावाभावापादनमुभयदोष । = एकान्तरूपसे अस्तित्व माननेपर जो दोष नास्तित्वाभावरूप आता है. अथवा नास्तित्व रूप माननेपर जो दोष अस्तित्वाभावस्वरूप आता है वे एकान्तवादियोंके ऊपर आनेवाले दोष अनेकान्तको माननेवाले जैनके यहाँ भी प्राप्त हो जाते हैं ।यह उभय दोष हुआ। (ऐसा सैद्धान्तिकजन जैनोंपर आरोप करते हैं।) उभयद्रव्य-उभय द्रव्य विशेष-दे कृष्टि । उभयद्धि -सम्यग्ज्ञान का एक अंग म आ २८५ विजणसुद्ध' सुत्तं अत्थवि सुद्धच तदुभयविसुद्ध' । पयदेण “य जपतो णाण विमुद्धो हवाइ एसो। =जो सूत्रको अक्षर शुद्ध, अर्थ शुद्ध अथवा दोनोकर शुद्ध सावधानोसे पढना पढाता है उसीके शुद्ध ज्ञान होता है। भ आ./वि ११३/२६१/१७ तदुभयशुद्धिर्नाम तस्य व्यउजनस्य अर्थस्य च शुद्धिः =व्यजनकी शुद्धि और उसके वच्य अभिप्रायकी जो शुद्धि है वह उभय शुद्धि है। २ अर्थ व्यंजन व उभय शुद्धिमे अन्तर भ. आ /वि. ११३/२६१/१८ ननु व्यन्जनार्थ शुद्धयो' प्रतिपादितयो तदुभयशुद्धिगृहीता न तद्वतिरेकेण तदुभयशुद्धिर्नामास्ति ततः कथमष्टविधता। अत्रोच्यते पुरुषभेदापेक्षयेयं निरूपणा कश्चिदविपरीत सूत्राथं व्याचष्टे सत्र तु विपरीत। तत्तथा न कार्यमिति व्यञ्चनशुद्विरुक्ता। अन्यस्तु सूत्रमविपरीत पठन्नपि निरूपयत्यन्यथा सूत्रार्थ इति तन्निराकृतयेऽर्थविशुद्धिरूदाहृता । अपरस्तु सूत्र विपरीतमधीते सूत्राथं च कथयितुकामो विपरीत व्याचष्टे तदुभयापाकृतये उभयशुद्धिरुपन्यास्ता।-प्रश्नऊपर व्यंजनशुद्धि और अर्थशुद्धि इन दोनोंका स्वरूप आप कह मुके है, उनमें ही इसका भी अन्तर्भाव हो सकता है, इन दोनोंको छोड़ कर तदुभय शुद्धि नामकी तीसरी शुद्धि है नहीं। अत' ज्ञान विनयके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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