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उपशम
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उपशान्त कषाय
१,७.६/१), (गो क./मू. ८१४/१८७); (गो. जी./जी. प्र.८२६.१३) (पं. ध /उ. १६७)। पं.का./त.प्र.१६/१०६ उपशमेन युक्त औपशमिक । -उपशमसे युक्त
(भाव) औपशमिक है। स. सा./ता वृ. ३२० आगमभाषयौपशमिकक्षायोपशामिक-क्षणिकभावप्रयं भण्यते । अध्यात्मभाषया पुन शुद्धाभिमुखपरिणाम शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसहा लभते। -आगम भाषामें जो औपशमिक क्षायोपशमिक या क्षायिक ये तीन भाव कहे जाते है, वे ही अध्यात्म भाषामें शुद्धाभिमुख परिणाम या शुद्धोपयोग आदि संज्ञाओं को प्राप्त होते है।
२. औपशमिक भावके भेद-प्रभेद व.सं.१४५, ६/सू. १७/१४ जो सो ओबसमिओ अविवागपञ्चइओ जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्दे सो-से उबसंतकोहे उवसंतमाणे उनसतमाए उबसतलोहे उवसतरागे उवसंतदोसे उवसतमोहे उवसतकसायवीयरायछदुमत्थे उ वसमियं सम्मत्तं, उसमिय चारित्तं, जे चामण्णे एवमादिया उपसमिया भावा सो सव्वो उवसमियो अविबागपच्चयो जीव भावबंधो णाम । १७।-जो औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीव भावबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है-उपशान्तक्रोध, उपशान्त मान, उपशान्त माया, उपशान्त लोभ, उपशान्तराग, उपशान्त दोष (प), उपशाम्तमोह, उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ, औपशमिक सम्यक्त्व, और औपशमिक चारित्र, तथा इनसे लेकर जितने (अन्य ) औपशमिक भाव है, वह सब औपशमिक
अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है ।१७ स. सू. २/३ "सम्यक्त्वचारित्रे । ३)" -औपशमिक भावके दो भेद है
औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र । (स सि. २/३/१५२/ ६) (न, च. वृ. ३७०); (त. सा २/३), (गो, क /मू ८१६/६६८) घ,११,७, १/७ब टीका/१६० "सम्मत्त चारित्त दो चेय ठाणाइमुवसमें होति । अ वियप्पा य तहा कोहाझ्या मुणेदव्या १७१.. अोवसमियस्स भावस्स सम्मत्त चारित्तं चेदि दोणि ठाणाणि । कुदो। उक्समसम्मत्तं उसमचारिमिदि दोहा चे उवलंभा। उवसमसम्मत्तमेयविहं । ओवसमियं चारित्तं सत्तविह । तं जहाणवु सयवेदुवसामण, ए एय चारित्तं, इरिथवेदुवसामणद्वाए विदिय, परिस-छण्णोकसायउवसमसामणदाए तदिय, कोहुवसामणद्धाए चउत्थं, माणुवसामणद्वाए पंचम, मावोवसामणद्वाए छठ्ठ, लोहवसामणद्वाए सत्तमोबसमियं चारित्त । भिण्णव जलिगेण कारणभेदस्टिीदो उपसमियं चारित्तं सत्तविहं उत्तं । अण्ण हा पृण आणेयपयार, समय पडि उवसमसेडिह्मि पुध पुध असंखेज्जगुणसे डिणिज्जराणिमित्तपरिणामुबलंभा।"-औपशामिक भाव में सम्यक्त्व और चारित्र ये दो ही स्थान होते है। तथा औपशमिक भावके विकल्प आठ होते है, जोकि क्रोधादि कषायोके उपशमन रूप जानना चाहिए।७। औपशमिक भावके सम्यक्त्व और चारित्र ये दो ही स्थान होते है, क्योकि औपशमिक सम्यक्रव और औपशमिक चारित ये दो ही भाव पाये जाते हैं । इनमेंसे औपशमिक सम्यक्त्व एक प्रकारका है और औपशमिक चारित्र सात प्रकारका है । जैसे-नपुसक्वेदके उपशमन काल में एक चारित्र, स्त्री वेदके उपशमन काल में दूसरा चारित्र, पुरुषवेद और छ नौकषायोंके उपशमन काल में तीसरा चारित्र, क्रोधसंज्वलनके उप शमनकालमें चौथा चारित्र, मानसंज्वलनके उपशमनकाल में पाँचवाँ चारित्र, मायासंज्वलनके उपशमनकालमें छठा चारित्र और लोभसंज्वलनके उपशमनकाल में सातवाँ औपशमिक चारित्र होता है। भिन्न-भिन्न कार्योंके लिंगसे कारणोमें भी भेदकी सिद्धि होती है, इसलिए औपशमिक चारित्र सात प्रकारका कहा है। अन्यथा अर्थात् उक्त प्रकारकी विवक्षा न की जाय तो, वह अनेक प्रकार है, क्योकि, प्रति समय उपशम श्रेणी में पृथक-पृथक् असंख्यात गुण श्रेणी निर्जराके निमित्तभूत परिणाम पाये जाते है।
उपशम चारित्र-दे चारित्र। उपशम श्रेणी-दे. श्रेणी ३। उपशम सत्त्व काल-दे. काल १। उपशम सम्यक्त्व-दे. सम्यग्दर्शन IV/२ उपशांत कर्म-ध १२/४, २, १०, २/३०३/५ द्वाभ्यामाभ्यो ब्यप्तिरिक्त कर्म पुद्गलस्कन्ध उपशान्त । = इन दोनों उदीरणा या उदय तथा बन्धसे व्यतिरिक्त कर्म पुद्धगलस्कन्ध उपशान्त है। गो. क./जी प्र ४४०/५६३/३ "यत्कर्म उदयावन्या निक्षेप्तुमशक्यं तदुप
शान्तं नाम।"-जो कर्म उदयावली विष प्राप्त करनेको समर्थन हूजे सो उपशान्त कहिये। उपशान्त कषाय-4.सं/प्रा १/२४ कसयाहलं जल वा सरए सरवाणिय व णिम्मलय । सयलोवसंतमोहो उपसंतक्साय होइ ।२४। = कतकफलसे सहित जल, अथवा शरदकालमें सरोवर का पानी जिस प्रकार निर्मल होता है, उसी प्रकार जिसका सम्पूर्ण मोहकर्म सर्वथा उपशान्त हो गया है.ऐसा उपशान्त क्षाय गुणस्थानवी जीव अत्यन्त निर्मल परिणामवाला होता है ।२४। (ध १/१,१,१६/गा १२२/१८६); (गो. जी /म् ६१/१६१); (पं स.सं १/४७)। रा वा. १/१/२२/११०/११ सर्वस्योपशमात् उपशान्तकषाय ।-समस्त
मोहका उपशम करनेवाला उपशान्त कषाय है। (द्र.सं/टी.१३/३९४८) ध, १/११,१६/१८८/१ उपशान्त कषायो येषां ते उपशान्तकषायाः) वीतो विनष्टो रागो येषां ते वीतरागा। छद्म ज्ञानहगावरणे, तत्र तिष्ठन्तीति छद्यस्था । वीतरागाश्च ते छद्मस्थान वीतरागछ स्था। एतेन सरागछद्मस्थ निराकतिरबगन्तव्या। उपशान्तक्षायाश्च ते बीतरागछद्मस्थाश्च उपशान्तकषायवीतरागछ स्था' ।-जिनकी कषाय उपशान्त हो गयी। उन्हें उपशान्तकषाय कहते है। जिनका राग नष्ट हो गया है उन्हे वीतराग कहते है। 'छम' ज्ञानाबरण और दर्शनावरणको कहते है उनमें जो रहते है उन्हे छ अास्थ करते है। जो वीतराग होते हुए भी छदारथ होते है उन्हे वीतराग द्वारथ बहते है। इसमें आये हुए वीतराग विशेषणसे ६१म गुणस्थान के रागछ ग्रस्थोका निराकरण समझना चाहिए। जो उपशान्तवधाय होते हुए भी वीतराग छ दस्थ होते है उन्हें उपशान्त पाय वीतराग छ दस्थ कहते है। २. इस गुणस्थानमें चारित्र औपशमिक होता है और
सम्यक्त्व औपशमिक या क्षायिक घ. १/१११६/१८१/२ एतस्योपशमिताशेषक्षायरवादीपद मिय , सम्यक्त्वापेक्षया क्षायिक औपशमिको वा गुणः।-इस गुणस्थान में सम्पूर्ण क्षायें उपशान्त हो जाती है, इसलिए (चारित्र मोहकी अपेक्षा इसमें
औपशमिक भाव है। तथा सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा औशमिक और क्षायिक दोनो भाव है। ३ उपशान्त कषाय गुणस्थानकी स्थिति ल, सा /जी.प्र ३७३/४६१ तत क्षुद्रभवग्रहणं विशेषाधिकं । तत उपशान्तकषाय कालो द्विगुण ।" -ना सक्वेद उपशमावनेके कालसे क्षुद्रभवका काल विशेष अधिक है, सो यह एक श्वासके अठारहवे भागमात्र है।३७३ तिस क्षुद्रभवतै उपशान्तकषायका काल दूना है। ४. अन्य सम्बन्धित विषय * उपशम व क्षपक श्रेणी -दे. श्रेणी ३,४ * इस गुणस्थानकी पुनःपुनः प्राप्ति की सीमा --दे. संयम २ * इस गुणस्थानसे गिरने सम्बन्धी -दे, श्रेणी ४ * यहाँ मरण सम्भव है पर देवगतिमे ही उपज
-दे. मरण ३
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