Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 455
________________ उपराम परूमाण उच्चारणाइरियवयणादो णव्वदे । उबसमसम्मादिट्ठिम्मि अजित आइरणे विमानमे auranणभाव कि ण दुक्कदि । सच्चमेद जदित सुत्त होदि । सुत्तेण वक्खाण वाहिज्जदि ण बक्वाणेण वक्खाण । एत्थ पुण दो वि उवएसा परूया दोनेकरस सुन्तानुसारितपगमाभावादो क्रिमयुब समसम्मादिट्टिम्म जनता पउिनसम सम्मका विलय असा बहुत्तादो अनठाभि विसंयोजणपरिणामाणं तत्थाभावादी वा । एथ पुण विसयोजणापक्खो महासभा येणायल मिल्यो तादी उपससंतकम्मि यस सादियागयतकालपरूयं सुतासारितादो च। प्रश्न- जो उपशमसम्यग्दृष्टि चार अनन्तानुबन्धीको विरुयोजना करता है उसके अल्पतर विभक्तिरथान पाया जाता है, इसलिए उपशम सम्यग्दृष्टिमें अल्पतर विभक्तिस्थानके कालकी प्ररूपणा करनी चाहिए ? उत्तर- नहीं, क्योंकि उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके अनन्तानुमन्धी चारको वियोजना नहीं पायी जाती है। प्रश्न'उपशम सम्पादष्टि जीवके अनन्तानुबन्धी चारको योजना नहीं होती है' यह किस प्रमाणसे जाना जाता है । उत्तर- 'उपशमसम्यग्दृष्टिके एक अवस्थित पद ही होता है' इस प्रकार प्रतिपादन करनेवाले उच्चारणाचार्यके वचनसे जाना जाता है। प्रश्न- 'उपशमसम्यष्टि अनन्तामन्धी चारकी बियोजना होती है इस प्रकार कथन करनेवाले आचार्यवचनके साथ यह उक्त वचन विरोधको प्राप्त होता है, इसलिए यह वचन अप्रमाण क्यों नहीं है। उत्तर-यदि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी धारको विरुयोजनाका कथन करनेवाला वचन सूत्र वचन होता तो यह कहना सत्य होता, क्योंकि सूत्र के द्वारा व्याख्यान (टीका) बाधित हो जाता है । परन्तु एक व्याख्यानके द्वारा दूसरा व्याख्यान बाधित नहीं होता, इसलिए 'उपशम सम्यहष्टिके अनन्तानुमन्दोको विसंयोजना नहीं होती है. यह वचन अप्रमाण नहीं है। फिर भी यहाँपर दोनो ही उपदेशोका प्ररूपण करना चाहिए, क्योंकि दोनो में से अमुक उपदेश सूत्रानुसारी है। इस प्रकार के ज्ञान करनेका कोई साधन नहीं पाया जाता है। प्रश्नउपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी चारकी बिर्सयोजना क्यो नहीं होती है उत्तर उपशम सम्यकालकी अपेक्षा अनन्तामुनीचतुष्ककी विसंयोजनाका काल अधिक है, अथवा वहाँ अनन्तानुबन्धीकी वियोजना के कारणभूत परिणाम नहीं पाये जाते है। इससे प्रतीत होता है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीती विसंयोजना नहीं होती है। फिर भी यहाँ उपशमसम्यग्दृष्टि के अनन्ताकी वियोजना होती है' यह पक्ष ही प्रधान रूपसे स्वीकार करना चाहिए, क्योकि इस प्रकारका उपदेश परम्परासे है । ३. चारित्रमोहका उपशम विधान १. चारित्रमोहकी उपशम विधि ल. सा.२१७-३०३/२६-३८४ एवं पमत्तमियर परावत्तिसहस्सय तू काढूण | इगयोसमोहणीयं उयसमदिगी | २१६ तिकरण] घोसर कमकरण पैदायादिकरणं च अंतरकरणमुपशमकरण उपशामने भवति । २२० - ऐसें (द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी प्राविके पश्चात् अप्रमतते प्रमत्तविषे अहजारो भार पटनिरि अन तानुषधी चतुष्क बिना अवशेष इकईस चारित्रमोहकी प्रकृतिके उपशमानेका उद्यम करें है। अन्य प्रकृतिनिका उपशम होता नहीं, जाते तिनिकै उपशम करना है । २१६। अधकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, ए तीन करण अर, स्थितिबन्धापसरण, क्रमकरण, देशघातिकरण, अनन्तकरण, उपशमकरण ऐसे आठ अधिकार चारित्रमोहके उपशमविधान विषै पाइए है । तहाँ अध करण सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि करे है। ताका लक्षण वा ताका या कार्य जैसे प्रथमोपशम' सम्यक्त्वको सन्मुख होते कहे है तैसे Jain Education International ३. चारित्रमोहका उपशम विधान इहाँ भी जानना । विशेष इतना - इहॉसयमीके सभवे ऐसी प्रकृतिनिका बन्ध व उदय कहना । अर अनन्तानुबन्धी चतुष्क, नरक, तिर्यंच आयु बिना अन्य प्रकृतिनिका सत्त्व कहना | २२ | घ. १/९.१२०/२११/३ र एक्कं पि कम्ममुचसमदि कितु अपुरो पमियम गुण बिसोहिए तो मुसो एक्क्कद्विदिवसानि दिदिडयानि वादितियमेाणिरिदियोसरणाणि करेदि । एनेक ट्ठिदि खग्र कालम्भ तरे रुखेज्ज-सहम्साणि अणुभाग-खडयाणि घादि । पडिसमयमस खेज्जगुणाए सेढीए पदेस णिज्जर क्रेदि । जे अप्पसत्य - कम्मसेण बधदि तेसि पदेसग्गसखेज्ज गुणाए सेढीए अण्णपडी बज्माणियासु सकामेदि पुणो अपुव्यकरण बोलेऊण अणिय-गुणट्ठाण पविसिऊण तो मुहुत्तमणे णेव विहाणेणाच्छिय मारस क्साथ-णय-गोक्सायाणमतर अन्तो मुहुसेन करेदि उतरे क पढम समयादी उमर अतो गं सखेन गुणाए सेडिए सय वेदमुवामेदि तदा तो गंतॄण बहु सयवेदमुसामहानसामेदिदो असोहु गगणा छोक्साए परिसरासह उवसामेदि तत्तो उवरि समऊण -- दोआवलियाओ गंतूण पुरिसवेदणवकधादि तत्तौ अतोमुहुत्तमुवरिगतूण पडिसमयमसखेज्जाए गुण सेढिए अपञ्चवखाण पञ्चकखाणावरणसणिदे दीणि वि कोका-चिराण सतकम्मेण सह जुगवमुवसामेदि तत्तो उवरि दो आवलियाओ समऊणाओ गतूण कोध-सजलण णवक-बध सामेदि । तदो अटोमुहतं गतूण तेसि चैव दुहि माणमस सेलाए गुणसेढीए माणसजलण-चिराण-सत कम्मेण सह जुगव उवसामेदि । तदो समऊण-दो आवलियाओ गतूण माणसं'जलणमुवसामेदि । तदो पडिसमय मसखेज्जगुणाए सेढीए उनसामेतो अतोमुहुत्तं गं तूण दुविहं माय माया सजल - चिराण-सतकम्मेण सह जुगव उवसामेदि । तदो दो आलिया समणाओ गतूण माया-सजनवसामेदि । तदो समयं पष्टि अवगुणाए ढोए पदे सामेतो तो गंण लोभ - सजल - चिराण-संत कम्मेण सह पञ्चक्खाणापच्चक्खाणावरणदुविहं लोभ लोभ-वेदगद्वाए विदिय-ति-भागे सुहुमकिट्टीओ करें तो उवसामेदि समकिट्टि मोसूण अबसेसो मादरलोभी फय गो सोमालियो अभिय-परिमसमए उसंतो वंसयवेदडि जान मदरसोमो सिताब एवासि पडणमणिही उसामगो होदि दो पतर-सम-मट्टि लोभ वेद तो अणियट्टि सण्णो सुहुमसॉपराइओ होदि । तदो सो अप्पणी चरिम-समए लोहसजलण सुहुमकट्टि सरूवं निस्सेसमुवसामिय उस काय मीरागम होदिसा मोहवीयरस उवसामण-विही" अपूर्वकरण गुणस्थान में एक भी कर्म का उपशम नहीं होता किन्तु अपूर्ववरण गुणस्थानवाला जीव प्रत्येक समय अनन्तगुणी निशुद्धिहता हुआ एक-एक अन्तर्मुहुर्त में एक-एक स्थिति खण्डका घात करता हुआ संख्यात हजार स्थिति खण्डोका घात करता है। और उतने हो स्थितिबन्धापसरणोको करता है । तथा एक-एक स्थितिखण्डके काल में सख्यात हजार अनुभाग खण्डोंका घात करता है और प्रतिसमय असंख्यात गुणित-श्रेणी रूपसे प्रदेशकी निर्जरा करता है तथा किन अप्रशस्त प्रकृतियोंका बन्ध नही होता है. उनकी कर्म वर्गणाओको उस समय मधनेवाली अन्य प्रकृतियोंमें असंख्यातगुणित श्रेणीरूपसे संक्रमण कर देता है। इस तरह अपूर्वकरण गुणस्थानको उल्लङ्घन करके और अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करके, एक अन्तर्मुहूर्त पूर्वोक्त विधि से रहता है। तत्पश्चात एक अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा बारह क्षाय और नौ नोक्षाय इनका अन्तर (करण) करता है। (यहाँ क्रमकरण करता है । अर्थात् विशेष क्रमसे स्थितिबन्धको घटाता हुआ उन २१ प्रकृतियो का पत्यमात्र स्थितिबन्ध करने लगता है (ल./ सा. २२७ ४४० जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - 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