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उपशम
२. दर्शनमोहका उपशम विधान
कहने पर काण्डक घातके बिना मिथ्यात्व कर्म के अनुभागको धातकर
और उसे सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके अनुभागरूप आकारसे परिणमाकर प्रथमोशम सम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें ही मिथ्यात्व रूप एक कर्मके तीन कर्माश अर्थात भेद या खण्ड उत्पन्न हो जाते है। भाषार्थ-प्रथम समयवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वसे प्रदेशाग्रको लेकर (अर्थात् उनको उदीरणा करके) उनका बहुभाग सम्यग्मिथ्यात्वमें देता है और उससे असंख्यात गुणा होन प्रदेशाग्र सम्यक्त्व प्रकृतिमें देता है प्रथम समयमें सम्यग्मिध्यान में दिये गये प्रदेशाग्रकी अपेक्षा द्वितीय समयमें सम्यक्त्वप्रकति में असंख्यात गुणित प्रदेशोको देता है। और उसो ही समय में (अर्थात दूसरे ही समय में) सम्यक्त्वप्रकृतिमें दिये गये प्रदेशो की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वमें असख्यात गुणित प्रदेशोको देता है। (इसी प्रकार तीसरे समयमे सम्यक्त्व प्रकृतिका द्रव्य द्वितीय समयके सम्यग्मिध्यात्वसे असरख्यात गुणा और सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य सम्यग्मिध्यात्वसे असरख्यात गुणा)। इस प्रकार (सर्प की चालवत्) अन्तर्मुहूर्त काल तक गुणश्रेणीके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कर्मको पूरित करता है, जब तक कि गुणसंकमण कालका अन्तिम समय प्राप्त होता है । (ल सा/मू. व जी. प्र/E०-६१/१२६-१२८) ल.सा./मू /१०/१२५ मिच्छत्तमिस्ससम्मसरूवेण य तत्तिधा य दव्वादो।
सत्तीदो य असंखाण तेण य होति भजियकमा। -- मिथ्यात्व कर्म मिथ्यात्व मिश्र सम्यक्त्वमोहनीरूपकरि तीन प्रकार हो है, सो क्रमतै द्रव्य अपेक्षा असंख्यातवाँ भागमात्र और अनुभाग अपेक्षा अनन्त भागमात्र जानने। सोई कहिए है-मिथ्यात्वका परमाणुरूप जो द्रव्य ताकी गुण संक्रम भागहारका भाग देइ एक अधिक असख्यातकरि गुणिये। इतना द्रव्य बिना (शेष) समस्त द्रव्य मिथ्यात्व रूप ही रहा। अर गुणसंक्रम भागाहारकरि भाजित मिथ्यात्व द्रव्यको असरख्यात करि गुणिये इतना द्रव्य मिश्र-मोह रूप परिणाम्या। अर गुणसंक्रम भागहारकरि भाजित मिथ्यात्व द्रव्यको एककरि गुणिए इतना द्रव्य सम्यक्त्व मोहरूप परिणमा। तातें द्रव्य अपेक्षा अस ख्यातवाँ भागका क्रम आया। बहुरि अनुभाग अपेक्षा संख्यात अनुभाग कांडकनिके घातकरि जो मिथ्यात्वका अनुभागके पूर्व अनुभागके अनन्तवाँ भागमात्र अव शेष रहा ताके (भी) अनन्तवे भाग मिश्रमोहका अनुभाग है। बहुरि याके (भो) अनन्तवे भाग सम्यक्त्वमोहका अनुभाग है, ऐसे अनुभाग है, ऐसे अनुभाग अपेक्षा अनन्तवों भागका क्रम आया ।"
४. द्वितीयोपशमकी अपेक्षा स्वामित्व घ ६/१,६-८.१४/२८८८६ संपधि ओवसमियचारित्तप्पडिवजणिवाहण बुच्चदे। तं जधा-जो वेदगसम्माइट्ठी जीवो सो ताव पुत्वमेव अणताणुबधी विसंजोएदि। - अब औपशमिक चारित्रकी प्राप्तिके विधानको कहते है। वह इस प्रकार है-जो वेदक सम्यग्दृष्टि (४-७ गुणस्थानवर्ती) जीव है वह पूर्व में ही अनन्तानुबन्धी चतुष्टयका वेदन करता है। ध.१/१,१,२७/२१०/११ रुव ताव उवसामण-विहि वत्तइस्सामो। अगंता
गुबधि कोध-माण-माया-लोभ सम्मत्त सम्मामिच्छत्त-मिच्छत्तमिदि एदाओ सत्तपयडीओ असंजदसम्माइटिप्पडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति ताव एदेसु जो वा सोबाउबसामेदि। -पहले उपशम विधिको कहते हैं-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, तथा मिथ्यात्व इन सात प्रकृतियोका असं यत्त सम्यग्दृष्टि से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक इन चार गुणस्थानो में रहने वाला कोई भी जीव उपशम करनेवाला होता है । ल सा./मू /२०५/२५१ उपसमचरियाहिमुहा वेदगसम्मो अणं बिजोयित्ता।
-उपशम सम्यक्त्वके सन्मुख भया वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सो पहिलै पूर्वोक्त विधानत अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करि "
गो.क /जी प्र./५५०/७४३/४ तद्वितीयोपशमसम्यक्त्वं वेदकसम्यग्दृष्ट्यप्रमत्त एव करणत्रयपरिणामै सप्तप्रकृतिरुपशमय्य गृह्णाति.. । बहुरि द्वितोयोपशम सम्यक्त्वको वेदक सम्यग्दृष्टि अप्रमत्त ही तीन करणके परिणामनिकरि सातौ प्रकृप्तिको उपशमाय ग्रहण रै है। (गो जी/जी प्र. ७०४/१४१/१७) और भी दे. सम्यग्दर्शन IV/३/२) ध.१/१,१,२७/२१४ विशेषार्थ-"लब्धिसार आदि ग्रन्थोमें द्वितीयोपशम
सम्यक्त्वकी उत्पत्ति अप्रमत्त-संयत गुणस्थान तक ही बतलायी है, किन्तु यहाँपर उपशमन विधिके कथनमें उसकी उत्पत्ति असंयत सम्यदृष्टि से लेकर अप्रमत्तयत गुणस्थान तक किसी भी एक गुणस्थान में बतलायी गयी है। धवलामें प्रतिपादित इस मतका उल्लेख श्वेताम्बर सम्प्रदायमें प्रचलित कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थो में देखने में आता है।" ५. द्वितीयोपशमको अपेक्षा दर्शनमोह उपशम विधि ल सा /मू./२०५-२१८/२५६-२७२ उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अण विजायित्ता। अंतोमुहुत्तकाल अधापवत्तोऽपमत्तो य ।२०।। ततो तियरण विहिणा देसणमोह सम खु उवसमदि । सम्मत्त पत्तिवा अण्ण च गुणसेढिकरणविही ।२०६। सम्मस्स अंसखेज्जा समयपबद्धाणुदीरणा होदि । तत्तो मुहत्तअते दंसणमोहतर कुणई ।२०६। सम्मत्तुप्पत्तीए गुणसकमपूरणस्स कालादो। संखेज्जगुणं कालं विसो हिबढीहि । वढदि हु।२१७॥ तेण पर हायदि वा वड्ढदि तव्बढिदो विसुद्धीहि । उवसतदंसण तियो होदि पमत्तापमत्तेसु । २१८ । -उपशम चारित्रके सन्मुख भया वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सो पहिलै पूर्वोक्त विधानते अनन्तानुबन्धीका विसंयोजनकरि अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त अध प्रवृत्त अप्रमत्त कहिये स्वस्थान अप्रमत्त हो है। तहा प्रमत्त अप्रमत्त विष हजारों बार गमनागमन करि पीछे अप्रमत्त विषै विश्रामकर है (अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त वैसे ही परिणामोके साथ टिका रहै है)। २०५ । स्वस्थान अप्रमत्त विषै अन्तर्मुहूर्त विश्रामार तहाँ पीछे तीन करण विधान करि युगपत् दर्शनमाहको उपशमा है । तहाँ अपूर्वकरणका प्रथम समयतै लगाय प्रथमोशमवत् गुणसक्रमण बिना अन्य स्थिति व अनुभाग काण्डकघात व गुणश्रेणी निजरा सर्व विधान जानना । अनन्तानुबन्धीका विस योजन याकै हो है, ता विषे भी सर्व स्थिति खण्डनादि पूर्वोक्तवत् जानना । २०६ । अनिवृत्तिकरण कालका सख्यातवा भाग अवशेष रहे सम्यक्रवमोहनीयके द्रव्यको अपकर्षणकार (उपरितन स्थितिमें, गुणश्रेणी आयाममें, और उदयावली विषं दीजिये है)। सो यहाँ उदयावली विषै दिया जो उदीरणाद्रव्य असंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण आवै है। यातै परे अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत भये दर्शनमोहका अन्तर करै है । २०६ । प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिविषै पूर्व गुण सक्रमण पूरणकाल (दे उपशम २/३) अन्तर्मुहूर्त मात्र कह्या था, तातै सख्यात गुणा काल पर्यन्त यह द्वितीयोपशम् सम्यग्दृष्टि प्रथम समयतै लगाय समय समय प्रति अनन्तगुणी विशुद्धताकरि बधै है। ऐसे इहाँ एकान्तानुवृद्धताकी वृद्धिका काल अन्तमहूर्त मात्र जानमा १२१७ । तिस एकान्तानुवृद्धिकालते पीछे विशुद्धता करि घटे वा बधै वा हानि वृद्धि विना जैसा का तैसा रहै कि नियम नाही। ऐसे उपशमाए है तीन दर्शनमोह जानै ऐसा जीव बहुत बार प्रमत्त अप्रमत्त निविषे उलटनि करि प्राप्त हो है ।२१८ । (ध.६/१,६-८,१४/ २८८-२६२); (ध. १/१,१,२७/२१०-२१४), (गा. जी./जी प्र.७०४/ ११४१/१७); (गो. क./जी प्र ५५०/७४३/४) । ६. उपशम सम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धीकी संयोजनाके विधि
निषेध सम्बन्धी दो मत क पा. २/१-१५/४१७/१ उबसमसम्मादिहिस्स अणं ताणुबंधिच उक्क विसंजोएंतस्स अप्पदर होदि त्ति तत्थ अप्पदरकालपरूवणा कायव्या त्ति। ण, उबसमसम्मादिद्धिस्स अणताणुबंधिविस ओयणाए अभावादो। तदभावो कुदो णव्वदे। उक्समसम्मादि ट्ठिम्मि अवडिदपद घेव
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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