Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 452
________________ उपशम २. दर्शनमोहका उपशम विधान ..सदवस्था रूप उपशमका लक्षण रा.वा २/५/३/१०७/१ तस्यैव सर्वधातिस्पर्धक्यानुदयप्राप्तस्य सदवस्था उपशम इत्युच्यते अनुभूतस्ववीर्य वृत्तित्वात । - अनुदय प्राप्त मर्वघाती स्पर्धकोको सत्तारूप अवस्थाको उपशम कहते हैं, क्योंकि इस अवस्थामें उसकी अपनी शक्ति प्रगट नहीं हो सकती। ३. प्रशस्त व अप्रशस्त उपशम ध. १५/२७६/२ अप्पसत्थुवसामणाए जमुवसंत पदेसग्ग तमोकड्डिदु पि सक्क, उक्कडिदुपि सक्कं, पयडीए सकामिपि सक्क उदयावलिय पवेसिदुण उ सक्क| अप्रशस्त उपशमनाके द्वारा जो कर्म प्रदेश उपशान्त होता है वह अपकर्षणके लिए भी शक्य है, उत्कर्षणके लिए भी शक्य है, तथा अन्य प्रकतिमें सक्रमण कराने के लिए भी शक्य है । वह केवल उदयावली में प्रविष्ट करने के लिए शक्य नहीं है। गो जो./जी.प्र.६५०/१०६६/१६ अनन्तानुबन्धिचतुष्कस्य दर्शनमोहत्रयस्य च उदयाभावलक्षणाप्रशस्तोपशमेन प्रसन्नमलपङ्कतोयसमानं यत्पदार्थश्रद्धानमुत्पद्यते तदिदमुपशमसम्यक्त्व नाम । - अनन्तानुबन्धीकी चौकडी और दर्शनमोहका त्रिक इन सात प्रकृतिका अभाव है लक्षण जाका ऐसा अप्रशस्त उपशम होनेसे जैसे कतकफल आदिसे मल कर्दम नीचे मेठने करि जल प्रसन्न हो है तैसे जो तत्वार्थ श्रद्धान उपजै सो यह उपशम नाम सम्यक्त्व है। ध.१/१,१,२७/२१२/६ उक्समो णाम कि । उदय-उदीरण-ओकड़डक्कड्डण-परपयडिसं कम-द्विदि-अणुभाग-कंडयधादेहि विणा अच्छणमुवसमो। प्रश्न-उपशम किसे कहते है । उत्तर-उदय, उदोरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण, परप्रकृति सक्रमण, स्थिति काण्डकघात, अनुभागकाण्डकघातके बिना ही कोंके सत्तामें रहनेको (प्रशस्त) उपशम कहते है । (यह उपशम चारित्रमोहका होता है)। ४. उपशमके निक्षेपोंकी अपेक्षा भेद-ध १५/२७५ उपशम ६. उपशम व विसंयोजनामें अन्तर ध. १/१,१,२७/२११/१ सरूव छ ड्डिय अण्ण-पयडि-सरूवेणच्छणमण ताणुबधीणमुवसमो, दंसणतियस्स उदयाभावो उक्समो तेसिमुवसंताणंपि ओकड् डुक्कडण-परपडि संक्माणमत्थित्तादो। अपने स्वरूपको छोडकर अन्य प्रकृतिरूपसे रहना अनन्तानुबन्धीका उपशम है । और उदय में नहीं आना ही दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृत्तियोंका उपशम है, क्योकि, उत्कर्षण अपकर्षण और परप्रकृतिरूपसे संक्रमणको प्राप्त और उपशान्त हुई उस तीन प्रकृतियोका अस्तित्व पाया जाता है। विशेषार्थ पृ २१४-अनन्तानुबन्धीके अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रमण होनेको ग्रन्थान्तरों में विसयोजना कहा है और यहॉपर उसे उपशम कहा है । यद्यपि यह केवल शब्द भेद है, और स्वयं बोरसेन स्वामीको द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धीका अभाव इष्ट है, फिर भी उसे विसयोजना शब्दसे न कहकर उपशम शब्द के द्वारा कहनेसे उनका यह अभिप्राय रहा हो कि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव कदा चित् मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होकर पुन अनन्तानुबन्धीका बन्ध करने लगता है और जिन कर्मप्रदेशोका उसने अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण किया था उनका फिरसे अनन्तानुबन्धी रूपसे संक्रमण हो सकता है। इस प्रकार यद्यपि द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धीकी सत्ता नहीं रहती है, फिर भी उसका पुन' सद्भाव होना सम्भव है। अत' द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना न कहकर उपशम शब्द का प्रयोग किया गया है। २. दर्शनमोहका उपशम विधान १. प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा स्वामित्व ष ख ६/१.६-८/8/२३८ उवसामेंतो कम्हि उवसामेदि, चदुसु वि गदीमु उवसामेदि । चदुसु वि गदुसु उवसामंतो पचिदिएसु उवसामेदि, जो एइन्दियविगलिदिएसु । पंचिदिएसु उवसातो सणीसु उवसामेदि. णो असण्णीसु । साणीसु उवसातो गम्भोवक्कं तिएम उवसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु । गम्भोवक्कं तिएम उवसातो पज्जत्तएम उक्सामेदि णो अपज्जत्तएसु । पज्जत्तएसु उवसातो सखेज्जवस्सार गेस वि उवसामेदि, असंखेज्जवस्साउगेसु वि।।। -दर्शनमोहनीय कर्मको उपशमाता हुआ यह जीव कहाँ उपशमाता है। चारों ही गतियों में उपशमाता है। चारो ही गतियोमें उपशमाता हुआ पंचेन्द्रियों में उपशमाता है, एकेन्द्रियों व विकलेन्द्रियोंमें नहीं उपशमाता है। पंचेन्द्रियोंमें उपशमाता हुआ, संज्ञियोमें उपशमाता है असंज्ञियों में नहीं। संज्ञियोमें उपशमाता हुआ गर्भोपक्रान्तिकोमें अर्थात गर्भज जोबों में उपशमाता है, सम्मूच्छिमोमें नहीं । गर्भोपक्रान्तिकों में उपशमाता हुआ पर्याप्तकों में उपशमाता है अपर्याप्तको में नहीं। पर्याप्तकों में उपशमाता हुआ संख्यात वर्ष की आयुवाले जीवोमें भी उपशमाता है और असरख्यात वर्षकी आयुवाले जीवोमें भी उपशमाता है । क.पा. सुत्त ६८/६३२ सायारे पट्ठवओ णिवओ मज्झिमो य भयणिज्जो। जोगे अण्णदरम्मि दुजहण्णेण तेउलेस्साए 18- साकारोपयोगमें वर्तमान जीव ही दर्शन मोहनीयकर्म के उपशमनका प्रस्थापक होता है। किन्तु निष्ठापक और मध्य अवस्थावर्ती जीव भजितव्य हैं। तीनो में से किसी एक योगमें वर्तमान और तेजोलेश्याके जघन्य अंशको प्राप्त जीव दर्शनमोहका उपशमन करता है । विशेषार्थ-तेजोलेश्याका यह नियम मनुष्यत्तियं चोकी अपेक्षा कहा जाना चाहिए। उक्त नियम देव और नारकियोमें सम्भव इसलिए नहीं है कि देवोके सदा काल शुभ लेश्या और नारकियों के अशुभ लेश्या ही पायी जाती है। ध. ६/१६-८,४/२०७/४ कोधकसाई माणक्साई मायक्साई लोभकसाई वा, किंतु हायमाणकसाओ । असंजदो । छण्णं लेस्साणमण्णदरलेस्सो किंतु हायमाणअसुहलेस्सो बढमाण सुहलेस्सो । भव्यो। आहारी। नाम स्थापना द्रव्य भाव गौण्य नोगौण्य सद्भाव नाम नाम असद्भाव आगम नोआगम आगम नोआगम । ज्ञायक शरीर भावि तद्वयतिरिक्त कर्म नोकर्म भूत भावि त्यक्त करणोपशम अकरणोपशम | अक्रण अनुदीर्ण देशकरण देशकरण सर्वकरण सर्वकरण अगुणोपशम अप्रशस्तोपशम गुणोपशम प्रशस्तोपशम ५. नोआगम भाव उपशमका लक्षण घ. १५/२७५/५ णोआगमभावुवसमणा उपसंतो कलहो जुद्ध वा इच्चेवमादि । -नो आगम भावोपशमना - जैसे कलह उपशान्त हो गया अथवा युद्ध उपशान्त हो गया इत्यादि। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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