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नपरत बंध
उपशम
प प्र./टी २/३ धर्मशब्देनात्र पुण्य कथ्यते । -धर्म शब्दसे यहाँ पुण्य
कहा गया है। ८. शभोपयोग रूप व्यवहारको धर्म कहना रूढि है पं.ध./उ ७१८ रुढितोऽधिवपुर्वाचा क्रिया धर्म शुभाबहा । तत्रानुकूलरूपा वा मनोवृत्ति' सहानया ७१८/- रूढिसे शरीरको, वचनकी अथवा उसके अनुकूल मनको शुभ क्रिया धर्म कहलाती है। ९. वास्तव में धर्म शुभोपयोगसे अन्य है भा.पा./५ ८३ पूयादिसु वयसहियं पुण्ण हि जिणे हि सासणे भणियं । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अपणो धम्मो ८३1-जिन शासनमें बत सहित पूजादिकको पुण्य कहा गया है और मोह तथा क्षोभ विहीन आरमाके परिणामको धर्म कहा है। उपरत बंध-दे. बध १। उपरितन कृष्टि-दे. कृष्टि । उपरितन स्थिति-दे, स्थिति १। उपरिम द्वीप-जप/प्र.१०५) Outer island उपलब्धि -१. ज्ञानके अर्थमे सि वि वृ. १/२/८/१४ उपलभ्यते अनया वस्तुतत्त्वमिति उपलब्धि',
अर्थादापना तदाकारा च बुद्धि ।-जिसके द्वारा बस्तुतत्त्व उपलब्ध किया जाता हो या ग्रहण किया जाता हो वह उपलब्धि है। पदार्थसे उत्पन्न होनेवानी तदाकार परिणत बुद्धि उपलब्धि है। पं.का /त प्र. ३६ चेतयते अनुभवन्ति उपलभन्ते विन्दन्तीत्येकार्थश्चेतनानुभूत्यु पलब्धिवेदनानामेकार्थतत्त्वात ।- चेतता है, अनुभव करता है, उपलब्ध करता है, और वेदता है, ये एकार्थ है, क्योकि चेतना,
अनुभूति, उपलब्धि और वेदना एकार्थक है। पं. का /ता वृ ४३/०६/१ मतिज्ञानावरणीयक्षयोपशमजनितार्थग्रहण
शक्तिरुपलब्धि । - मतिज्ञानावरणोयके क्षयोपशमसे उत्पन्न अर्थ ग्रहण करनेको शक्तिको उपलब्धि कहते है । २. अनुरागके अर्थमे ध/उ ४३५ अथानुरागशब्दस्य विधिर्वाच्यो यदार्थत । प्राप्ति स्यादुपलब्धिर्वा शदाश्चैकार्थवाचका ।४३५॥ = जिस समय अनुराग शब्दका अर्थ की अपेक्षासे विधिरूप अर्थ वक्तव्य होता है, उस समय अनुराग शब्दका अर्थ प्राप्ति व उपलब्धि होता है, क्योकि अनुराग, प्राप्ति और उपलब्धि ये तीनो शब्द एशर्थ वाचक है।
३ सम्यक्त्व या ज्ञानचेतनाके अर्थमे । प. ध /उ २००-२०८ नम्पन्न विवशब्देन ज्ञान प्रत्यक्षमर्थत । तत् कि
ज्ञानावृत स्वीयकर्मणोऽन्यत्र तरात २००१ मत्याद्यावरणस्योच्चै कर्मणोऽन दयाद्यथा । दृइमोहम्योदयाभावादात्मशद्धापनधि स्यात ।२०३। किचापनाविशदोऽपि स्यादनेकार्थवाचक । द्वीपल धिरित्यस्ता स्थादशु इत्वहान ये ।२०४। बुद्धिमानन संवेद्या य स्वय स्यात्स वेदक । स्मृतिव्यतिरिन ज्ञानमुपलब्धिरि यत ।२०८। प्रश्नवास्तव में ज्ञान चेतनाको लक्षणभूत जात्मोपलब्धिमे 'उपलब्धि' शब्दसे 'प्रत्यक्षज्ञान' ऐसा अर्थ निकलता है। इसलिए ज्ञानावरणीयको आत्मोपलब्धिका घातक मानना चाहिए, मिथ्यात्व कर्मको नही। किन्तु ऊपरके पद (१६६)मे मिथ्यात्व के उदयको उस आत्मोपलब्धिका घातक माना है। तो क्या ज्ञानघातक ज्ञानावरण के सिवाय किसी और कमसे भी उस आत्मोपलब्धिका घात होता है ।२००। उत्तर१. जैसे वास्तविक आत्माको श द्रोपल धिस्वयोग्यमतिज्ञानावरण कर्म के अभाव से होती है, वैसे ही दर्शनमोहनीय कर्म के उदयके अभावसे भी होती है ।२०३।२ दूसरा उत्तर यह है कि उपलब्धि शब्द भी अनेकार्थ वाचक है, इसलिए यहाँ पर प्रकरणवश अशुद्धताके अभाव
को प्रगट करनेके लिए 'शुद्ध' उपलब्धि ऐसा कहा है ।२०४। क्योकि शुद्धोपलब्धि में जो चेतनावान जीव ज्ञय होता है वही स्वय ज्ञानी माना जाता है, अर्थात निश्चयसे ज्ञान और ज्ञ यमें कोई अन्तर नहीं होता। इसलिए यह शुद्धोपलब्धि अतीन्द्रिय ज्ञानरूप पड़ती है। भावार्थ-'उपलब्धि' शब्द का अर्थ जिस प्रकार नेत्रादि इन्द्रियों द्वारा बाह्य पदार्थों का प्रत्यक्ष ग्रहण करने में आता है, उसी प्रकार अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा अन्तरग पदार्थ अर्थात अन्तरात्माका प्रत्यक्ष अनुभव करना भी उसी शब्द का वाच्य है। अन्तर केवल इतना है कि इसके साथ 'शुद्ध' विशेषण लगा दिया गया है।
* उपलब्धि व अनुपलब्धि रूप हेतु-दे हेतु।। उपलब्धि समा-न्या सू /म. व भाष्य ५।१२७ निर्दिष्ट कारणाभावेऽप्युपलम्भादुपलब्धिसम ।२। निर्दिष्टस्य प्रयत्नान्तरीयकत्वस्यानित्यत्वकारणस्याभावेऽपि वायुनोदनावृक्षशाखाभङ्गजस्य शब्दस्यानित्यत्वमुपत्तभ्यते निर्दिष्टस्य साधनस्याभावेऽपि साध्यधर्मोपलन्ध्या प्रत्यवस्थानमुपल विधसम । वादी द्वारा कहे जा चुके कारण के अभाव होनेपर भी साध्य धर्मका उपलम्भ हो जानेसे उपलब्धि प्रतिषेध है। उसका उदाहरण इस प्रकार है कि वायुके द्वारा वृक्षकी शाखा आदिके भगसे उत्पन्न हुए शब्द मे या घनगर्जन, समुद्र घोष आदिमें प्रयत्नजन्यत्वका अभाव होने पर भी, उसमें साध्य धर्म रूप अनित्यत्व वर्त रहा है। इसलिए श द को 'नित्य' सिद्ध करने में दिया गया प्रयत्नान्तरीयक्त्व हेतु ठीक नहीं है। (श्लो वा /पु ४/न्या, ४१६/५२५/१३)
२. अनुपलब्धि समा जाति न्या.यू मू व भाष्य ५-११२६ तदनुपलब्धेरनु पलम्भादभावसिद्धौ परीतोप पत्तैरन पलब्धिमम ।२६। तेषामावरणादोनामन पलब्धि!पलभ्यते अन पलम्भान्नास्तीत्यभावोऽस्या सिध्यति अभाव सिद्धी हेत्वभावात्तद्विपरीतमस्तिनावरणादीनामवधार्यते तद्विपरीतोपपत्तेर्यत्प्रतिज्ञात न प्रागुचारणाद्विद्यमानस्य शब्दस्यानु पल विधरित्येतन्न सिध्यति सोऽयं हेतुरावरणाद्यनुपलब्धेरित्यावरणादिषु चावरणादान पलब्धौ च समयानु पलब्ध्या प्रत्यवस्थितोऽनु पल ब्धिसमो भवति । निषेध करने योग्य शब्द की जो अनुपलब्धि है, उस "अनु पलब्धि" की मी अनुपलब्धि हो जाने से अभावका साधन करने पर, विपर्याससे उस अन पलब्धिके अभावकी उपपत्ति करना प्रतिवादीकी अनुपलब्धिसमाजाति बखानी गयी है। इसका उदाहरण इस प्रकार है कि-'उच्चारण के प्रथम नही विद्यमान हो रहे हो शब्दका अन पलम्भ है। विद्यमान शब्दका अदर्शन नही है। इस प्रकार स्वीकार करनेवाले वादी के लिए जिस किसी भी प्रतिगदी की ओरसे यो प्रत्यवस्थान उठाया जाता है. कि उस शब्द के आवरण, अन्तराल आदि कोके अदर्शनका भी अदर्शन हो रहा है। इसलिए वह आवरण आदिको की जो अनुपलब्धि कही जा रही है उसका ही अभाव है। तिस कारण उच्चारण से पहिले विद्यमान हो रहे ही शन्दका सुनना आवरणवश नहीं हो सका है, यह बात सिद्ध हो जाती है। क्योकि अनादिकालसे सदा अप्रतिहत चला आ रहा जो शब्द है, तिसके आवरण आदिकोके अभावका भी अभाव सिद्ध हो जानेसे उनका सद्भाव सिद्ध हो जाता है। (श्लो वा. ४/न्या ४२५॥ ६२८/१० तथा पृ ५३१/१४)। उपवन भूमि-समवशरण की चौथी भूमि-दे समवशरण । उपवास-दे -प्रोषधोपचास। उपवेल्लन-व्य निक्षेपका एक भेद-दे निक्षेप ५/६ । उपशम-कर्मोके उदयको कुछ समय के लिए रोक देना उपशम कहलाता है। कर्मो के उदयके अभाव के कारण उतने समयके लिए जीवके परिणाम अत्यन्त शुद्ध हो जाते है, परन्तु अवधि पूरी हो
जैलेन्द्र सिद्धान्त कोश
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