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४. शुभ व अशुभ उपयोग निर्देश
४. शुभ व अशुभ उपयोग निर्देश
१ शुभोपयोगका लक्षण मू आ २३५ पुण्णस्सासवभूदा अणुकपा सुद्ध एव उवओगो । =जीवोपर दया, शुद्र मन, वचन, कायको क्रिया, शुद्धदर्शन ज्ञान रूप उपयोग
ये पुण्यकम के आस्रवके कारण है । (र. सा६५) भा.प/मू. ७६ (अष्ट पाहुड) शुभ धयं-धर्मध्यान शुभभाव है। प्र. सा./मू ६९-१५७ देवजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु ।
उववासादिसु रत्तो सुहोवोगप्पगो अप्पा।६। जो जाणदि जिणिदे पेच्छदि सिद्धे तहेब अणगारे। जीवेसु साणुकपो उवओगो सो सुहो तस्स १९४७ देव गुरु और यतिकी पूजामें तथा दान में एवं सुशीलोमें और उपवासादिकमे लोन आत्मा शुभोपयोगात्मक है ।६६। जो जिनेन्द्रों (अर्हन्तो) को जानता है, सिद्धो तथा अनगारोकी श्रद्धा करता है, (अर्थात् पच परमेष्ठीमे अनुरक्त है) और जोबोके प्रति
अनु कम्पा युक्त है, उसके वह शुभ उपयोग है ।(न च.बृ. ३११) पं.का /मू. १३१, १३६ मोहो रागो दोसो चित्तपसादोय जस्स भावम्मि।
विज्जदि तस्स महो वा असुहो वा होदि परिणामो।१३१। अरहतसिद्धसाहुसु भत्तो धम्मम्मि जा य खल्लु चेट्ठा । अणुगमणं पि गुरूण ।
पसत्थरागो त्ति वुच्चति ।१३६। ६.का./त.प्र १३१ दर्शनमोहनीयविपाककलुषपरिणामता मोहः । विचित्र
चारित्रमोहनीयविपाकप्रत्यये प्रीत्यप्रती रागद्वेषौ । तसै व मन्दोदये विशुद्धपरिणामता चित्तप्रसादपरिणाम । तत्र यत्र प्रशस्तरागाश्चित्तप्रसादश्च तत्र शुभ परिणाम' ।-दर्शनमोहनीयके विपाकसे होनेवाली कलुषपरिणामताका नाम मोह है। विचित्र चारित्र मोहनीयके आश्रयसे होनेवाली प्रीति अप्रीति राग द्वेष कहलाते है । उसी चारित्रमोहके मन्द उदयसे होनेवाला विशुष्ट परिणाम चित्तप्रसाद है। ये तीनो भाब जिसके होते है, उसके अशुभ अथवा शुभ परिणाम है। तहाँ प्रशस्त राग व चित्तप्रसाद जहाँ है वहाँ शुभ परिणाम है ।१३१५ अर्हन्त सिद्ध साधुओके प्रति भक्ति, धर्म मे यथार्थ तया चेष्टा और गुरुओ का अनुगमन प्रशस्त राग कहलाता है ।१३६। (न च. ३०६) ज्ञा २-७/३ यमप्रशमनिर्वेदतत्त्वचिन्तावलम्बितम् । मैच्याविभाजनारूढ मन' सूते शुभास्त्रम् ॥३- यम, प्रशम, निर्वेद तथा तत्वोका चिन्तवन इत्यादिका अवलम्बन हो, एवं मैत्री प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थता इन चार भावो की जिस मनमे भावना हो बही मन शुभासव
को उत्पन्न करता है। द्र सं./टो. ३८/१५८ मे उद्धृत-"उद्वम मिथ्यात्वविर्ष भावय दृष्टिं च कुरु परा भक्तिम् । भावनमस्काररतो ज्ञाने युक्तो भव सदापि।। पञ्चमहावतरक्षा कोपचतुष्कस्य निग्रह परमम् । दुर्दान्तेन्द्रिय विजय तप सिद्धिविधौ कुरुद्योगम् ।२।" इत्याद्वियकथितलक्षणेन शुभोपयोगभावेन परिणामेन परिणता । - (शुभभाव युक्त कैसे होता है सो कहते है) - मिथ्यात्वरूपो विषको वमन करो, सम्यग्दर्शनकी भावना करो, उत्कृष्ट भक्ति करो, और भाव नमस्कारमे तत्पर होकर सदा ज्ञानमें लगे रहो ।१५ पाँच महाबतोका पालन करो, क्रोधादि कषायोंका निग्रह करा, प्रबल इन्द्रिय शत्रुओको विजय करो तथा बाह्य और अभ्यन्तर तपको सिद्ध करनेमे उद्यम करो।२। इस प्रकार दोनो आर्य छन्दोमे कहे हुए लक्षण सहित शुभ उपयोगरूप परिणामसे युक्त या परिणत हुआ जो जीव है वह पुण्यको धारण करता है। द्र सं /टी, ४५/१६६६ तच्चाचाराराधनादिचरणशास्त्रोक्तप्रकारेण पञ्चमहा. बतपञ्चसमिति त्रिगुप्तिरूपमप्यपहतसयमाख्य शुभोपयोगलक्षण सरागचारित्राभिधान भवति । वह चारित्र-मूलाचार, भगवती,आराधना आदि चरणानुयोगके शालोमे कहे अनुसार पाँच महावत, पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप होता हुआ भी अपहृतसयम नामक
शुभोपयोग लक्षणाले, सरागचारित्र नामवाला होता है । प्र.सा./ता वृ २३०/३१५/१० तत्रासमर्थ पुरुष शुद्धात्मभावनासहकारिभूत किमपि प्रामुकाहारज्ञानोपकरणादिक गृहातीत्यपवादो व्यव
हारनय' एकदेशपरित्यागस्तथापहतसयम सरागचारित्रं शुभोपयोग इति यावदेकार्थ।। - उस शुद्धोपयोग परमो पेक्षा सयममें असमर्थ पुरुष शुद्धात्मभावनाके सहकारोभूत जो कुछ भी प्रासुक आहार या ज्ञानोपकरणादिक ग्रहण करता है, सो अपवाद है। उसीको व्यवहार नय कहते है । वह तथा एकदेशपरित्याग तथा अपहत संयम या सराग
चारित्र अथवा शुभोपयोग ये सब एकार्थवाची है। प्र सा /ता वृ६/१० गृहस्थापेक्षया यथास भवं सरागसम्यक्त्वपूर्वकदानपूजादिशुभानुष्ठानेन, तपोधनापेक्षया मूलोत्तरगुणादिशुभानुष्ठानेन परिणत शुभो ज्ञातव्य | गृहस्थको अपेक्षा यथासम्भव सराग सम्यवत्वपूर्वक दान पूजादिरूप शुभ अनुष्ठान के द्वारा, तथा तपोधनकी या साधुकी अपेक्षा मूल व उत्तर गुणादिरूप शुभ अनुष्ठानके द्वारा परिणत हुआ आत्मा शुभ कहलाता है। स. सा./आ वृ. ३०६ प्रतिक्रमणाद्यष्टविकल्परूप शुभोपयोग ।-प्रतिक्रमण आदिक अष्ट विकल्प (प्रतिक्रमण, प्रतिसरप्प, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गहरे और शुद्धि) रूप शुभोपयोग है। पं का /ता. वृ १३१/१६५/१३ दानपूजावतशीलादिरूप शुभरागश्चित्तप्रसादपरिणामश्च शुभ इति सूत्राभिप्राय । दान, पूजा, व्रत, शील आदि रूप शुभ राग तथा चित्त प्रसादरूप परिणाम शुभ है। ऐसा सूत्रका अभिप्राय है । (और भो दे मनोयोग ५।
२. अशुभोपयोगका लक्षण मू आ २३५ विपरीत पापस्य तु आस्रवत् विजानीहि ।- (जीवोपर दया तथा सम्यग्दर्शन ज्ञानरूपी उपयोग पुण्यकर्म के आसबके कारण है) तथा इनसे विपरीत निर्दयपना और मिथ्याज्ञानदर्शनरूप उपयोग पापकर्म के आसबके कारण जानने चाहिए। भा पा /मू. ७६ । अष्टपाहुड-"अशुभश्च आर्त रौद्रम् ।- आर्त-रौद्र
ध्यान अशुभ भाव है। प्र सा /मू. १५८ विसयकसायोगाढो दुस्सु दिदुश्चिन्तदुटुगोष्टिजुदो । उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो ॥१५॥- जिसका उपयोग विषय कषायमें अवगाढ (मग्न), कुश्रुति, कुविचार और कुसंगतिमें लगा हुआ है, उग्र है तथा उन्मार्ग में लगा हुआ है, उसके अशुभोपयोग है। पं का /मू. १३१ तथा इसकी त प्र टो (देखो पीछे शुभोपयोगका लक्षण न ४) "यत्र तु मोहद्वेषावप्रशस्तरागश्च तत्राशुभ इति ।"-(शुभोपयोगके लक्षणमे प्रशस्त राग तथा चित्त प्रसादको शुभ बताया गया है) जहाँ मोह द्वेष व अप्रशस्त राग होता है, वहाँ अशुभ उपयोग है। (न च बृ. ३०६) ज्ञा.२-७/४ कषायदहनोद्दीप्तं विषयैव्याकुलीकृतम्। सचिनोति मन' कर्म जन्मसबन्धसुचक्म् । षायरूप अग्निसे प्रज्वलित और इन्द्रियोके विषयोसे व्याकुल मन ससारके सूचक अशुभ कर्मोका संचय करता है। प्र.सा/ता वृ६/११/११ मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगपञ्चप्रत्ययरूपाशुभोपयोगेनाशुभी विज्ञ य ।-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन पाँच प्रत्ययरूप अशुभोपयोगसे परिणत हुआ आत्मा अशुभ कहलाता है। स सा /ता. वृ ३०६ यत्पुनरज्ञानिजन सबन्धिमिथ्यात्वकषायपरिणतिरूपमप्रतिक्रमण तन्नर कादिदु खकारणमेव ।जा अज्ञानी जनों सम्बन्धो मिथ्यात्व व क्षायकी परिणति रूप अप्रतिक्रमण है वह नरक आदि दु खोका कारण ही है । (और भो दे मनोयाग ५)
३. शुभ व अशुभ दोनो अशुद्धोपयोगके भेद है प्रसा/त प्र १५५ तत्र शुद्धो निरुपराग । अशुद्धो सोपराग । स तु विशुद्धि-संक्लेशरूपत्वेन द्वैविध्यादुपरागस्य द्विविध शुभोऽशुभश्च । -- शुद्ध निरुपराग है और अशुद्ध सापराग है । वह अशुद्धोपयोग शुभ
और अशुभ दो प्रकारका है, क्योकि, उपराग विशुद्ध रूप और सक्लेश रूप दो प्रकारका है।
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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