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उपयोग
प्र. सा./त प्र १५ यो हि नाम चेतन्यपरिणामलक्षणेनोपयोगेन यथाशक्ति विशुद्ध भूत्वा वर्तते स खलु ज्ञेयतत्त्वमापन्नानामन्तमाप्नोति । = जो चैतन्य परिणामस्वरूप उपयोग के द्वारा यथाशक्ति विशुद्ध होकर वर्तता है वह समस्त ज्ञेय पदार्थों के अन्तको पा लेता है। प.वि. ४/६४-६५ स्वास्थ्य समाधिश्च योगाश्चेतो निरोधनम् । शुद्धोपयोग होते भवन्त्येकार्थवाचका ६४ नाकृतिर्माक्षर वर्णो नो विकल्पश्च कश्चन । शुद्ध चैतन्यमेवैक यत्र तत्साम्यमुच्यते ॥ ६५॥ = साम्य, स्वास्थ्य, समाधि योग, वित्तनिरोध और शुद्धोपयोग ये सब शब्द एक हो अर्थ के वाचक है । ६४ । जहाँ न कोई आकार है, न अकारादि अक्षर है, न कृष्ण-नीलादि वर्ष है, और न कोई विकल्प ही है. किन्तु जी के एक चैतन्य स्वरूप ही प्रतिभासित होता है उसीको साम्य कहा जाता है । ६५।
प्र. सा /ता.वृ. ६ / ११ / १२ निश्चयरत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोगेन प्रसा/१२/१३ / ९६ निर्मोहसुद्धारमवित्तिक्षणेन शुद्धोपयोग संशेनागमभाषा पृथक वितर्क की प्रथम
प्र. साता १०/२३/१३ जीवितमरणादिसमताभावलक्षणपरमो पेसा यमरूप शुद्धोपयोगेनोत्पन्नो.
प्रसा / ता वृ. २३० / ३१५/८ शुद्धात्मन सकाशादन्यद्वाह्याभ्यन्तरपरि डहरू सबै व्याज्यश्चियन सर्वपरिया परमो पेयो वीतरागचारित्र योग इति यावदेकार्थ निश्चयरत्नत्रयात्मक तथा निर्मोह शुद्धात्माका सवेदन ही है लक्षण जिसका तथा जिसे आगमभाषामे मतिर्की चार नामका प्रथम शुक्ल ध्यान कहते है वह शुद्धोपयोग है। जीवन मरण आदि में समता भाव रखना ही है लक्षण जिसका ऐसा परम उपेक्षासयम शुद्धोपयोग है । शुद्धात्मासे अतिरिक्त अन्य बाह्य और आभ्यन्तरका परिग्रह त्याज्य है ऐसा उत्सर्ग मार्ग, अथवा निश्चय नय, अथवा सर्व परित्याग, परमोपेक्षा सयम, वीतराग चारित्र शुद्धोपयोग से सन एकार्थवाचक है।
ससा / तावृ / २१५ परमार्थ शब्दाभिधेय साक्षान्मोक्षकारणभूत शुद्धात्मसविलक्षण परमागमभाषया सरागधर्मध्यानध्यानस्वरूप स्वेद्यशुद्धात्मपद मरमसमरसीभावेन अनुभवति परमार्थ शब्द के द्वारा कहा जानेवाला तथा साक्षात् मोक्षका कारण ऐसा जो, शुद्धात्म सवित्ति है लक्षण जिसका, और आगम भाषामे जिसे वीतराग धर्मध्यान या शुक्लध्यान कहते है उस स्वसवेदनगम्य शुद्धात्मपदको परम समरसीभावसे अनुभव करता है।
मोपा./पं. जयचन्द ७२ इष्ट अनिष्ट बुद्धिका अभावते ज्ञान होनें उपयोगायोग कहिये है सो ही चारित्र है।
२. शुद्धोपयोग व्यपदेशमें हेतु
टी. २४/१०/२
गावामध्य स्तिष्ठति तेन कारणेन शुद्धसम्म साधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते । शुद्ध उपयोगमे शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावका धारक जो स्व आत्मा है सो ध्येय होता है इस कारण शुद्ध ध्येय होनेसे, शुद्ध अवलम्बनपने से तथा शुद्धात्मस्वरूपका साधक होनेशुद्धोपयोग सिद्ध होता है।
३. शुद्धोपयोग साक्षात् मोक्षका कारण है
मा. अनु. ४९/६४ अहे विश्वतिरियं दिविजयरसोलह सिद्धि एवं सोपं विचिति121
गेण पुणो धम्मं सुकं च होदि जीवस्स । तम्हा सवरहेदू झाणोत्ति विचितये णिचं | ६४ | यह जोव अशुभ विचारोसे नरक तथा तियंच गति पाता है, शुभ विचारोंसे देवों तथा मनुष्यों के सुख भोगता है और शुद्ध उपयोगसे मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावनाका चितवन करना चाहिए ४२ इसके पश्चात शुद्धोपयोग जीव धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते है, इसलिए संवरका कारण ध्यान है, ऐसा
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२ मिश्रोपयोग निर्देश
निरन्तर विचारते रहना चाहिए |६४ | ( प्र सा / मृ ११, १२, १८१) ( ति प ६/५७-५८) ।
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ध १२/४,२,८-३/२७६/६ कम्मबधो हि णाम सुहा सुहपरिणामेहितो जायदे, परिणामेहितो देखियो पिफर्मका बन्ध शुभ अशुभ परिणामो से होता है, शुद्ध परिणामोसे उन दोनों का ही निर्मूल क्षय होता है ।
प्र सा./त प्र.१५६ उपयोगो हि जीवस्य परद्रव्यकारणमशुद्ध । स तु विशुद्धि सकलेशपरागवशाद शुभाशुभेनोपासई विध्य यदा तु द्विविधस्याप्यस्याशुद्वस्याभाव क्रियते तदा खल्लूपयोग शुद्धाश्चावतिष्ठते स पुनरकारणमेव परद्रव्यस यागस्य ।" जीवका परद्रव्यके सयोगका कारण अशुद्ध उपयोग है। और वह विशुद्धि तथा संक्लेश रूप उपरागके कारण शुभ और अशुभ रूपसे द्विविधताको प्राप्त होता है । जब दोनो प्रकार के अशुद्धोपयोगका अभाव किया जाता है, वास्तव में उपयोग शुद्ध ही रहता है, और वह द्रव्यके सयोगक अकारण है ।
तम
शा. ३/२४/६७ नि.शेषलेश निर्मुक्तं स्वभावजमनश्वरम्। फलं शुद्धोष योगस्य ज्ञानराज्य शरीरिणाम् ॥३४ | = जीवोके शुद्धोपयोगका फल समस्त दुखोसे रहित स्वभाव से उत्पन्न और अविनाशी ऐसा ज्ञानराज्य है।
४. शुद्धोपयोग सहित ही शुभोपयोग कार्यकारी है प्रसा/त प्र २४७ शुभोपयोगिता हि शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रतया समधिगतशुद्धात्मवृतिषु श्रमणेषु दननमस्करणाम्युल्यानानुगमप्रतिपत्तिप्रवृत्ति शुद्धमवृत्तित्राणनिमित्तान दृष्यते ।
प्रसा/त प्र. २५४ एवमेष शुद्धात्मानुरागयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवर्णित ' शुभोपयोग तदय शुद्धात्मप्रकाशिका समस्तविरतिमुपेयुषा रागसयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमत परर्मानिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्य । - शुभोपयोगियोके शुद्धात्मा के अनुरागयुक्त चारित्र होता है इसलिए जिन्होने द्वारम परिणति प्राप्त की है, ऐसे श्रमणो के प्रति जी बन्दन-नमस्कार अभ्युत्थान- अनुगमनरूप विनीत वर्तनकी प्रवृत्ति तथा शुद्धात्म परिणतिकी रक्षाकी निमित्तभूत जो श्रम दूर करनेकी प्रवृति है यह शुभोगियो के लिए दूषित नहीं है|२४० इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रारूप जो यह भोपयोग वर्णित किया गया है वह यह भी प्रकाशक सर्वविरतिको माझ अमली (कपास कपके सज्ञान के कारण गौण होता है परन्तु गृहस्थोके मुख्य है, क्योंकि रागके सपोगसे शुद्धात्माका अनुभव होता है. और क्रमश परमनिर्वाणसौख्यका कारण होता है ।
३ मिश्रोपयोग निर्देश
१ मिश्रोपयोगका लक्षण
ससा आ१७-१८ यदात्मनोऽनुयमानाने भावपि परम विवेक कोसेनायमानमेवप्रियम
क्षणात दासस्वामनिवा शक्यत्वादात्मानुचरणमुत्प्लवमानमात्मान साधयतीति साध्यसिद्ध
थोपपते। [ज] आत्माको अनुभव मे खानेगर अनेक पर्यायरूप भेद-भाव के साथ मिला होनेपर भी सर्व प्रकार से भेव ज्ञानमें प्रवीणलासे 'जो यह अनुभूति है सो ही मैं हूँ' ऐसे आत्मज्ञानसे प्राप्त होता हुआ, 'इस आत्माको जैसा जाना है वैसा ही है' इस प्रकारकी प्रतीतिवाला श्रद्धान उदित होता है, तब समस्त अन्य भावका भेद होनेसे, निशक स्थिर होनेमें समर्थ होनेसे, आत्माका आचरण उदय होता हुआ आत्माको साधता है। इस प्रकार साध्य आत्माको सिद्धिकी उपपत्ति है।
सा/ आ. १६३/ १९०
नसा, कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्ष
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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कर्मविरतिज्ञानस्य सम्य
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