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उपयोग
अन्य कार्य
दर्शनावरणीयमुख
॥१३॥ जीव उपयोगमयी है। उपयोग
पातिकर्मणा
ज्ञान और दर्शन है। ज्ञानोपयोग दो प्रकारका है स्वभावज्ञान और विभावज्ञान | जो केवल इन्द्रिय रहित और असहाय है वह स्वभाव ज्ञान है। तहाँ स्वभावज्ञान भी कार्य और कारण रूपसे दो प्रकारका है। कार्य स्वभावज्ञान तो सकल विमल केवलज्ञान है । और उसका जो कारण परम पारिणामिक भावसे स्थित त्रिकाल निरुपाधिक सहजज्ञान है, वह कारण स्वभावज्ञान है | १०- ११ । सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान रूप भेद किये जाने पर विभाव ज्ञान दो प्रकारका है | ११ | सम्यग्ज्ञान चार भेदवाला है - मति, श्रुत, अवधि तथा मन' पर्यय और अज्ञान मति आदि के भेद से तीन भेदमाता है | १२ उसी प्रकार दर्शनोपयोग स्वभाव और विभावके भेदसे दो प्रकारका है। जो केवल इन्द्रिय रहित और असहाय है वह स्वभाव दर्शनोपयोग कहा है। वह भी दो प्रकारका है - कारणस्वभाव और कार्यस्वभावतहाँ कारण स्वभाव दृष्टि (दर्शन), तो सदा पावनरूप और औदयिकादि चार विभावस्वभाव परभावोके अगोचर ऐसा सहज सहज परम पारिणामिकरूप जिसका स्वभाव है, जो कारण समयसार स्वरूप है, ऐसे आत्मा के यथार्थ स्वरूप श्रद्धानमात्र ही है । दूसरी कार्यदृष्टि दर्शनावरणीय ज्ञानावरणीयादि वातिकमोंके से उत्पन्न होती है | १३ | चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीन विभाव दर्शन कहे गये है ।। २. उपयोग व लब्धि निर्देश
१. उपयोग व ज्ञानवर्धन मागंणामें अन्तर
[ २/९.१/४१३/ स्वपरग्रहणपरिणाम उपयोग नस ज्ञानदर्शनमार्गयोरन्तर्भवति ज्ञानदृगावर कर्मक्षयोपशमस्य तदुभयकारण स्योपयोगत्वविरोधात् - स्वव परको ग्रहण करनेवाले परिणाम विशेषको उपयोग कहते हैं। वह उपयोग ज्ञानमार्गणा और दर्शनमार्गणा अन्तर्भूत नहीं होता है; क्योकि, ज्ञान और दर्शन इन दोनोंके कारणरूप ज्ञानावरण और दर्शनावरणके क्षयपशमको उपयोग माननेमें विरोध आता है ।
ध. २/ ११ / ४१५/१ साकारोपयागो ज्ञानमार्गणायामनाकारोपयोगो दर्शन मार्गणाया (अन्तर्भवति) तयोर्ज्ञानदर्शनरूपत्वात् । =साकार उपयोग ज्ञानमार्गणामे और अनाकार उपयोग दर्शनमार्गणा में अन्तर्भूत होते है क्योंकि ये दोनो ज्ञान और दर्शन रूप हो है । टिप्पणी- मार्गणाका अर्थ क्षयोपशम सामान्य या लब्धि है और उपयोग उसका कार्य है । अत इन दोनोंमें भेद है । परन्तु जब इन दोनोंके स्वरूपको देखा जाये तो दोनो कोई भेद नहीं है, क्योंकि उपयोग भी ज्ञानदर्शन स्वरूप है और मार्गणा भी ।
२. उपयोग व लब्धिमें अन्तर
उपयोग १/१/३ ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमको लब्धि कहते है और उसके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले परिणामको उपयोग कहते हैं । का अ/मू २६० एक्के काले एक्क णाण जीवस्स होदि उवजुतं । णाणा णाणाणि पुणो लद्धिलहावेण वच्चंति | २६०| = जीवके एक समय में एक ही ज्ञानका उपयोग होता है । किन्तु लब्धिरूप से एक समय अनेक ज्ञान कहे है । (गो क / भाषा ७६४ / १६६५/३)
पं. ध. / उ ८५४-८५५ नास्त्यत्र विषमव्याप्तिर्यात्रलब्युपयोगयो । लब्धिक्षतेस्वस्य वायो ८४ अभावात्पयोगस्य सतिश वा न वा यत्तदावरणस्यामा दृशा व्याप्तिर्न चामुना १८५५ - यहाँ सम्पूर्ण लब्धि और उपयोगोंने वनव्याप्त हो होती है। क्योंकि सके नाशसे अवश्य ही उपयोगका नाश हो जाता है, किन्तु उपयोग के अभाव से लब्धि का नाश हो अथवा न भी हो ।
३. लब्धि तो निर्विकल्प होती है
पं. ध. / उ ८५८ सिद्धमेतावतोक्तेन लब्धिर्या, प्रोक्तलक्षणा । निरुपयोगरूपत्वान्निर्विकल्पा स्वताऽस्ति सा । ८५८। इतना कहने से यह सिद्ध
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२. शुद्धोपयोग निर्देश
होता है, कि जिसका लक्षण कहा जा चुका है ऐसी जो लब्धि है वह स्वत उपयोग रूप न होनेसे निर्विकल्प है।
४. उपयोग के अस्तित्वमें भी लब्धिका अभाव नहीं हो
जाता
पंध / उ ८५३ कदाचित्कास्ति ज्ञानस्य चेतना स्त्रोपयोगिनी । नाल लब्धेर्विनाशाय समव्याप्तेरस भवात् । ५३|लब्धि और उपयोग समाप्ति नहीं होनेसे यदा कदाचित आत्मोयोग (उपलक्षणसे अन्य उपयोगो में भी) तत्पर रहनेवाली उपयोगात्मक ज्ञानचेतना लब्धिरूप ज्ञान चेतनाके नाश करनेके लिए समर्थ नहीं है।
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II शुद्ध व अशुद्ध आदि उपयोग
१. शुद्धाशुद्धोपयोग सामान्य निर्देश
१. उपयोग शुद्ध अशुद्धादि भेद
प्र. सा. / म १५५ अप्पा उवओगप्पा उवओगो णाणद सण भणिदो । सो वि सुहो असुहो वा उबओगो अप्पणी त्रदि । १५५१ = आत्मा उपयोगात्मक है । उपयोग ज्ञानदर्शन कहा गया है और आत्माका वह उपयोग शुभ अथवा अशुभ होता है। (मू. आ / मू. २६८ ) । भापा / मू ७६ भाव तिविपयार सुहासुह सुद्धमेव णायव्य । - - जिनवरदेवने भाव तीन प्रकारके कहे है शुभ, अशुभ, और शुद्ध । (यह गाथा है) ।
१३६ स्यमुपयोगोद्वेधा विशिष्यते
शुद्धो निरुपराग अशुद्ध सोपराग । स तु विशुद्धिस क्लेशरूपत्वेन विध्यादुपरागस्य द्विविध शुभोऽशुभत्व इस (नदर्शनात्मक) उपयोग के दो भेद है- शुद्ध और अशुद्ध । उनमेसे शुद्ध निरुपराग है। और अशुद्ध सोपराग है। वह अशुद्रोपयोग शुभ और अशुभ दो प्रकार का है, क्योंकि उपराग विशुद्धि रूप व सक्लेश रूप दो प्रकारका है। २ ज्ञानदर्शनोपयोग व शुद्धाशुद्ध उपयोग में अन्तर प्र. सं ट २६ दर्शनयोगमायामुपयोगशब्देन विवक्षि तार्थ परिच्छित्तिलक्षणोऽर्थ ग्रहणव्यापारों गृह्यते । शुभाशुभशुद्धोयोगमाया पुनरुपयोदेन शुभाशुभ
ष्ठान ज्ञातव्यमिति । ज्ञानदर्शन रूप उपयोगकी विवक्षा में उपयोग शब्दसे विवक्षित पदार्थ के जाननेरूप वस्तुके ग्रहण रूप व्यापारका ग्रहण किया जाता है। और शुभ, अशुभ तथा शुद्ध इन तीनो उपयोगोकी विवक्षामें उपयोग शब्द से शुभ, अशुभ तथा शुद्ध भावना रूप अनुष्ठान जानना चाहिए।
२. शुद्धोपयोग निर्देश
१. शुद्धोपयोगका लक्षण
भाप / ७७ (अष्टपाहुड) "सुद्ध सुद्धसहाओ अप्पा अप्पम्मितं च णायव्य | "शुद्धभाव है सो अपना शुद्धस्वभाव आपमें ही है, ऐसा जानना चाहिए ।
प्रसा / १४ विदितपत
दो
मो समसुदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ।जिन्होने पदार्थों और सूत्रोको भली भाँति जान लिया है, जो सयम और तपयुक्त है, जो नीरा है और जिन्हे सुख दुख समान है. ऐसे अमणको प योगी कहा गया है।
न. च.वृ. ३५६, ३५४ समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य बीयरायतं । तहा चरित धम्मो सहाव आराहणा भणिया । ३५६ | सामण्णे णियबोधे विकलिदपरभाव पर सन्भावे । तत्थाराहण जुत्तो भणिओ खलु सुद्धचारित्तो । ३५४| = समता तथा माध्यस्थता. शुद्धभाव तथा वीतरागता, चार तथा घये सब स्वभावकी आराधना कहे गये है । ३५६ । पर भावोसे रहित परमभाव स्वरूप सामान्य निज बोध में तथा तत्त्वोंकी आराधना में युक्त रहनेवाला ही शुद्ध चारित्री कहा गया है | ३५४ |
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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