Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 449
________________ उपयोग ४३४ शुभ व अशुभ उपयोग निर्देश ४. शुभोपयोग पुण्य है और अशुभोपयोग पाप है मू.आ २३५ पुण्णस्सासबभूदा अणुकपा सुद्ध एव उवओगो। विपरीद पावस्स दु आसबहेउ वियाणाहि २३५।- अनु कम्पा व शुद्ध (शुभ) उपयोग तो पुण्यके आस्त्रवभूत है तथा इनसे विपरीत अशुभ भाव पापात्रवके कारण है। प्र.सा /मू. १५६ उवओगो जदि हि महो पुण्ण जीवस्स संचय जादि। । असुहो वा तधा पाव तेसिमभावे ण सचयमस्थि ।१५६- उपयोग यदि शुभ हो तो जोबके पुण्य संचयको प्राप्त होता है और यदि अशुभ हो तो पाप सचय होता है। उन दोनो के अभावमें सच य नहीं होता । (प.प्र /मू २/७१) पं.का./म् १३२ सुहपरिणामो पुण्णं असहो पावं ति हवदि जीवस्स । द्वयो पुद्गलमात्री भाव कर्मत्व प्राप्त ।१३२।जीवके शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभपरिणाम पाप है। उन दोनोके द्वारा पुद्गलमात्र भाव कर्मपनेको प्राप्त होते है। ५. शुभ व अशुद्ध उपयोगका स्वामित्व द्र.सं /री ३४/६६/६ मिथ्यादृष्टिसासादन मिश्रगुणस्थानेषुपर्युपरि मन्दस्वेनाशुभोपयोगो वर्तते, ततोऽप्यसयतसम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्तसंयतेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपयुपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीण कषायपर्यन्तं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन विवक्षित कदेशशुद्धनयरूपशुद्धोपयोगो वर्तते । -मिथ्यादृष्टि सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में ऊपर ऊपर मन्दतासे अशुभ उपयोगरहता है। उसके आगे असयत सम्यग्दृष्टि श्रावक और प्रमत्त सयत नामक जो तीन गुणस्थान है, इनमे परम्परासे शुद्ध उपयोगका साधक ऊपर ऊपर तारतम्यसे शुभ उपयोग रहता है। तदनन्तर अप्रमात्त आदि क्षीणकषाय तक ६ गुणस्थानोमे जधन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदसे विवक्षित एकदेश शुद्ध नयरूप शुद्ध उपयोग वर्तता है। (प्रसा/ता वृ. १८१/२४४/१८), (प्र.सा. ६/११/१५) पं.ध/उ. २०५ अस्त्यशुद्धोपलब्धिश्च तथा मिथ्याशा परम् । सुदृशा गौणरूपेण स्यान्न स्याद्वा कदाचन । - उस प्रकारको अशुद्धोपलब्धि भी मुख्य रूपसे मिथ्यादृष्टि जीवोके होती है और सम्यग्दृष्टियोके गौण रूपसे कभी-कभी होती है, अथवा नही भी होती है। नोट(और भो देखो 'मिथ्याष्टि४' मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टिके तत्त्वकतृ त्वमें अन्तर)। ६ व्यवहार धर्म अशुद्धोपयोग है स सा/म ३०६ पडिकमण पडिसरण परिहारो धारणा णिवत्तीय। जिंदा गरहा सोहो अट्ठविही होई विसकुम्भो ।३०६ (यस्तु द्रव्यरूप. प्रतिक्रमणादि स तायीकी भूमिमपश्यत स्व कार्यकारणासमर्थत्वेन विषकुम्भ एव स्यात् । त प्र टोका ।) प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गहरे और शुद्धि यह आठ प्रकारका विपकुम्भ है। क्योकि द्रव्यरूपये प्रतिक्रमणादि, तृतीय जो शुद्धोपयोगकी भूमिका, उसको न देखनेवाले पुरुषके लिए अपना कार्य (कर्म सय) करनेको असमर्थ है। प.प्र./मू २/६६ वदउ णिद उ पडिकमउ भाउ अशुद्धउ जासु। पर तमु संजमु अस्थि णवि जमण सृद्धि ण तास । - नि शंक वन्दना करो, निन्दा करो, प्रतिक्रमणादि करो लेकिन जिसके जब तक अशुद्ध परिणाम है उसके नियमसे संयम नही हो सकता, क्योकि उसके मनको शुद्धता नहीं है। ७ व्यवहार धर्म शुभोपयोग तथा पुण्यका नाम है स.सा /मू. २७५ सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फामेदि । धम्म भोगणिमित्त ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं । वह (अभव्य जीव) भोगके निमित्तरूप धर्मकी ही श्रद्धा करता है, उसकी रुचि करता है और उसीका स्पर्श करता है, किन्तु कर्म क्षयके निमित्तरूप (निश्चय) धर्मको नहीं जानता। र.सा. ६४-६५ दव्वत्थकायछप्पणतच्चपयत्थेसु सत्तणवएम् । अधणमुक्खे तकारणरूवे बारसणुवेवखे ।६४ रयणत्तयस्स रूवे अजाकम्मो दयाइसद्धम्मे । इच्चेवमाइगो जो वट्टइ सो होइ सुहभावो।६।-पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व, नव पदार्थ, बन्धमोक्ष, बन्धमोक्षके कारण बारह भावनाएँ, रत्नत्रय, आर्जवभाव, क्षमाभाव, और सामायिकादि चारित्रमय जिन भव्य जीवोके भाव है, वे शुभ भाव है। पप्र/मू. २/७१ सुहपरिणामे धम्मु पर असुहे होइ अहम्मु। दोहिं वि एहि विन जिपउ सुदधु ण बघउ कम्मु । - शुभ परिणामोंसे पुण्यरूप व्यवहार धर्म मुख्यतासे होता है, तथा अशुभ परिणामोंसे पाप होता है। और इन दोनोसे रहित शुद्ध परिणाम युक्त पुरुष कर्मों को नहीं बाँधता । (प्र.सा./मु १५६) न च वृ. ३७६ भेदुवयारे जइया वट्ठदि सो विय सुहासुहाधोणो। तझ्या कत्ता भणिदो ससारी तेण सो आदो।३७६। जब तक जीवको भेद व उपचार बर्तता है उस समय तक वह भी शुभ व अशुभके ही आधीन है और इसी लिए वह ससारी आत्मा कर्ता कहा जाता है। प्र. सा /त प्र.६६ यदा आत्मा.. अशुभोपयोगभूमिकामतिकाम्य देव गुरुयतिप्लजादानशीलोपवासप्रीतिलक्षणं धर्मान रागमङ्गीकरोति तदेन्द्रियसुरवस्य साधनोभूतां शुभोपयोगभूमिकामधिरूढोऽभिलप्येत । -जब यह आत्मा अशु भोपयोगको भूमिकाका उल्लंघन करके, देव गुरु यतिकी पूजा, दान, शोल और उपवासादिकके प्रीतिस्वरूप धर्मानुरागको अङ्गीकार करता है तब वह इन्द्रिय-सुख के साधनीभूत शु भोपयोग भूमिकामे आरूढ कहलाता है। द्र.स./मू ४५ असुहादो विणिवत्ती सुहे पवित्ती य जाण चारिस । बद समिदिगुत्तिरूव बवहारणया दु जिणभणितं ।।५-जो अशुभ कार्यसे निवृत्त होना और शुभ कार्यमें प्रवृत्त होना है, उसको चारित्र जानना चाहिए। जिनेन्द्रदेवने उस चारित्रको व्रत ममिति और गुप्तिस्वरूप कहा है। (बा अनु. ५४) । स सा./ता. वृ १२५/ प्रक्षेपक गाथा ३ की टीका "य' परमयोगीन्द्र' स्वसवेदनज्ञाने स्थित्वा शुभोपयोगपरिणामरूपं धर्म पुण्यसङ्ग त्यक्त्वा निजशद्धात्म • -जो परमयोगीन्द्र स्वसवेदन ज्ञान में स्थित होकर शुभोपयोग परिणामरूप धर्मको अर्थात पुण्यसगको छोडकर · ॥ प का /ता.वृ १३९/१६५/१२ दानपूजावतशीलादिरूप' शुभरागश्चित्तप्रसादपरिणामश्च शुभ इति सूत्राभिप्राय । - दान, पूजा, व्रत, शील आदि शुभ राग तथा चित्तप्रसाद रूप परिणाम शुभ है, ऐसा सूत्रका अभिप्राय है। पंका/ता व. १३५/१६६/२३ वीतरागपरमात्मद्रव्याद्विलक्षण पश्च परमेष्ठिनिर्भरगुणानुराग प्रशस्तधर्मानु रागः अनु कम्पास रिप्तश्चपरिणाम' दयासहितो मनोवचनकायव्यापाररूप शुभपरिणामा चित्ते नास्तिकालुष्यं यस्यैते पूर्वोक्ता त्रय शुभपरिणामा सन्ति तस्य जीवस्य द्रव्यपुण्यासवकारणभूते भावपुण्यमाखवतीति सूत्राभिप्राय -वीतराग परमात्म द्रव्यसे विलक्षण पंचपरमेष्ठी निर्भर गुणानुराग प्रशस्त धर्मानुराग है। अनुकम्पायुक्त परिणाम व दया सहित मन वचन कायके व्यापाररूप परिणाम शुभ परिणाम है । तथा चित्तमें कालुष्यका न होना, जिसके इतने पूर्वोक्त तीन । शुभ परिणाम होते हैं उस जीवके द्रव्य पुण्याखवका कारणभूत भाव पुण्यका आस्रव होता है, ऐसा सूत्रका अभिप्राय है । (प का /ता वृ. १०८/१७२/८) द्र सं/टी ३५/१४६/५ व्रतसमितिगुप्ति भावसंवरकारणभूतानां यद् व्याख्यान कृत तत्र निश्चयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रयरूपस्य शभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापासवसंवरणानि ज्ञातव्यानि । व्रत, समिति, गुप्ति आदिक भावसंवरके कारणभूत जिन बातोका व्याख्यान किया है. उनमें निश्चय रत्नत्रयको साधने वाला व्यवहार रत्नत्रय रूप शुभोपयोग है उसका निरूपण करनेवाले जो वाक्य है वे पापात्रबके सवरमें कारण जानना (पुण्यासबके संवरमें नहीं)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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