Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 463
________________ ऋद्धि ४४८ २. बुद्धि ऋद्धि निर्देश बुद्धि केवलज्ञान अवधिज्ञान मन पर्यय ज्ञान बोज बुद्धि कोष्ठबुद्धि पदानुसारि संभिन्न श्रोतृ दूरादास्वादन दूराद्दशन दूरात्स्पर्श दूरावधाण नुसार 'E १० ११ वादित्व →दराच्छत्रण दशपूर्विख चतुर्दशपूर्विस्व अष्टांगमहानिमित्त प्रज्ञाश्रमण । प्रत्येकबुद्धि १२ १६ भिन्न अभिन्न औत्पत्तिकी बैनयिकी पारिणामिकी/ अनुसारी प्रतिसारो तभयसारी अन्तरिक्ष भीम अंग (नभ) (भूमि) (शरीर) स्वर व्यंजन लक्षण चिह्न स्वप्न (छिन्न) । ६ ७८ २. उपरोक्त भेद-प्रभेदोंके प्रमाण ऋद्धि सामान्य-(ति. प ४/९६८), (ध ६/४,१,७/१८/५८), (स. सि. ३३३६/२३०/२): (रा. वा ३/३६/३/२०१/२१); (चा. सा. २११), (वसु श्रा ५१२), (नि सा/ता, बृ/११२) । बुद्धि ऋद्धि सामान्य-(ति प. ४/१६६-१७१) (रा. वा ३/३६/३/२०१/ २२); (चा सा २११/२) पक्षानुसारी-ति.प.४।६८०). (रा.वा.३/३६/ ३/२०१/३०), (ध १/४,१८/4011), (चा सा २१२/५) दशपूर्विरव(ध/४,१,८६६/५) अष्टाग महानिमित्तज्ञान-(ति प. ४/१००२); (रा. वा ३/३६/३/२०२/१०); (घ१/४.१.१४/११/७२), (चा सा. २१४/ ३) प्रज्ञाश्रमणव-(ति प ४/१०१६), (घ१/४.१.१८८१/१), (चा, सा २१७/१)। विक्रिया सामान्य-(दे ऊपर क्रिया व विक्रिया दोनों के भेद) क्रिया (ति.प ४/१०३३); (रा. वा ३/३६/३/२०२२७), (चा.सा २१८/१)। विक्रिया-(ति प४/१०२४-१०२५); रावा ३/३६/३/२०२/३३), (ध ६/४,१,१५/५/४), (चा सा. २१९/१), (वसु श्रा ५१३)। चारण(ति प.४/१०३५,१०४८), (ध.१/४,१,१७/२१/७६); (रा.वा, ३/३६/ १२०२/२७), ( ६/४,१,१७/८०,८८) तप सामान्य · ति. प.४/१०४६-१०५०), (रा. वा ३/३६/३/२०३/७), (चा.सा.२२०/१)। उग्रतप-(ति.प.४/१०१०), (ध.१/४,१,२२२८७/)। (चा, सा,२२०/१)। घोरब्रह्मचर्य-(ष.ख.६/४,१/२८-२६/६३-६४); (चा. सा. २२०/१) बल-(ति प.४/१०६१); (रा बा ३/३६/३/२०३/१८), (चा. सा.२२४/१) औषध- (ति.प ४/१०६७) (रा.वा ३/३६/३/२०३/२४); (चा.सा २२५४१) रस सामान्य-(ति प ४१०७७), (रा. वा ३/३६/३/२०३/३३), (चा, सा २२६/४)। आशाविष--(ध. १/४,१.२०/०६/४) दृष्टिविष (ध १/४,१.२१/८७/२)। क्षेत्र-(ति प ४/१०८८), (रा. वा. ३/३६/३/२०४/8), (चा सा २२८/१) २. बुद्धि ऋद्धि निर्देश १. बुद्धि ऋद्धि सामान्यका लक्षण रा, वा ३/३६/३/२०१/२२ बुद्धिरवगमो ज्ञान तद्विषया अष्टादशविधा अद्वय'। -बुद्धि नाम अगम या ज्ञानका है । उसको विषय करनेवाली १८ ऋद्वियों है। २. बीजबुद्धि निर्देश १. बीजबुद्धिका लक्षण ति.प.४/६७५-६७७ णोई दियसुदणाणावरणाण वोरअतरायाए । तिवि चिह्न माला हाणं पगदीणं उक्कस्सख उवसमविमुद्धस्स 1801 संखेजसरूवाणं सद्दाण तत्थ लिंगसंजुत्त। एक्क चिय बीजपद लद्धूण परोपदेसेण 1१७६। तम्मि पदे आधारे सयलमुदं चितिऊण गेण्हे दि । कस्स वि महे सिणो जा बुद्धि सा बजबुद्धि त्ति ।१७७१ नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण, और वीर्यान्तराय, इन तीन प्रकारकी प्रकृतियोके उत्कृष्ट क्षयोपशमसे विशुद्ध हुए किसी भी महर्षिकी जो बुद्धि, सख्यातस्वरूप शब्दों के बीच में-से लिंग सहित एक ही बीजभूत पदको परके उपदेशसे प्राप्त करके उस पदके आश्रयसे सम्पूर्ण श्रुतको विचारकर ग्रहण करती है, वह बीजबुद्धि है। १७५-६७७। (रा. वा ३/३६/३/२०१/२६) । (चा सा २१२/२)। ध. १/४,१,७/५६-१, ५६-६ बीज मिव बीज । जहाबीजं मूलं कुर-पत्तपोर-क्रवद-पसव-तुस-कुसुम-खीरत दुलाणमाहारं तहा दुवालसगत्थाहार ज पदं तं बीजतुल्लत्तादो बीज । बीजपद विसयमदिणाणं पि बोज, कज्जे कारणोवचारादो। एसा कुदो होदि । विसिट्ठोग्गहावरणीयक्रवओवसमादो। (५8-1)-बीजके मान बीज कहा जाता है। जिस प्रकार बीज, मूल, अकुर, पत्र, पोर स्कन्ध, प्रसव, तुष, कुसुम, क्षीर और तंदुल आदिकोका आधार है, उसी प्रकार बारह अगोंके अर्थका आधारभूत जो पद है वह बीज तुल्य ह'नेसे बीज है। बोजपद विषयक मतिज्ञान भी कार्य में कारणके उपचार से बीज है ।।६। .. यह बीज बुद्धि कहाँसे होती है। वह विशिष्ट अवग्रहावरणीयके क्षयोपशमसे होती है। २. बीज बुद्धिके लक्षण सम्बन्धी दृष्टिमेद ध/४,१.७/५७/६ बोजपदट्ठिदरपदेसादो हेट्ठिमसुदणाणुप्पत्तीए कारण होदूण पच्छा उवरिमसुदणाणुप्पत्तिणिमित्ता बीजबुद्धि त्ति के वि आइरिया भणं ति । तण्ण घडदे, कोट्ठबुद्धियादिचदुण्हंणाणाणमक्कमेणेक्क म्हि जीवे सबदा अणुप्पत्तिप्पसगादो। ण च एक्कम्हि जीवे सबदा चदुह बुद्धीण अक्क्मेण अतृप्पत्ती चेव। ति सुत्तगाहाए वक्रवाणम्मि गणहरदेवाणं चदुरमलबुद्धीण दसणादो। किच अस्थि गणहरदेवेसु चत्तारि बुद्धीओ अण्णहा दुवासंगाण मणुप्पत्तिप्पसगादो। बीजपदसे अधिष्ठित प्रदेशसे अधस्तन तके ज्ञान की उत्पत्तिका कारण होकर पीछे उपरिम श्रुतके ज्ञानको उत्पत्तिमें निमित होनेवाली बीज बुद्धि है। (अर्थात पहले बोजपदके अल्पमात्र अर्थ को जानकर पीछे उसके आश्रय पर विषयका विस्तार करनेवाली बुद्धि बीजबुद्धि है, न कि केवल शब्द-विस्तार ग्रहण करनेवाली) ऐसा क्तिने ही आचार्य कहते है। किन्तु वह घटित नही होता। क्योकि, ऐसा माननेपर कोष्ठबुद्धि आदि चार ज्ञानोकी (कोष्ठबुद्धि तथा अनुसारी, प्रतिसारी व जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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