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उपशामक
उपाधि
* इस गुणस्थानमे कर्म प्रकृतियोके बन्ध उदय सत्त्वादि
प्ररूपणाएं -दे. वह वह नाम * सभी गुणस्थानोंमे आयके अनुसार ही व्यय होता है
-दे. मार्गणा * इस गुणस्थानमे सम्भव मार्गणास्थान जीवसमास आदि
२० प्ररूपणाएँ -दे सत् * इस गुणस्थानकी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व सम्बन्धी आठ प्ररूपणाएँ
-दे, वह वह नाम उपशामक-स. सि ६/४५/४५६/१ एव सः क्षायिकसम्यग्दृष्टिभूश्वा श्रेण्यारोहणाभिमुखश्चारित्रमोहोपशमं प्रति व्याप्रियमाणो विशुद्धिप्रकर्षयोगादुपशमकव्यपदेशमनुभवन् पूर्वोक्तादसख्येयगुणनिर्जरो भवति । इस प्रकार वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर श्रेणीपर आरोहण करनेके सन्मुख होता हुआ तशा चारित्रमोहनीयके उपशम करनेके लिए प्रयत्न करता हुआ विशुद्धिके प्रकर्ष यश 'उपशमक' संज्ञाको अनुभव करता हुआ पहले कही गयी निर्जरासे असंख्येय गुण निर्जरावाला होता है। ध. १/१,१,२७/२२४/८ जे पुण तेसिं चेव उवसामणम्हि वावदा ते उवसामगा। =जो जोव कर्मों के उपशमन करने में व्यापार करते है उन्हे उपशामक कहते है। क. पा. १/१-१०/ ११५/३४७/८ उवसमसेढि चढमाणेण मोहणीयस्स
अतरकरण कदे सो ‘उवसामओ' त्ति भण्णादि । -उपक्षमश्रेणीपर चढनेवाला जीव चारित्रमोहका अन्तरकरण कर लेनेपर उपशामक कहा जाता है । (ध. ६/१,६-८,६/२३२/५) ।
२. उपशामकके भेद उपशामक दो प्रकारका होता है-अपूर्वकरण उपशामक और
अनिवृत्तिकरण उपशामक । उपसंपदा-भ आ./मू ५०१-५१४ तियरणसवावासयपडिपुण्णं तस्स किरिय किरियम। विणएणमजलिकदो वाइयवसम इम भणदि
५०६। पुम्बज्जादी सव्वं कादूणालोयणं सुपरिसुद्ध' । दसणणाणचारिते णिसग्लो विहरिदु इच्छे ।५११। अच्छाहि ताम सुविदिद वीसत्यो मा य होहि उन्बादो। पडिचरएहि समता इणमट्ठ संपहारेमो ॥१४॥ -मन वचन और शरीरके द्वारा सर्व सामायिक आदि छ आवश्यक कर्म जिसमें पूर्णताको प्राप्त हुए है ऐसा कृतिकर्म कर अर्थात वन्दना करके विनयके साथ क्षपक हाथ जोड़कर श्रेष्ठ आचार्यको आगे लिखे हुए सूत्रके अनुसार विज्ञप्ति देता है।५०६। दीक्षा ग्रहणकालसे आज तक जो जो व्रतादिकोंमें दोष उत्पन्न हुए हो उनकी मै दश दोषोसे रहित आलोचना कर दर्शन ज्ञान और चारित्रमें निशम्य होकर प्रवृत्ति करनेकी इच्छा करता हूँ ।५११। हे क्षपक, अब तुम निशंक होकर हमारे संघमें ठहरो, अपने मन में से खिन्नताको दूर भगाओ। हम प्रतिचारकोंके साथ तुम्हारे विषयमें अवश्य विचार करेंगे। (ऐसा आचार्य उत्तर देते है)। इस प्रकार उपसपाधिकार समाप्त हुआ। भ आ./वि. ५०१ की उत्थानिका ७२८ गुरुकुले आत्म निसर्गः उपसंपा
नाम समाचार भ आ./वि६८/१६६/६ उपसंपया आचार्यस्य ढोकन गुरुकुल में अपना
आत्मसमर्पण करना यह उपसपा शब्दका अभिप्राय है ।५०६ आचार्यके
चरणमूल में गमन करना उपसंपदा है 1६८। उपसंयत-दे. समाचार उपसमुद्र-म. पु. २५/४६ बहिः समुद्रमुद्रिक्तं द्वैप निम्नोपगं जलम् । समुदस्येव नियंदम् अन्धेराराद व्यलोकयत ४६ उन्होंने
(भारत चक्रवर्तीकी सेनाने) समुद्र के समीप ही समुद्रसे बाहर उछलउछल कर गहरे स्थान में इकट्ठे हुए द्वीप सम्बन्धी उस जलको देखा जो कि समुद्रके नियंदके समान मालूम होता था। अर्थात् समुद्र का जो जल उछल-उछल कर समुद्र के समीप ही किसी गहरे स्थानमें इकट्ठा हो जाता है वही उपसमुद्र कहलाता है । उपसर्ग-तीर्थ करोपर भी क्दाचित् उपसर्ग आते है-दे. तीर्थकर १ उपस्थ-उपस्थ इन्द्रियकी प्रधानता-दे संयम २ । उपस्थापना-१. छेदोपस्थापना चारित्र-दे. छेदोपस्थापना,
२. उपस्थापना प्रायश्चित्त-दे प्रायश्चित्त । उपात्त-रा. वा १११/६/५२(२४ उपात्तानीन्द्रियाणि मनश्च, अनुपात्तं प्रकाशोपदेशादिपर तत्प्राधान्यादवगम' परोक्ष । -उपात्त इन्द्रियों व मन तथा अनुपात प्रकाश उपदेशादि पर है। परकी प्रधानतासे होनेवाला ज्ञान परोक्ष है। ग. वा ६/७/१/६००/७ आत्माना रागादिपरिणामात्मनामनोर्मभावेन गृहीतानि उपात्तानि पुद्गलद्रव्याणि, अनुपात्तानि परमाण्यादीनि, तेषां सर्वेषां द्रव्यात्मना नित्यत्वं पर्यायात्मना सततमनपरतभेदससर्ग वृत्तित्वादनित्यत्वम् । -मात्माके रागादि परिणामोंसे कर्म और नोकर्म रूपमें जिन पुद्गल द्रव्योंका ग्रहण किया जाता है वे उपात्त पुदगलद्रव्य तथा परमाणु आदि अनुपात्त पुद्गल सभी द्रव्यदृष्टिसे नित्य होकर भी पर्याय दृष्टि से प्रतिक्षण पर्याय परिवर्तन होनेसे अनित्य है। उपादान-न्या. वि /वृ १/१३३/४८६/४ विविक्षतं वस्तु उपादानम् उत्तरस्य कार्यस्य सजातीयं कारणं प्रकल्पयेत् । विवक्षित उत्तर कार्यका सजातीय कारण कल्पित किया गया है। अष्टसहस्री/पृ. २१० त्यक्तास्यक्तात्यरूपं यत्पूर्वापूर्वेण वर्तते । कालत्रयेऽपि तन द्रव्यमुपादानमिति स्मृतम् । यत् स्वरूपं त्यजत्येव यन्न त्यति सर्वथा। तन्नोपादानमर्थस्य क्षणिक शाश्वत यथा । जो (द्रव्य) तीनों कालों में अपने रूपको छोडता हुआ और नही छोडता हुआ पूर्व रूपसे और अपूर्व रूपसे वर्त रहा है वह उपादान कारण है, ऐसा जानना चाहिए। जो अपने स्वरूपको छोडता ही है और जो उसे सर्वथा नहीं छोडता वह अर्थका उपादान नही होता जैसे क्षणिक और शाश्वत। भावार्थ-द्रव्यमें दो अंश है-एक शाश्वत और एक क्षणिक । गुण शाश्वत होनेके कारण अपने स्वरूपको त्रिकाल नहीं छोडते और पर्याय क्षणिक होनेके कारण अपने स्वरूपको प्रतिक्षण छोडती है । यह दोनो हो अंश उस द्रव्यसे पृथक् कोई अर्थान्तर रूप नहीं है। इन दोनोंसे समवेत द्रव्य ही कार्यका उपादान कारण है। अन्तरभूत रूपसे स्वीकार किये गये शाश्वत-पदार्थ या क्षणिकपदार्थ कभी भी उपादान नहीं हो सकते है । क्योकि सर्वथा शाश्वत पदार्थ में परिणमनका अभाव होनेके कारण कार्य ही नही तब कारण किसे कहे । और सर्वथा क्षणिक पदार्थ प्रतिक्षण विनष्ट ही हो जाता है तब उसे कारणपना कैसे बन सकता है । (ज्ञानदर्पण ५७-५८) अष्टसहस्रो श्लो.५८ की टीका-"परिणाम क्षणिक उपादान है और गुण
शाश्वत उपादान है।" निमित्त उपादान चिट्ठी पं.बनारसीदास-"उपादान वस्तुकी सहन
शक्ति है।" २. उपादानकी मुख्यता गौणता-दे कारण IT उपाधि-स.म १२/१४६/५ साधनाव्यापक. साध्येन समव्याप्तिम खलु उपाधिरधीयते। तत्पुत्रत्वादिना श्यामत्वे साध्ये शाकाद्याहारपरिणामवत् । -साधनके साथ अव्यापक और साध्य के साथ व्यापक हेसुको उपाधि कहा जाता है। जैसे 'गर्भ में स्थित मैत्रका पुत्र श्याम वर्ण का है, क्योंकि यह मैत्रका पुत्र है, मैत्रके अन्य पुत्रोकी तरह'
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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