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उपयोग
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१. भेद व लक्षण
४ शुभोपयोग पुण्य है और अशुभोपयोग पाप * शुभ व विशुद्धमे अन्तर-दे. विशुद्धि ५ शुभ व अशुभ उपयोगोका स्वामित्व ६ व्यवहार धर्म अशुद्धोपयोग है ७ व्यवहार धर्म शुभोपयोग तथा पुण्यका नाम है ८ शुभोपयोगरूप व्यवहारको धर्म कहना रूढि है ९ वास्तवमे धर्म शुभोपयागसे अन्य है * अशुद्धोपयोग हेय है-दे पुण्य २६ * अशुद्धोपयोगको मुख्यता गौणता विषयक चर्चा
-दे. धर्म ३-७ * शुभोपयोग साधुको गौण और गहस्थकोप्रधान होता है
-दे, धर्म ६ * साधुके लिए शुभपयोगको सोमा-दे स यत ३ * ज्ञानोपयोगमे ही उत्कृष्ट सक्लेश या विशद्ध परिणाम
सम्भव है, दर्शनोपयोगमे नही--दे. विशुद्धि I ज्ञान दर्शन उपयोग१. भेद व लक्षण
१ उपयोग सामान्यका लक्षण पं स/प्रा १/१७८ वरथुणि मित्तो भावो जादो जीबरस होदि उ० अगा।
१७८।जीवका जो भाव वस्तुके ग्रहण करनेके लिए प्रवृत्त होता है. उसे उपयोग कहते है। (गो जी /मू ६७२), (५ स/स. २/३३२) स सि २/८/१६३/३ उभयनिमित्तवशादुरपद्यमानश्चैतन्यानु विधायी परिणाम उपयोग ।-जो अन्तर ग और बहिर ग दानो प्रकारके निमित्तोसे होता है और चैतन्यका अन्नयी है अर्थात चैतन्यको छ। डकर अन्यत्र नही रहता वह परिणाम उपय, ग कहलाता है। (प्र.सा/त प्र १५५), (प का / त प्र १६).(स सा./ता.वृ१०),(नि.सा/ता.वृ १०) रा बा २/१८/१-२/१३०/२४ यत्स निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिय तिप्रति व्याप्रियते स ज्ञानावरणलयो शमबिशेषो लब्धिरिति विज्ञायते।। तदुक्त निमित्त प्रतीत्य उत्पद्यमान आत्मन परिणाम उपयाग इत्युप दिश्यते । जिसके सन्निधानमे आत्मा द्रव्ये न्द्रियोकी रचनावे प्रति व्यापार करता है ऐसे ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपम विशेषको लब्धि कहते है। उस पूर्वोक्त निमित्त (लब्धि) के अबलम्बनसे उत्पन्न होनेवाले आत्माके परिणामको उपयोग कहते है। (स सि २/१८/ १७६/३); (ध १/१,१३२/२६६/६), (त सा २/४५-४६) (गो.जी/जी. प्र १६५/३६३/१), (१ का./ता वृ.४/८६) रा वा १/१/३/२२ प्रणिधानम् उपयोग परिणाम इत्यनन्तरम्। ___-प्रणिधान, उपयोग और परिम रब एकवच है। घ २/१.१/४१३/६ स्वपरग्रहण परिणाम उपयाग । -रव वरको ग्रहण
करने वाले परिणाम को उपयोग व हते है। ५ का/वृ४०/८०/१२ आत्मनतानुविधाथिपकिमय ग
चैतन्यमनविधात्यन्वयरूपेण परिमति अथवा पदार्थ परिच्छित्तिकाले घटाय पटोऽयमित्य द्यर्थ ग्रहण रूपेण व्यापार यति चैतन्यान विधायि स्फुट द्विविध । - आत्मा चैतन्यानुविधायी परिणामका उपयोग कहते है जो चैता की आज्ञा अनुसार चलता है योउसके अन्धय रूपसे परिणमन करता है उसे उपयोग करते है। अथवा पदार्थ परिचित्तिके समय यह घट है , 'यह एट है' इस प्रकार अर्थ ग्रहण रूपसे व्यापार व रता है वह चेतन्यका अनुविधायी
है। वह दो प्रकारका है। (द्र. सं (टी ६/१८/६), (पं. का./ता.वृ ४३/ ८६/२ गो जी/जी प्र. २/२१/११ मार्गणोपायो ज्ञानदर्शनसामान्यमुपयोग ।
मार्गणा जो अवलोकन ताका जो उपाय सो ज्ञानदर्शनका सामान्य भावरूप उपयोग है।
२. उपयोग भावनाका लक्षण प का /ता वृ४३/८६/२ मतिज्ञानावरणीयक्षयोपमजनितार्थ ग्रहणशक्ति रूपलब्धितिऽथे पुन पुनश्चिन्तनं भावना नीलमिद, पीतमिद इत्यादिरूपेणार्थ ग्रहणव्यापार उपयोग । - मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमजनित अर्थ ग्रहण की शक्तिरूप जो लब्धि उसके द्वारा जाने गये पदार्थ मे पुन पुन चिन्तन करना भावना है । जैसे कि 'यह नील है'. 'यह पीत है' इत्यादि रूप अर्थग्रहण करनेका व्यापार उपयोग है।
३ उपयोगके ज्ञानदर्शन आदि भेद स सि २/६/१६३/७ स उपयोगो द्विविध -ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोग
श्चेति । ज्ञानोपयोगोऽटभेद - मतिज्ञान श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मन.पर्ययज्ञान केवलज्ञान मत्यज्ञान श्रुता ज्ञान विभङ्गज्ञान चेति । दर्शनोपयोगश्चतुर्विध -चक्षुर्दशनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शन केवलदर्शन चेति । तयो क्थ भेद । साकाराना कारभेदात् । साकार ज्ञानमनाकारं दर्शन मिति । वह उपयोग दो प्रकारका है- ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका हे-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान, केवल ज्ञान, मत्यज्ञान, शूताज्ञान और विभगज्ञान । दर्शनपयोग चार प्रकारका हे-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केबलदर्शन । प्रश्न-इन दोनो उपयोगो में किस कारण से भेद है ? उत्तर- साकार और अनाकार भेदसे इन दोनो उपयोगों में भेद हे । साकार ज्ञानोपयोग है और अनाकार दर्शनापयाग। (नि. सा /मू. १०-१२), (प का /मू ४०), (त सू २/8), रा. वा.२/६/१,३/ १२३,१२४), 'नच बृ १४, ११६), तसा २/४६), (द्र सं./मू.४-५), (गो जी /म ६७२-६७३)
४. उपयोगके बांचना पृच्छना आदि भेद पख ४/४,१/सू ५५/२६२ (उत्थानिका-सपधि एदेसु जो उवजोगों
तस्स भेदपरूवण द्वमुत्तरसुत्तमागद । ) जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा बा परियट्टणा वा अणुपेरवणा वा थय-दि धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया। -इन आगम निक्षेपोमे जा उपयोग है उसके भेदोकी प्ररूपणाके लिए उत्तर मुत्र प्राप्त होता है-उन नौ
आगमी मे जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा, तथा और भी इनको आदि लेकर जो अन्य है वे उपयोग है। (प. ख १३/५,५/सू १३/२०३) ५. उपयोगके स्वभाव विभाव रूप भेद व लक्षण नि सा /म १०-१४ जीवो उवआगमओ उबागो गाणसणो होइ। णाणुवोगा दुविहो सहावणाण विभावणाण त्ति ।१०। केवल मिदियरहिय असहाय त सहावणाण त्ति। मण्णादिरवियप्पे विहाबणाण हवे दुविह ।११। भण्णाण चउभेय मदिसुदआही तहेब मणपज्ज। अण्णाण तिबियप्प मदियहि भेददो चेव ।१२। तह द सण उव ओगो ससहावेदर वियपदो दुविहाँ । केवल मिदियरहिय असहायं त' सहावमिदि भणिद १३ । 'चर-अचवाव आही तिाण विभणिद विभावदिच्छित्ति ।१४। नि सा/ता बृ.१०.१३ स्वभावज्ञानम् कार्यकारणरूपेण द्विविध भवति। काय तावत सकल विमलकेवलज्ञानम् । तस्य कारणं परमपारिणामिकभावस्थित त्रिकाल निरुपाधि रूप सहज ज्ञान स्यात् ।१०स्वभावोऽपिद्विविध , क रणस्वभात्र कार्यस्वभावश्चेत । तत्र कारण दृष्टि सदा... पारनरूपस्य औदयिकादिचतुर्णा विभावस्वभाव परभावानामगोचरस्य सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावस्य कारण समयसारस्वरूपस्य.. खलु
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