Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 442
________________ उपधि ४२७ = आचाम्ल आहार (काजी) निर्विकृति आहार (नोरस), तथा और भी जिस शास्त्रके माग्य जा क्रिया कही हा उसका नियम करना, वह उपधान है। उससे भी शास्त्रका आदर होता है। भ, आ /वि ११०/२६१/१ उपहाणे अक्ग्रह । यात्र दिदमनुयोगद्वार निष्ठामुपैति ताव दिद मया न भाक्तव्य, इद अनशन चतुर्थ षष्ठादिक करिष्यामीति सकल्प । स च कम व्यपन यतोति विनय ।-विशेष नियय धारण करना । जब तक अनुय गका प्रकरण समाप्त होगा तब तक मे उपवास करूंगा. अथवा दो उपवास करूँगा, यह पदार्थ नही खाऊँगा या भोगूगा, इस तरह मे सक्ला करना उपधान है। यह विनय अशुभ कर्मको दूर करता है। उपधि-१ परिग्रहके अर्थमे उपधिका लपण रा वा ६/२६/२/६२४ योऽर्थोऽन्यस्य अलावानार्थ मुपधीयते स उपधि रित्युच्यते। = जो पदार्थ अन्य के बन्नाधान के लिए अर्थात् अन्यके निमित्त ग्रहण किये जाते हो वे उपधि है। ध १२/१,२,८,१०/२८५/६ उपेत्य क्रोधादयो धीयन्ते अस्मिन्निति उपधि । क्रोधाद्य त्पत्तिनिबन्धनो बाह्यार्थ उपधि । आरके क्रोधादि जहाँ पर पुष्ट होते है उसका नाम उपधि है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार क'धादि परिणामो की उत्पत्तिने निमित्तभूत बाह्यपदार्थ को उपधि कहा गया है। २. परिग्रह रूप उपधिके भेद व लक्षण स सि ६/२६/१४३/१०/ स द्विविध - बाह्योपधित्यागोऽभ्यन्तरोपधित्यागश्चेति । अनुपात्त वास्तुधनधान्यादि बाह्योपधि । क्रोधादिरात्मभावोऽभ्यन्तरापधि । कायत्यागश्च नियतकाला यावज्जीव बाभ्यन्तरोपधित्याग इत्युच्यते। = वह (व्युत्सर्ग या त्याग) दो प्रकारका है-बाह्योपधि त्याग और अभ्यन्तर उपधि त्याग। आत्मासे एक्त्वको नहीं प्राप्त हुए ऐसे वास्तु, धन, धान्य आदि बाह्य उपधि है और क्रोधादिरूप आत्मभाव अभ्यन्तर उपधि है तथा नियत काल तक या यावज्जीवन तक कायका त्याग करना भी अभ्यन्तर उपधि त्याग कहा है । (रा. वा ६/२६/३-५/६२४), (त सा ७/२६),(चा सा.१५४/१), (अन ध ७/१८/७२२); (भा. पा/टो ७८/२२/१६) ३ अन्य सम्बंधित विषय * मायाका एक भेद है-दे, माया २। * परिग्रह सम्बन्धी विषय--दे. परिग्रह । * साधु योग्य उपधि-दे परिग्रह १ । योग्यायोग्य उपधिका विधि निषेध-दे, अपवाद । उपधि वाक्-दे, वचन । उपनय-न्या सू./ १/१/३८ उदाहरणापेक्षस्तथेत्युपसहारोन तथेति । वा साध्यस्योपनय ।३८। - उदाहरणकी अपेक्षा करके तथा इति' अर्थात जैसा उदाहरण है वैसा हो यह भी है, इस प्रकार उपसहार करना उपनय है । अथवा यदि उदाहरण व्यतिरेकी है तो-जैसे इस उदाहरणमें नहीं है उसी प्रकार यह भी नहीं है, इस प्रकार उपमहार करना उपनय है । तात्पर्य यह कि जहाँ वैधर्म्य का दृष्टान्त होगा बहा 'न तथा' ऐसा उपनय होगा और जहाँ साधर्म्यका उदाहरण होगा वहाँ तथा' ऐसा उपनय होगा। न्या सू./भा १/१/३८/३८साधनभूतस्य धर्मस्य साध्येन धर्मेण सामानाधिकारण्योपपादनमुपनयार्थ।। = साधनभूतका साध्यधर्म के साथ समान अधिकरण एक आश्रयपना) होनेका प्रतिपादन करना उपनय है। प मु. ३/५० हेतोरुपसहार उपनय 101 व्याप्तिपूर्वक धर्मी में हेतुकी निस्संशय मौजूदगी बतलाना उपनय है यथा (उसी प्रकार यह भी धूमवान् है ) ऐसा कहना। न्या दी ३/३२,७२ दृष्टान्तापेक्षया पक्षे हेतोरुपस हारव च नमुनग । तथा चायं धूमना निति ।१२। साधनवत्तया पक्षस्य दृष्टान्तसाम्यक्थनमुपनय । यथा चाय धूमवानिति 1७२ = दृष्टान्तकी अपेक्षा लेकर पक्षमें हेतुके दोहरानेको उपनय कहते है। जमे -- 'इसलिए यह पर्वत भी धूमवाला है' ऐसा कहना अथवा साधनवान रूपसे पक्षकी दृष्टान्तके साथ साम्यताका कथन करना उपनय है। जैसे इसीलिए यह धूम वाला है। * उपनय नामक नय-दे नय ४| उपनयाभास-न्या दी/३/७२ अनयोर्व्यत्ययेन क्थनमनगौराभास । -इन दानो उपनय निगमनका अयथाक्रममे गथन करना उपनयाभास और निगमन भास है। अर्थात उपनयकी जगह निगमन और निगमनकी जगह उपनयका कथन करना इन दानोका आभास है। उपनय ब्रह्मचारी-दे, ब्रह्मचारी। उपनीति-सस्कार सम्बन्धी एक गर्भान्वय क्रिया-दै संस्कार । उपन्यास-न्या. वि/. १/४१/२६२/२४ उपन्यासो दृष्टान्ता -- उप न्यास अर्थात दृष्टान्त । उपपत्तिसमान्या सू मू ब भाष्य ५/१/२५ उभयकारणोपपत्ते रुपपत्तिसम ।२५। यद्यनित्यत्वकारणमुपपद्यते शब्दस्यत्य नित्य शब्दो नित्यत्व कारणमप्युपपद्यतेऽस्यास्पर्श त्वमिति नित्यत्वमप्युपपद्यते। (उभयस्यानित्यत्वस्य नित्यत्वस्य च) कारणोपपत्त्या प्रत्यवस्थानमुपपत्तिसम। - पक्ष व विपक्ष दोनो ही कारणोकी, वादी और प्रतिबादियो के यहाँ सिद्धि हो जानी उपपत्तिसमा ज ति है। प्रतिवादी कह देता है कि जैसे तुझ वादो के पक्षमे अनित्यत्वपनेका प्रमाण विद्यमान है तिसी प्रकार मेरे पक्षमें भो नित्यत्व पनेका अस्पर्शत्व प्रमाण विद्यमान है । वर्त जानेसे यदि शब्दमे अनित्यत्व की सिद्धि कर दगे तो दूसरे प्रकार अस्पर्शत्व हेतुसे शब्द नित्य भी क्यो नही सिद्ध हो जायेगा । अर्थात् होवेगा ही। (श्लो. वा. ४/न्या ४०८/५२१) उपपाद-स. सि २/३१/१८७/५ उपेत्य पद्यतेऽस्मिन्निति उपपाद । देवनारकोत्पत्तिस्थानविशेषस ज्ञा। प्राप्त होकर जिसमे जीव हलनचलन करता है उसे उपपाद कहते है । 'उपपाद' यह देव नारकियोके उत्पत्तिस्थान विशेषकी सज्ञा है । (रा.वा.२/३१/४/१४०/२६) गो जी |जी प्र ८३/२०५/१ उपपदनं संपुटशय्योष्ट्र मुरवाकारादिषु लघुनान्तर्महुर्तेनैव जीवस्य जननम् उपपाद. । उपपदन कहिए संपुटशय्या वा उष्ट्रादि मुखाकार योनि विषे लघु अन्तर्मुहूर्त काल करि ही जीव का उपजना सो उपपाद कहिए । ति.५/२/८ विशेषार्थ "विवक्षित भवके प्रथम समयमे होनेवाली पर्याय की प्राप्तिको उपपाद कहते है।" २. उपपादके भेद ध ७/२,६,१/३००/३ उववादो दुविहो- उजुगदिपुज्य ओ विग्गहदि पुठव ओ चेदि । तत्थ एक्के को दुविहो-मारणातियसमुग्घाद पुब्बओ तविबरीदओ चेदि। - उपपाद दो प्रकार है--जुगतिपूर्वक और विग्रहगतिपूर्वक । इनमें प्रत्येक मारणान्तिकसमुद्धातपूर्वक और तद्विपरीतके भेदसे दो-दो प्रकार है। * उपपादज जन्म सम्बन्धी अन्य विषय--2. जन्म २। उपपाद क्षेत्र-दे क्षेत्र १ उपपाद गह-त्रि. सा /मू. ५२३ पासे उववादिगह हरिस्स अडवास दोहरुदयजुदं । दुगरयणसयणमझ वरजिणगेहं च बहुकूड । तिह मानस्तम्भके पासि आठ योजन चौड़ा इतना ही लम्बा ऊचा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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