Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 440
________________ उपदेश ३. वक्ता व श्रोता विचार करनेके लिए कटिबद्ध होकर आत्महितके साथ कटु व कठोर वचन बोलकर परहित भी साधते है, वे जगत् में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए। स. सि.१/३३/१४४ विरोध होता है तो होने दो। यहाँ तत्त्वकी मीमासा की जा रही है । दवाई कुछ रोगीकी इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती है। (दे आगम ३/४/३) पु सि./उ.१०० हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकल वितथवचनानाम् । हेया नुष्ठानादेरनुवदन भवति नासत्यम् ।१००।-समस्त ही अमृत वचनोका प्रमादसहित योग हेतु निदिष्ट होनेसे हेय उपादेयादि अनुष्ठानोका कहना झूठ नही होता। स म ३/१५/१६ ननु यदि च पारमेश्वरे वचसि तेषामविवेकातिरेकादरोचकता. तत्किमर्थं तान् प्रत्युपदेशक्लेश इति । नैवम् । परोपकारसारप्रवृत्तीनां महात्मना प्रतिपाद्यगता रुचिमरुचि वानपेक्ष्य हितोपदेशप्रवृत्तिदर्शनावः तेषा हि परार्थस्यैव स्वार्थ त्वेनाभिमतत्वात, न च हितोपदेशादपर पारमार्थिक परार्थ । तथा चार्षम् - "रूसउ वा परो मा वा, विस वा परियत्तऊ। भासियव्वा हिया भासा सपक्वगुणकारिया।" प्रश्न-यदि अविवेककी प्रचुरतासे किसीको जिनेन्द्र भगवान के वचनोमें रुचि नही होती, तो आप उसे क्यो उपदेश देनेका परिश्रम उठाते है। उत्तर-यह बात नही है, परोपकार स्वभाववाले महात्मा पुरुष किसी पुरुषकी रुचि और अरुचिको न देखकर हितका उपदेश करते है। क्योकि महात्मा लोग दूसरेके उपकारको ही अपना उपकार समझते है। हितका उपदेश देनेके समान दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नहीं है। ऋषियोने कहा है- "उपदेश दिया जानेवाला पुरुष चाहे रोष करे, चाहे वह उपदेशको विषरूप समझे. परन्तु हितरूप वचन अवश्य कहने चाहिए।" २. उपदेश श्रोताको योग्यता व रुचिके अनुसार देना चाहिए ध १/१,१,६६/३११/१ द्विरस्ति-शब्दोपादानमनर्थकमिति चेन्न, बिस्तररुचिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात। संक्षेपरुचयो नानुग्रहीताश्चेन्न, विस्तररुचिसत्वानुग्रहस्य संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहाविनाभावित्वात् । -प्रश्न सूत्र में दो बार 'अस्ति' शब्दका ग्रहण निरर्थक है। उत्तर - नही, क्योकि विस्तारसे समझने की रुचिवाले शिष्योके अनुग्रह के लिए सूत्र में दो बार 'अस्ति' पदका ग्रहण किया है। प्रश्न--तो इस सूत्र में सक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले शिष्य अनुगृहीत नहीं किये गये। उत्तर--नहीं, क्योकि, सक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोका अनुग्रह विस्तारसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोके अनुग्रहका अविनाभावी है। अर्थात विस्तारसे कथन कर देने पर सक्षेपरुचि शिष्यो का काम चल ही जाता है। (ध १/१,१,५/१५३/७ तथा अन्यत्र भी अनेको स्थलो पर) म पु १/१३७ इति धर्म कथाङ्गत्वादाक्षिप्ता चतुष्टयीम् । कथा यथार्ह श्रोतृभ्य, कथक' प्रतिपादयेत् ।१३७। इस प्रकार धर्म कथाके अङ्गभूत आक्षेपिणी विक्षेपिण स वेदिनी और निर्वेदिनी रूप चार कथाओंको विचारकर श्रोताकी योग्यतानुसार वक्ताको क्थन करना चाहिए । न्या दी. ३/६३६ वीतरागकथाया तु प्रतिपाद्यानुशयारोधेन प्रतिज्ञाहेतू द्वाववयवौ. प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि य: प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चस्वार , प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनय निगमनानि वा पञ्चेति यथायोगप्रयोगपरिपाटो। तदुक्तं कुमारनन्दिभट्टारकै -"प्रयोगपरिपाटी प्रतिपाद्यानुरोधत । वीतराग कथामें तो शिष्योके आशयानुसार प्रतिज्ञा और हेतु ये दो भी अवयव होते है, प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण ये तीन भी होते है, प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण और उपनम मे चार भी होते है, प्रतिज्ञा हेतु,उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच भी होते है। इस तरह यथायोग्य रूपसे प्रयोगकी यह व्यवस्था है। इसी बातको श्री कुमारनन्दि भट्टारकने वादन्याय' में कहा है प्रयोगोके बोलनेको यह व्यवस्था प्रतिपाद्यो (श्रोताओ) के अभिप्रायानुसार करनी चाहिए। जो जितने अवयवोसे समझ सके उतने अवयवोंका प्रयोग करना चाहिए। ३. ज्ञान अपात्रको नहीं देना चाहिए कुरत ७२/४.६.१० ज्ञानचर्चा तु कर्त्तव्या विदुषामेव संसदि। मौर्य च दृष्टिमाधाय वक्तव्य मूर्खमण्डले ।४। व्याख्यानेन यशोलिप्सो श्रृत्वेद स्वावधार्यताम् । विस्मृत्याग्रे न वक्तव्य व्यारव्यानं हतचेतसाम् ।। विरुद्वाना पुरस्तात्तु भाषण विद्यते तथा । मालिन् दूपिते देशे यथा पीयूषपातनम् ।१०। - बुद्धिमान और विद्वान् ल गोकी सभामे ही ज्ञान और विद्वत्ताकी चर्चा करो, किन्तु मूखको उनकी मुर्खताका ध्यान रखकर ही उत्तर दो ।४। ऐवक्तृता मे विद्वानोको प्रसन्न करनेकी इच्छावाले लोगो । देखो. कभी भूल कर भी मूर्वोके सामने व्याख्यान न देना ।ह। अपनेसे मतभेद रखनेवाले व्यक्तियोके समक्ष भाषण करना ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार अमृतको मलिन स्थानपर डाल देना ।१०।। स श.५८ अज्ञापित न जानन्ति यथा मा ज्ञापितं तथा । मूढारमानस्ततस्तेषा वृथा मे ज्ञापनश्रम १८-स्वात्मानुभवमग्न अन्तरात्मा मिचारता है, कि जैसे ये मुखं अज्ञानी जीव बिना बताये हए मेरे आत्मस्वरूपको नही जानते है, वैसे ही बतलाये जानेपर भी नही जानते है । इस लिए उन मूढ पुरुषोको मेरा बतलानेका परिश्रम व्यर्थ है--निष्फल है । प्रायो मूर्खस्य कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम् । निर्खननासिकस्येव विशुद्धादर्शदर्शनम् । प्राय करके सन्मार्गका उपदेश मूर्ख जनो के लिए कोपका कारण होता है। जिस प्रकार कि नकटे व्यक्तिको यदि दर्पण दिखाया जाये तो उसे क्रोध आता है। ध.१/१.१.१/६२-६३/६८ सेलघण भग्गघड-अहिचालणि महिसाविजाहय-सुएहि । मट्टिय-मसय-समाण वखाणइ जो सुदं मोहा ।।२। धद-गारवपडिबद्धो बिसयामिस-विस-बसेण-घुम्मंतो। सो भट्ट खोहिलाहो भमइ चिर भव वणे मूढो ।६३ शेलधन, भग्नघट, सर्प, चालनी. महिष, मेढा, जोक, शुक, माटी और मशक (मच्छर) के समान श्रोताओको (देखो 'श्रोता') जो मोहसे श्रुतका व्याख्यान करता है, वह मूढ रसगारवके आधीन होकर विषयोकी लोलुपतारूपी विषके वशसे मूच्छित हो, बोधि अर्थात् रत्नत्रयकी प्राप्तिसे भ्रष्ट होकर भव बनमे चिरकाल तक परिभ्रमण करता है ।६२-६३। ध १२/४,२,१३,६६/४/४१४ बुद्धिविहीने श्रोतरि वक्तृत्वमनर्थक भवति पुसाम् । नेत्रविहीने भर्तरि बिलासलावण्यवत्स्त्रीणाम् ।४।-जिस प्रकार पतिके अन्धे होनेपर स्त्रियोका विलास व सुन्दरता व्यर्थ (निष्फल) है, उसी प्रकार श्रोताके मूर्ख होनेपर पुरुषोका वक्तापना भी व्यर्थ है।४। ध १/१,१.१/७०/१ इदि वयणादो जहाछदाईण विज्जादाण संसार-भयबद्धणमिदि चितिऊण -धरसेणमयवदा पुणरवि ताण परिवरखा काउमादत्ता। -'यथाच्छन्द श्रोताओको विद्या देना ससार और भयका ही बढानेवाला है' ऐसा विचार कर ही धरसेन भट्टारकने उन आये हुए दो साधुओकी फिरसे परीक्षा लेनेका निश्चय किया। क.पा ११,११-१२/१३८/१७१/४ 'सुण' यद (इदि) सिस्ससभालणव.यणं अपडिबद्धस्स सिस्सस्स यक्वाण णिरत्थयामिदि जाणावण?' भणि। 'नासमझ शिष्योको व्याख्यान करना निरर्थक है' यह बात बतलानेके लिए ही सूत्रमे 'सुनो' इस पदका ग्रहण किया गया है। अ.ग श्रा ८/२५ अयोग्यस्य वचो जैनं जायतेऽनर्थ हेतवे। यतस्तत' प्रयत्नेन मृग्यो योग्यो मनीषिभि ।२५॥ = अयोग्य पुरुषके जिनेन्द्रका वचन अनर्थनिमित्त होता है, इसलिए पण्डितोंको योग्य पुरुषोकी खोज करनी चाहिए। अन.ध १/१३,१७,२० बहुशोऽप्युपदेश स्यान्न मन्दस्यार्थसं विदे। भवति ह्यन्धपाषाण' केनोपायेन काञ्चनम् 1१३। अव्युत्पन्नमनुप्रविश्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506