Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 438
________________ उपचार उपदेश पंध/पू. ५४२-५४३ असदपि लक्षणमेतत्सन्मात्ररवे सुनिर्विकल्पत्वात् । तदपि न चिनावलम्बान्निविषय शक्यते वक्तुम् १५४२॥ तस्मादनन्यशरण सदपि ज्ञान स्वरूपसिद्धत्वात् । उपचरित हेतुबशात तदिह ज्ञान तदन्यशरणमिव ।२४३। --निश्चयनयसे तत्वका स्वरूप केवल सतरूप मानते हुए, निर्विकल्पताके कारण यद्यपि उक्त लक्षण (अर्थविकल्पो ज्ञान) ठोक नही है। इसलिए ज्ञान स्वरूपसे सिद्ध होनेसे अनन्य शरण होते हुए भी यहॉपर वह ज्ञान हेतु (या प्रयोजन) के वशसे उपचरित होकर उससे भिन्नके (ज्ञयो) के शरणकी तरह मालूम होता है । अर्थात स्वपर व्यवसायात्मक प्रतीत होता है। (और भी दे. नय V/८४) ५. उपचार व नय सम्बन्ध विचार १. उपचार कोई पृथक नय नही है आ.प.६ उपचार पृथग नयो नास्तीति न पृथक् कृत । - उपचार नय कोई पृथक् नय नहीं है, इसलिए असदभूत व्यवहार नयसे पृथक उसका ग्रहण नयोकी गणनामें नहीं किया है। २. असद्भूत व्यवहार ही उपचार है आ.प ६ असद्भूतव्यवहार एवोपचार , उपचारादप्युपश्चार य करोति स उपचरितासद्भूतव्यवहार I = असदभूत व्यवहारही उपचार है। और उपचारका भी जो उपचार करता है सो उपचरित्तासभूत व्यवहार है। (विशेष देखो नय V) ३. उपचार शुद्ध नयमें नहीं नंगामादि नयोमें ही सम्भव है क पा १/१,१३-१४/१२४८/२६०/६ एवं णेगम-स्गह-वबहाराणं । कुदो। कज्जादो अभिण्णस्स कारणस्स पच्चयभावभुवगमादो उजुसुदस्स कोहोदयं पडुच्च जीवो कोहकसाओ। ज पच्च कोहकसाओ त पच्च यकसारण कसाओ । बधसंताणं जीवादो अभिण्णाण बेयणसहायाणमुजुमुदी काहादिषच्चयभावं क्ण्णि इच्छदे। ण बधसतेहितो कोहादिकसायणमुप्पत्तीए अभावादो । ण च कज्जमणुकताणं कारणववएसो; अश्वत्थावत्तीदो। इस प्रकार ऊपर चार सूत्रो द्वारा जो क्रोधादि रूप द्रव्यको प्रत्यय कषाय कह आये है, वह नैगम सग्रह और व्यवहार नयकी अपेक्षासे जानना चाहिए। प्रश्न-यह कैसे जाना कि उक्त कथन ने गमादिकी अपेक्षासे किया है । उत्तर चूंकि ऊपर (हन सुत्रो में) कार्य से अभिन्न (अविनाभावी) कारणको प्रत्ययरूपसे स्वीकार किया है, अर्थात् जो 'कारण कार्यसे अभिन्न है उसे ही कषायका प्रत्यय बतलाया है। ऋजुमूत्र की दृष्टिमे क्रोधके उदयकी अपेक्षा जीव क्रोध कषाय रूप होता है। प्रश्न - बन्ध और सत्त्व भी जीवसे अभिन्न है, और वेदनास्वभाव है, इसलिए ऋजुसूत्रनय क्रोधादि कर्मों के बन्ध और सत्त्वको भी क्रोधादि प्रत्यय रूपसे क्यो नहीं स्वीकार करता है । अर्थात् क्रोध कर्म के उदयको ही ऋजुसूत्र प्रत्यय कषाय क्यो मानता है, उसके अन्ध और सत्त्व अवस्थाको प्रत्ययक्षाय क्यो नही मानता। उत्तर-नही क्योकि क्रोधादि कर्मों के बन्ध और सत्त्वसे क्रोधादि क्षायोकी उत्पत्ति नही होती है, तथा जो कार्यको उत्पन्न नहीं करते है उन्हे कारण कहना ठीक भी नही है. क्योंकि (इस मयसे) ऐसा मामने पर अव्यवस्था दोषकी प्राप्ति होती है। क.पा.१/१,१३-१४/१२५७/२६७/१ ज मणुस्स पडुच्च कोहो समुप्पण्णो सो तत्तो पुधभूतो सतोथ कोहो । होत ए ऐसो दोसो जदि सगहादिणया अबल बिदा। कितु णइमण ओ जयिवसहाइरिएण जेणावलं विदो तेण ण एस दसो। तत्थ कथ ण दोसो। कारणम्मि णिलीणकञ्चभुवगमादो। - प्रश्न-जिस मनुष्यके निमित्त से क्रोध उत्पन्न हुआ है वह मनुष्य उस क्रोधसे अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे कहला सकता है । उत्तर -यदि यहाँ पर संग्रह आदि नयोका अव. लम्बन लिया होता तो ऐसा होता, किन्तु यतिवृषभाचार्य ने चूकि यहाँ पर ने गमन का अबलम्बन लिया है. इसलिए यह कोई दोष नहीं है। प्रश्न लेगम न प का अबनम्बन लेने पर दोष कैसे नहीं है। उत्तर -क्याँकि नैगमनयको अपेक्षा कारणमें कार्य का सद्भाव स्वीकार किया गया है, इसलिए दोष नही है। उपचार-अभेद-अभेदोपचार-दे अभेद । उपचार छल-दे छल । उपचार विनय-दे विनय । उपदेश-मोक्षमार्गका उपदेश परमार्थ से सबसे बड़ा उपकार है, परन्तु इसका विषय अत्यन्त गुप्त होनेके कारण केवल पात्रको ही दिया जाना योग्य है, अपात्रको नहीं। उपदेशकी पात्रता निरभिमानता विनय व विचारशीलतामें निहित है। कठोरतापूर्वक भी दिया गया परमार्थोपदेश पात्रके हितके लिए ही होता है। अतः उपदेश करना कर्तव्य है, परन्तु अपनी साधनामें भंग न पड़े, इतनी सीमा तक हो । उपदेश भी पहिले मुनिधर्मका और पीछे श्रावक धर्मका दिया जाता है ऐसा क्रम है। १ उपदेश सामान्य निर्देश १ धर्मोपदेशका लक्षण २ मिथ्योपदेशका लक्षण ३ निश्चय व व्यवहार दोनो प्रकारके उपदेशोंका निर्देश * सल्लेखनाके समय देने योग्य उपदेश-दे सल्लेखना १११ * आदेश व उपदेशमे अन्तर–दे आदेशका लक्षण * चारो अनुयोगोके उपदेशोकी पद्धतिमे अन्तर -दे. अनुयोग १ * आगम व अध्यात्म पद्धति परिचय-दे. पद्धति * उपदेशका रहस्य समझनेका उपाय-दे, आगम ३ २ योग्यायोग्य उपदेश निर्देश १ परमार्थ सत्यका उपदेश असम्भव है २ पहिले मुनिधर्मका और पीछे श्रावकधर्मका उपदेश दिया जाता है ३ अयोग्य उपदेश देनेका निषेध ४ ख्याति लाभ आदिकी भावनाओंसे निरपेक्ष ही उपदेश हितकारी होता है ३ वक्ता व श्रोता विचार * वक्ता व श्रोताका स्वरूप --दे, वह वह नाम * गुरु शिष्य सम्बन्ध -दे. गुरु २ * मिथ्यादृष्टिके लिए धर्मोपदेश देनेका अधिकार अनधिकार सम्बन्धी -दे वक्ता * सम्यग्दृष्टि व मिथ्याष्टिके उपदेशका सम्यक्त्वोत्पत्ति में स्थान -दे लब्धि ३ | * वक्ताको आगमार्थके विषयमे अपनी ओरसे कुछ नही कहना चाहिए -दे. आगम शE जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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