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उपचार
३. द्रव्यगुण पर्यायमै उपचार निर्देश
८. अन्य अनेकों उपचारोंके उदाहरण स.सि ७/१८/३५६/६ शल्यमिव शल्या यथा तत् प्राणिनो बाधार तथा शरीरमानसबाधाहेतुत्वात्कर्मोदयविकार शल्यमित्युपचर्यते । जिस प्रकार कॉटा आदि शल्य प्राणियोको बाधाकारी होती है, उसी प्रकार शरीर और मन सम्बन्धी बाधाका कारण होनेसे कर्मोदय जनित विकारमै भो शल्यका उपचार कर लेते है । (यहाँ तत् सदृश कारणमें तत्का उपचार है।) रावा, १/२६/४/२४४/२८ चरमके पासवाला अव्यवहित पूर्वका मनुष्यभव भी उपचारसे चरम कहा जाता है। (यहाँ काल सामीप्यमे तत्
का उपचार है ) श्लो बा २/१/५/८.-१४/१८८/५ (यह भी गौ है वह भी गौ थी। यहाँ
धर्म के एकत्व कारण धर्मियोमें एकत्व का उपचार किया है। ध. २१.१/४४६/३ आयोगकेवली के एक आयु प्राण ही होता है, किन्तु
उपचारसे एक, छ. अथवा सात प्राण भी होते है। (यहाँ सश्लेष सम्बन्धको प्राप्त द्रव्येन्द्रिय व शरीरादिमें जीवकी पर्यायका उपचार किया गया है। स सा./आ.१०८ (प्रजाके गुण दोषको उपजानेवाला राजा है। ऐसा
कहना । यहाँ आश्रयमें आश्रयीका उपचार किया है।) द्र.सं/टी, १६/५७/१३ (मुक्त जीवोके अवस्थाके कारण लोकानको भी
मोक्ष संज्ञा प्राप्त है । यहाँ आधारमें आधेयका उपचार है । न्याय दी. १/६१४ (ऑखसे जानते है इत्यादि व्यवहार तो उपचारसे
प्रवृत्त होता है । उपचारकी प्रवृत्तिमें सहकारिता निमित्त है।) प ध/पू ७०२ (अवधि व मन पर्ययज्ञानको एकदेश प्रत्यक्ष कहना
उपचार है।) ३. द्रव्यगुण पर्यायमे उपचार निर्देश
१द्रव्यको गुणरूपसे लक्षित करना ध ११.१,६/०६१/३ गुणसह चरितत्वादात्मापि गुणसंज्ञा प्रतिलभते। उक्त च-"जेहि दु लक्विज्जंते उदयादिसु सम्वेहि भावे हि । जीवा ते गुण सण्णा णि हिट्ठा सबद रिसीहि ।१०४.".- गुणोके साहचर्य से आरमा भी गुणसज्ञाको प्राप्त होता है। कहा भी है-"दर्शनमोहनीय आदि कर्मों के उदय उपशम आदि अवस्थाओ के होनेपर उत्पन्न हुए जीव-परिणामोसे युक्त जो जीव देखे जाते है, उन जीवोको सर्वज्ञदेव ने उसी (औपशमिक आदि) गुण सज्ञावाला कहा है।" (गो. क / म. ८६२/६८६) (और भी दे उपचार १/३)
२ पर्यायको द्रव्यरूपसे लक्षित करना ध४/१५४/३३७/५ असुद्ध' दवट्ठिय णये अवल विदे पुढ विआदीणि
अणेयाणि दम्याणि होति त्ति व जणपज्जायस्स दव्वत्तब्भुवगमादो। पण अशुद्ध द्रव्याथिकनया अबलम्बन करनेपर पृथिवी जल आदिक अनेक द्रव्य होते है, क्योकि व्यंजन पर्यायके द्रव्यपना माना गया है। (और भी दे उपचार १/३) ध/३,४/६३ कधमत्थियवसेण अदव्वाणं पज्जयाणं दव्यत्त । ण, दबदो एयतेण तेमि पुधभूदाणमणुवलं भादो, दव्वसहावाणं चेबुवलंभा। .. दवट्ठियस्स धमभाव व्यवहारो। ण एस दोसो, 'यदस्ति न तद् द्वयमतिलडध्य वर्तते' इति दो विगए अविलंबिउण द्विदणेगमणयस्स भावाभावबवहारविरोहाभावादो |-- प्रश्न-द्रव्यार्थिक नयसे व्यसे भिन्न पर्यायोके द्रव्यत्व कैसे सम्भव है। उत्तर-पर्याय द्रव्यसे सर्वथा भिन्न नहीं पायी जाती, किन्तु द्रव्य स्वरूप ही वे उपलब्ध होती है। प्रश्न-द्रव्यार्थिकको अपेक्षा पर्यायो में अभावका व्यवहार कैसे होता है। उत्तर-'जो है वह दोनोका अतिक्रमण करके नहीं रहता' इसलिए दोनो नयोका आश्रय कर स्थित नैगम नयके भाव अभावरूप (दोनो प्रकारके) व्यवहारमें कोई विरोध नही है।
स. सा /आ २६४ प्रवर्तमान यद्यदभिव्याप्य प्रवर्तते, निवर्तमान च यद्युपादाय निवर्तते तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं क्रमप्रवृत्तं वा पर्यायजातमेति लक्षणीय तदेकलक्षण-लक्ष्यत्वात । वह (चैतन्य) प्रवर्त
यत्वात मान होता हुआ जिस जिस पर्यायको व्याप्त होकर जवंतता है और निवर्तमान होता हुआ जिस जिस पर्यायको ग्रहण करके निवर्तता है, चे समस्त सहवर्ती (गुण) या क्रमवर्ती पर्याये आत्मा है, इस प्रकार लक्षित करना चाहिए, क्योकि आत्मा उसी एक लक्षणसे लक्ष्य है।
३ द्रव्यको पर्यायरूपसे लक्षित करना ध./१,७,१/१/१८७/६ भावो णाम किं । दवपरिणामो पुत्वावरकोडिवदि. रित्तवट्टमाणपरिणामुवलक्खियदव्वं वा। -प्रश्न-भाव नाम किस वस्तुका है । उत्तर-द्रव्यके परिणामको (पर्यायको) अथवा पूर्वापर कोटिसे व्यतिरिक्त वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्यको भाव कहते है । (और भी दे उपचार १/३)
४ पर्यायको गुणरूपसे लक्षित करना भ आ./मू. ५७/१८२ अहिंसादिगुणा भ आ./वि.५७/१८३/५ एते अहिंसाद गुणा' परिणामा धर्म इत्यर्थः। ननु सहभुवो गुणा इति वचनात चेतन्यामूर्तिस्वादीनामेबारमन' सभुवा गुणताम् । हिसादिभ्यो विरतिपरिणाम पुन कादाचिकत्वात मनुष्यत्वादिक्रोधादिवत् पर्याया इति चेन्न गुणपर्य यवद्गद्रव्यमित्यावुभयोपादाने अपान्तरभेदोपदर्शनमेतद्यथा 'गाबलीवर्दम' इत्युभयोरुपादाने पुनरुक्ततापरिहृतये स्त्रीगोशब्दवाच्या इति कथनमेकस्यैव गुणशब्दस्य ग्रहणे धर्म मात्रवचनात् । अहिसादि गुण आत्माके परिणाम है अर्थात धर्म है प्रश्न-'सहभुवो गुणा' ऐसा आगमका वचन होनेके कारण चैतन्य अमूर्तित्वादि ही आत्माके गुण है क्योकि ये कभी उससे पृथक् नही होते । परन्तु हिसा आदिसे विरतिरूप परिणाम कादाचित्क होनेके कारण, ये भाव मनुष्यत्वादि अथवा क्रोधादिकी भॉति पर्याय है ? उत्तर-'गुण पर्ययवद्रव्यम्' इस सूत्रमें दोनोका ग्रहण किया है। यहाँ गुण शब्द उपलक्षण वाचक समझना चाहिए, अर्थात वह ज्ञानादि गुणोके समान अहिसादि धर्मोंका भी वाचक है। जैसे- 'गोबलोवर्दम्' इस शब्दसे एक ही गौ पदार्थ का गो और बलीवर्द दोनों शब्दोके द्वारा ग्रहण होनेसे एकको पुनरुक्तता प्राप्त होती है । इसे दूर करनेके लिए यहाँ गो शब्द का अर्थ 'स्त्री' करना पड़ता है। उसी तरह 'अहिसादिगुणा' इस गाथाके शब्दसे यहाँ धर्ममात्रको गुण कहा है, ऐसा समझना चाहिए । (फिर वे धर्म गुण हो या पर्याय, इससे क्या प्रयोजन) दे. उपचार ३४१ औपशमिकादि भावोको जीवके गुण कहा जाता है। ल सा /मू १७/१३५ उपशमंगुणं गृह्णाति । (अन्त कोटाकोटी मात्र कर्मों ___ की स्थिति रह जानेपर जीव) उपशम सम्यक्त्व गुणको ग्रहण कर है। पंका/ता. वृ. ५/१४/१२ केवलज्ञानादय स्वभावागुणा मतिज्ञानादयो विभावगुणा 1- केवलज्ञानादि (शुद्ध पर्याय) स्वभाव गुण है और मति ज्ञानादि (अशुद्ध पर्याय) विभाव गुण है । (प प्रा/टी १/५७) (विशेष दे उपचार १/३)
५ गुणको पर्यायरूपसे लक्षित करना स सा./म. ३४५ केहिचि दुपज्जए हि विणस्सए णेव केहिचि दु जीवो।
जम्हा तम्हा कुव्बदि सो वा अण्णो व णेयतो । ३४५। -क्योकि जीव कितनी ही पर्यायोसे नष्ट होता है और क्तिनी ही पर्यायों (गुणो) से नष्ट नहीं होता। इसलिए 'वही करता है' अथवा 'दूसरा ही करता है ऐसा एकान्त नहीं है। प्र.सा./मू१८ उप्पादो य विणासो विज्जदि सव्वस्स अट्ठजादस्स । पज्जाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सम्भूदो। -क्सिी पर्यायसे उत्पाद, किसी पर्यायसे विनाश सर्व पदार्थ मात्र के होता है। और क्सिी पर्यायसे (गुणसे) पदार्थ वास्तवमें ध्र व है। (विशेष दे. उपचार १/३)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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