Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 437
________________ उपचार ४. उपचारकी सत्यार्थता व असत्यार्थता १. परमार्थतः उपचार सत्य नहीं होता ध. ७/२,१, ३३/७६/४ उक्यारेण खत्रोसमियं भाव पत्तस्स ओदइयस्स जोगत्याभावविरोहायो-योगसे क्षयोपशम भावतो उपचारसे माना गया है। असल में तो योग औदायिक भाव ही है। और औदयिक योगका सयोगिकेवलियो में अभाव माननेमें विरोध आता है । ( अत सयोगकेवलियो में योग पाया जाता है) ध. १४/५.६.१६/१३/४ सिद्धाणं पि जीवत्तं किण्ण इच्छिज्जदे ण, उबयारस्स सच्चात्ताभावादो। प्रश्न- सिद्धोके भी जीवत्व क्यो नहीं स्वीकार किया जाता है। उत्तर-नहीं, क्योकि सिद्धों में जीवत्व उपचार से है, और उपचारको सत्य मानना ठीक नही है। ससा / १०५ पौकिकममा कृतमिति निविज्ञानयनभ्रष्टाना विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्प स तु उपचार एव न तु परमार्थ पौगलिक कर्म आरा किया है ऐसा निर्मि कल्पविज्ञानचनसे भ्रष्ट विकल्प परायण अज्ञानियोका विकल्प है। वह विकल्प उपचार हो है परमार्थ नहीं । प्रसा./ता वृ २२५ प्रक्षेपक गा. ८/३०४/२५ न उपचार साक्षाद्भवितुमर्हति अग्निवत् क्रूरोऽयं देवदत्त इत्यादि । =उपचार कभी साक्षात् या परमार्थ नहीं होता। जैसे—यह देवदत्त अग्नि] क्रोषी है ऐसा कहना । (इसी प्रकार आर्यिकाओके महाव्रत उपचार से है । सत्य नहीं) म्यादी १/६१४ चक्षुषा प्रमीयत इत्यादि व्यवहारे पुनरुपचार शरणम्। उपचारप्रवृत्तौ तु सहकारित्व निबन्धनम् । न हि सहकारित्वेन तत्साधकमिति करण नाम, साधक विशेषस्यातिशयवत करणत्वात् । - खसे जानते है' इत्यादि व्यवहार तो उपचारसे प्रवृत्त होता है और उपचारको प्रवृत्तिमे सहकारिता निमित्त है। इसलिए इन्द्रयादि प्रमितिक्रिया मात्र साधक है पर साधकतम नहीं। और इसीलिए करण नहीं है, क्योंकि, अतिशयवान् साधक विशेष (असाधारण कारण) ही कारण होता है। २. अन्य धर्मो का लोन करनेवाला उपचार मिष्या सं स्तो, २२ अनेकमेकं च तदेव तत्त्व, भेदान्वयज्ञानमिद हि सत्यम् | मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे तपोऽपि सोऽनुपाय वह युक्तिनीत वस्तु तव अनेक तथा एक रूप है, जो भेदाभेद ज्ञानका विषय है और वह ज्ञान ही सभ्य है। जो लोग इनमें से एकको भी असत्य मानकर दूसरे में उपचारका व्यवहार करते है वह मिथ्या है, क्योकि, दोनोमे-से एकका अभाव माननेपर दूसरेका भी अभाव हो जाता है। और दोनो का अभाव हो जानेपर वस्तुतच्च अनुपाख्य अर्थात् निस्वभाव हो जाता है । ३. उपचार सर्वथा अप्रमाण नहीं है। घ. १/१.१.४/१२/१ नेयमपरकम्पना कार्यकारणोपचारस्य जगत सुप्रसिद्धस्योपलम्भात्यको उपचार इन्द्रिय कहना) कोई अदृष्ट कल्पना नहीं है, क्योंकि, कार्यगत धर्मका कारणमे और कारणगत धर्मका कार्य में उपचार जगत् में प्रसिद्ध रूप से पाया जाता है। स. ५/२६ / २६ लौकिकानामपि घटाकाश पटाकाशमिति व्यवहारप्रसिद्ध राकाशस्य नित्यानित्यत्वम् चायमोपचारिकत्वादप्रमाणमेव । उपचारस्यापि किचित्साधर्म्यद्वारेण मुख्यार्थस्पशित्वात् । - आकाश नित्यानित्य है, क्योंकि सर्व साधारण में भी 'यह घटका आकाश है', 'यह पटका आकाश है यह व्यवहार होता है । यह व्यवहारसे उत्पन्न होता है इसलिए अप्रमाण नही कहा जा सकता, खोकि, उपचार भी किसी न किसी साथ ही मुख्य अर्थको द्योतित करनेवाला होता है। " Jain Education International ४२२ ४ उपचारकी सत्यार्थता न असत्यार्थवा ४. निश्चित व मुख्यके अस्तित्वमें ही उपचार होता है सर्वथा अभावमें नहीं रामा १/१२/१४/६/९५ सति मुख्य तो उपचारो यथा सति सिहे अन्यत्र क्रौर्यशौर्यादिगुण साधर्म्यात् सिहोपचार क्रियते । न च तथेह मुख्य प्रमाणमस्ति । तदभाव व फले प्रमाणोपचारे न युज्यते । = उपचार तब होता है जब मुख्य वस्तु स्वतन्त्र भावसे प्रसिद्ध हो । जैसे सिह अपने सुर गुणों से प्रसिद्ध है तभी उसका सादृश्य से बालकमे उपचार किया जाता है । पर यहाँ जब मुख्य प्रमाण ही प्रसिद्ध नही है तब उसके फलमे उसके उपचारकी कल्पना ही नही हो सकती । ध १/१,१.१६/१८१/४ अक्षपकानुपशमकाना क्थ तद्व्यपदेशश्चेन्न, भाविनि भूतवदुपचारतस्तत्सिद्धं सत्येवमतिप्रसाद स्यादिति चेन्न असति प्रतिबन्धरि मरणे नियमेन चारित्रमोहक्षपकोपशमकारिणां तदुन्मुखानामुपचारभाजामुपलम्भात् । = प्रश्न- इस आठवें गुणस्थानमें न तो कर्मो का क्षय ही होता है और न उपशम ही । ऐसी अवस्थामे यहाँ पर क्षायिक या औपशमिक भावका सद्भाव कैसे हो सकता है ? उत्तर- नही, भावी मे भूतके उपचारसे उसकी सिद्धि हो जाती है। प्रश्न- ऐसा माननेपर तो अतिप्रसग आता है । उनरनहीं, क्योकि प्रतिबन्धक कर्मका उदय अथवा मरण यदि न हो तो वह चारित्रमोहका उपशम या क्षय अवश्य कर लेता है । उपशम या क्षपणके सम्मुख हुए ऐसे व्यक्तिके उपचारसे क्षपक या उपशमक सज्ञा बन जाती है। (१७.१/२०२/२). (४.७/२,१-४६/६३/२) ध ५/१७,६/२०६/४ उवयारे आसइजमाणे अइम्पसगो किण्ण होदीदि । चेण पञ्चासीदो अपगपडिसेहादा । = प्रश्न - इस प्रकार सर्वत्र उपचार करनेपर अतिप्रसग दोष नही प्राप्त होगा ? उपर-नहीं, क्योंकि प्रत्यासति अर्थात् समीपवर्ती अर्थ के प्रसंग अतिप्रसंग दोषका प्रतिषेध हो जाता है (इसलिए पूर्व गु स्थान में ता उपचारसे क्षायिक व औपशमिक भाव कहा जा सकता है पर इससे नीचे के अन्य गुणस्थानों में नही ।) ७/२.१.३६/६/२ चोक्यारे सणावरण सो मुहियस्साभावे उमीदो दर्शन गुणको अमीकार करनेपर) यह भी नही कहा जा सकता कि दर्शनावरणका निर्देश केवल उपचार से किया गया है, क्योकि, मुख्य वस्तुके अभाव मे उपचारकी उपपत्ति नहीं बनती। ५ अविनाभावी सम्बन्धोंमें ही परस्पर उपचार होता है आपा मुख्याभावे सति प्रयोजने निमसे बोपचार प्रयोऽपि - सबन्धाविनाभाव | मुख्यका अभाव होनेपर प्रयोजन या निमित्त के वशसे उपचार किया जाता है और वह प्रयोजन कार्य कारण या निमित्त नैमित्तिकादि भावो मे अविनाभाव सम्बन्ध ही है । ६ उपचार प्रयोगका कारण व प्रयोजन ७/२.१५/१०१/३ घर परिवार सीए चक्खिदिग्रस पत्ती । ण अतर बहिर गत्थावयारेण बालजणबोहण चक्खूण जं दिस्सदि त चवखुद समिदि परूवणादो । गाहाए गलभ जण माऊण उजुवत्थो किण्ण घेप्पदि । ण तस्थ, पुव्वुत्तासेसदोसप्पस गादा प्रश्न - उस चक्षु इन्द्रिय के विषयसे प्रतिबद्ध अतरग (दर्शन) शक्तिमे चक्षु इन्द्रिय प्रवृत्ति के से हो सकती है। उत्तर- नहीं, यथार्थ में पशु इन्द्रियकी अतर गमे ही प्रवृद्धि होती है, किन्तु बालक जनांका ज्ञान करानेके लिए अतर गमे बहिरग पदार्थ के उपचारसे 'चक्षुओ को जो दिखता है वही चक्षु दर्शन है' ऐसा प्ररूपण किया गया है। प्रश्न-गाथाका गला न घोटकर सीधा अर्थ को नहीं करते उत्तर नहीं करते, क्योंकि वैसा करनेमें सो पूर्वोक्त समस्त दोषोका प्रसंग आता है । - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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