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उपदेश
तदभिप्रायं प्रोपाप्रतिपादयन्ति सुधियों सदा शर्मदम् । सदिग्ध पुनरन्तमेत्य विनयात्तृच्छन्त मिच्छावशान्न ० यो द्विजानाति स तत्र शिष्यो यो वा तद्व ेष्टिस तन्न लभ्य । को दोपयेद्धामनिधि हि दोष क पूरयेद्वाम्बुनिधि पयोभि | २०| = मिथ्यात्व से ग्रस्त व्यक्तिको बार-बार भी उपदेश दिया जाये पर उसे तत्त्वका समीचीन ज्ञान नहीं होता। क्या अन्धपाषाण भी किसी उपायसे स्वर्ण हो सकता है | १३ | अव्युत्पन्न श्रोताओके अभिप्रायको जानकर आचार्य करुणा बुद्धिसे उन्हे धर्मके फलका लालच देकर भी कल्याणकारी धर्मका उपदेश दिया करते है। इसी प्रकार जो व्यक्ति सदिग्ध है वे यदि विनयपूर्वक आकर पूछे तो उन्हें भी धर्मका उपदेश विशेष रूपसे देते है । किन्तु जो व्यक्ति व्युत्पन्न है, परन्तु विपरीत व दुष्टबुद्धिके कारण विपरीत तत्त्वोंमें दुराग्रह करते है, उनको धर्मका उपदेश नही करते है | १७| जो जिस विषयको जानता है अथवा जो जिस वस्तुको नहीं चाहता है उसे उस विषय या वस्तुका प्रतिपादन नहीं करना चाहिए। क्योंकि कौन ऐसा है जो सूर्यको दीपक प्रका शित करे अथवा समुद्रको जलसे भरे | २०|
४. कैसे जीवको फैसा उपदेश देना चाहिए
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भ.आ./मू. ६५५,६८६ आवखेवणी य संवेगणी य णिब्वेयणी य खत्रयस्स । पावोग्गा होति कहाण कहा विवखेवणो जोग्गा । ६५५१ भत्ता दोणं भतो गोदत्थे हि विण तत्थ कायव्या । ६८६ आक्षेपणी, विक्षेपणी, सवेदनी और निर्वेदनी, ऐसे कथाके चार भेद है । इन कथाओ में आपणी समेदनी और निदनी कथाएँ क्षपकको सुनाना योग्य है। उसे विक्षेपणी कथाका निरूपण करना हितकर न होगा ।६५५| आगमार्थको जाननेवाले मुनियोंको क्षपके पास भोजन वगैरह कथाओका वर्णन करना योग्य नही | ६|
घ १/१.१.२ / १०६ / ३ एत्थ त्रिक्खेवणी णाम कहा जिणवयणमयाण तस्स कब्बा, अगाहिद ससमय-सम्भावा पर समय सकहाहि वाउलिदचित्तोमा मिच्छत्त गच्छेज्जत्ति तेण तस्स विक्खेवणी मोत्तूण साओ तिणिनि कहाओ कमाओ। तदो गहिदसमयस्स जगदिगिच्छस्स भोगरइरिदस्स एसोसनियमजुरास्स पच्छा विक्वणी कहा कहेयव्वा । एसा अक्हा वि पण्णवयतस्स परुवयतस्स तदा कहा होदि । सम्हा पुरिसतर पप्पसमणेण कहा कहेयव्वा । - इन कथाओंका प्रतिपादन करते समय जो जिन-वचनको नहीं जानता, ऐसे पुरुषको विक्षेपणी कथाका उपदेश नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसने स्वसमय रहस्यको नहीं जाना है, और परसमयको प्रतिपादन करनेवाली कथाओ के सुनने से व्याकुलित चित होकर वह मिथ्यासको स्वीकार न करते, इसलिए उसे विलेपणीको छोडकर शेष तीन कथाओका उपदेश देना चाहिए। उक्त तीन कथाओ द्वारा जिसने स्वसमयको भली-भाँति समझ लिया है, जो जिनशासनमें अनुरत है, जिन वचनमे जिसको किसी प्रकारकी विचि नहीं रही है, जो भोग और रखिसे विरक्त है और जो सप, शील और नियमसे युक्त है, ऐसे पुरुषको ही पादविक्षेपण कथाका उपदेश देना चाहिए। प्ररूपण करके उत्तम रूपसे ज्ञान करानेवाले के लिए यह अकथा भी तब कथारूप हो जाती है। इसलिए योग्य पुरुषोको प्राप्त करके ही साधुओंको उपदेश देना चाहिए। मो.मा.प्र. ४३२/१६ “आपके व्यवहारका आधिक्य होय तौ निश्चय पोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत् प्रयसै अर आपके निका आधिक्य होय तो व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहणकरि यथावत् प्रवर्ते ।"
५. किस अवसरपर कैसा उपदेश करना चाहिए म.पू.१/१३ १३६ आणि स्व विशेषिनी [क] [] कुर्यादुत निग्रहे ॥ १२४॥ संवेदनों का पुण्यफलसंप
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प्रपञ्चने । निर्वेदिनों कथां कुर्याद्वैराग्यजनन प्रति । १३६ । -बुद्धिमान वक्ताको चाहिए कि वह अपने मतको स्थापना करते समय आक्षेपणी क्या कहे. मिथ्यात्वमतका खण्डन करते समय विक्षेपणी कथा कहे, पुण्यके फलस्वरूप विभूति आदिका वर्णन करते समय संवेदिनी कथा कहे तथा वैराग्य उत्पादनके समय निर्वेदिनी कथा कहे ।
४. उपदेश प्रवृत्तिका माहात्म्य
उपधान
१ हितोपदेश सबसे बड़ा जयकार है
रून २/९/२२ न च हितोपदेशादपर पारमार्थिक परार्थ-हितका उपदेश देनेके बराबर दूसरा कोई पारमार्थिक उपकार नही है। २. उपदेश श्रोताका हित हो न हो पर वक्ताका हित
तो होता ही है
सम३/९५/२५ में उद्धृधृत - "उवाच च वाचकमुख्य - "न भवति धर्म श्रोतु सर्वान्तो हिमानी
कान्ततो भवति।" उमास्वामी मायने भी वहा है-सभी उपदेश सुननेवालोको पुण्य नहीं होता है परन्तु अनुग्रह बुद्धिसे हित का उपदेश करनेवालेको निश्चय ही पुण्य होता है। ३. अतः परो रकारार्थ हितोपदेश करना इष्ट है भावि/१९९/२०/६ थेयोर्थिना हि जिनशासनबरसलेन कर्तव्य एव नियमेन हितोपदेश, इत्याज्ञा सर्वविदा सा परिपालिता भवतीति शेषा जनमतपर प्रति रखनेवाले मोसे नियोको नियम से हितोपदेश करना चाहिए ऐसी श्री जिनेश्वरकी आज्ञा है । उसका पालन धर्मोपदेश देनेसे होता है। और भी दे उपकार 8) ४. उपदेशका फल
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भ आ./मू १११ आदपरसमुद्धारो आणा वच्छलदीवणा भत्ती । होदि परदेस गत्ते अच्छित्तिय तित्थस्स । १११ | स्वाध्याय भावनायें आसक्त मुनि परोपदेश देकर आगे लिखे हुए गुणगणीको प्राप्त कर लेते है। - आत्मपर समुद्धार, जिनेश्वरकी आज्ञा का पालन, वात्सल्य प्रभावना, जिन वचनमे भक्ति, तथा तीर्थ की अव्युच्छित्ति । ससि, १/८/३० / ३ सर्वसत्त्वानुग्रहार्थो हि सता प्रयास
सज्जनोंका
प्रयास सब जीवोका उपकार करनेका है । [४] १३/२२.४०/२८१/२ किमर्थं सर्वका व्याख्यायते श्रा असंख्यातगुणश्रेण्या कर्मनिर्जरण हेतुत्वात् । - प्रश्न- इसका (१२चनीयका) सर्व काल किस लिए व्याख्यान करते है ? उत्तर- क्योंकि वह व्याख्याता और श्रोताके असख्यातगुणश्रेणी रूपसे होनेवाली कर्मनिर्जराका कारण है।
५. उपदेशप्राप्तिका प्रयोजन
प्रसा जो मोह रागदो पद जोहमुदे सो दुखमोवखं पावदि अचिरेण कालेन या जो जिनेन्द्रके उपदेशको प्राप्त करके मोह रागद्वेषको हनता है वह अल्पकालमें सर्व दुखोसे मुक्त हो जाता है।
भा पा./पं. जयचन्द १६५ / २७५ / २२ वीतराग उपदेशकी प्राप्ति होय, अर ताका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण करें, तब अपना अर परका भेदज्ञानकरि शुद्ध अशुद्ध भावका स्वरूप जाणि अपना हित अहितका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण होय, तब शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी शुद्ध चेतना परिणाम तो हिल जाने, ताका फल ससार निवृत्ति तार्क जाने र अशुद्ध भावका फल ससार है, ताकं जानै, तब शुद्ध भावका अङ्गीकार अर अशुद्ध भावके त्यागका उपाय करें । उपधातु बौवारिक शरीर में धातु-उपधातुका निर्देश व प्रमाण - दे. औदारिक १
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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उपधानम आ २८२ आय विल णिब्बियडी अण्णं वा होदि जस्स कादव्वं । त तस्स करेमाणो उपहाणजुदो हवदि एसो | २८२ ।
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