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उपकार
उपगृहन
नाम
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निजारमान भज्योत्तम विधेहितम् ।१०। =आभारी बनाने की इच्छा * उपकारक निमित्तकारण-दे, निमित्त १ से रहित होकर जा दया दिखाई जाती है, स्वर्ग और पृथिवो दोनो
* छः द्रव्योंमे परस्पर उपकार्य-उपकारक भाव मिलकर भी उसका बदला नहीं चुका सकते ।११ अवसर पर जो उपकार किया जाता है, वह देखनेमे छोटा भले ही हो, पर जगत् में
-दे. कारण IIIR सबसे भारी है ।२। यदि परोपकार करनेके फलस्वरूप सर्वनाश * उपकार्य उपकारक सम्बन्ध निर्देश-दे. सम्बन्ध उपस्थित हो तो दासत्वमें फसनेके लिए आत्म विक्रय करके भी उपक्रमउसको सम्पादन करना उचित है।
ध १/१.१.१/७२/५ उपक्रम इत्यर्थ मारमन उप समीय क्राम्यति करोतीभ आ /मू. ४८३/७०४ आदट्ठमेव चितेदुमुट्ठिदा जे परमवि लोए । कडय
त्युपक्रम । जो अर्थको अपने समीप करता है उसे उपक्रम कहते फुरुमेहि साहेति ते हु अदिदुलहा लोए 1४८३१ = जो पुरुष आत्महित
है। (घ१/४.१,४५(१३४/१०), (क. पा १/१,१/४/१३/४) करने के लिए कटिबद्ध होकर आत्महित के साथ कट और कठोर वचन
म पु.२/१०३ प्रकृतार्थतत्त्वस्य श्रोतृबुद्धौ समर्पणम् । उपक्रमोऽसौ विज्ञेयतक सहकर परहित भी साधते है, वे जगत्में अतिशय दुर्लभ सम
स्तथोपोद्धात इत्यपि १०= प्रकृत-पदार्थको श्रोताओकी बुद्धिमें झने चाहिए।
बैठा देना उपक्रम है । इसका दूसरा नाम उपोद्धात भी है। म पु ३८/१६६-१७१ श्राव कानायिकासड़ध श्राविका संयतानपि । सन्मार्गे वर्तयन्न ष गणपोषणमाचरेत् ।१६। श्रुतार्थिभ्य' श्रुतं दद्याद्
२ उपक्रमके भेद दीक्षार्थिभ्यश्च दीक्षणम् । धर्मार्थिभ्योऽपि सद्धर्म स शश्वत प्रतिपाद
ध-१/१,१,१/पृ. प.
उपक्रम येत । १७०। सद्वृत्तान् धारयन सूरिरसद्वृत्तान्निवारयन् । शोधयश्च
७२/६ कृतादागोमलात स बिभृयाद् गणम् १७१३ -इस आचार्यको चाहिए कि वह मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओको समीचीन मार्ग- आनुपूर्वी
प्रमाण वक्तव्यता अर्थाधिकार में लगाता हुआ अच्छी तरह सघका पोषण करे ।१६४) उसे यह भी
१.नाम -
२/११ । चाहिए कि वह शाखाध्ययनकी इच्छा करने वाले को शास्त्र पढावे
२. स्थापनातथा दीक्षार्थियोको दीक्षा देवे और धर्माथियोके लिए धर्म का प्रति- पूर्व पश्चात् यथातथ६३ द्रव्य -
प्रमाण प्रमेय तदुभय पादन करे 1१७०। वह आचार्य सदाचार धारण करनेवालोको प्रेरित करे और दुराचारियों को दूर हटावे । और क्येि हुए स्वकीय अप- १. गोण्यपद
५. काल - राधरूपी मलको शोधता हुआ अपने आश्रितगण की रक्षा करे।१७१२.नोगौण्यपद -
स्व- पर- तदुभय ३. आदानपद -
६. भाव - भ आ/वि ३५७/५६९/१८ किन्न वेत्ति स्वयमपि इति नोपेक्षितव्यम् । परो
समय समय पकार कार्य एवेति कथयति । तथाहि-तीर्थ कृत विनेयजनसबो- ४. प्रतिपक्षपद धनार्थ एव तीर्थ विहारं कुर्वन्ति । महत्ता नामैव यत्-परोपकार- ५ अनादि सि-द्रव्य क्षेत्र काल भाव बद्धपरिकरता । तथा चोक्त -"क्षुद्रा सन्ति सहस्रश स्वभरणव्यापार- धान्तपद - ८०/२ मात्रोद्यता. स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेक सतामग्रणी॥ ६.प्राधान्यपद -1 दुष्पूरोदरपुरणाय पिबति स्रोत्र पति बाडवो जीमूतस्तु निदाघसंभृत- ७.नाम-पद -आभि- श्रुत अवधि मन- केवल जगत्सतापविच्छित्तिये।" - 'क्या दूसरा मनुष्य अपना हित स्वय ८ प्रमाणपद -निबोधिक ज्ञान पर्यय ज्ञान नहीं जानता है ।' ऐसा विचार करके दूसरोकी उपेक्षा नहीं करनी ६. अवयवपद --ज्ञान
ज्ञान चाहिए । परोपकार करनेका कार्य करना ही चाहिए । देखो तीर्थकर १०.संयोगपद - ८२/११ परमदेव भव्य जनोंको उपदेश देनेके लिए ही तीर्थ विहार करते है। परोपकारके कार्य में कमर-कसना यही बडप्पन है । कहा भी है
नैगम सग्रह व्यवहार । शब्द समभि- एवं"जगत में अपना कार्य करने में ही तत्पर रहनेवाले मनुष्य हजारो है,
रूढ भूत परन्तु परोपकार ही जिसका स्वार्थ है. ऐसा सत्पुरुषों में अग्रणी
ऋजुसूत्र पुरुष एकाध ही है । बड़वानल अपना दुर्भर पेट भरने के लिए समुद्र- ३ प्रक्रमका लक्षण का सदा पान करता है, क्योकि वह क्षुद मनुष्य के समान स्वार्थी है। ध १५/१६/३ प्रकामतीति प्रक्रम कार्माण पुद्गलप्रचयः। 'प्रक्रामकिन्तु मेघ ग्रीष्मकालकी उष्णतासे पीडित समस्त प्राणियोका स ताप तीति प्रक्रम' इस निरुक्तिके अनुसार कार्माण पुद्गल प्रचयको प्रक्रम मिटाने के लिए समुद्रका पान करता है। मेघ परोपकारी है और कहा गया है। बडवानल स्वार्थी है।
४ उपक्रम व प्रक्रममें अन्तर अन, घ. १/११/३५ पर उद्धृत "स्वदुः खनिघृणारम्भा परदु खेषु
ध. १५/४२/४ पक्कम उबक्कमाण को भेदो। पयडिटिदि-अणुभागेभु दखिता। नियंपेक्ष परार्थेषु बद्ध कक्षा मुमुक्षव ॥" - मुमुक्षु पुरुष
ढक्कमाणपदेसग्गपरूवण पक्कमो कुण इ, उवक्कमो पुण बविदियअपने दुखोको दूर करनेके लिए अधिक प्रयत्न नहीं करते, किन्तु
समयप्पहुडि सतसरूवेण हिदकम्मपोग्गलाण वावार परूवेदि । तेण दूसरोके दुखोको देखकर अधिक दुखी होते है। और इसलिए वे
अस्थि विसेसो । प्रश्न-प्रक्रम और उपक्रम में क्या भेद है । उत्तर-- किसी भी प्रकारको अपेक्षा न रखकर परोपकार करने में दृढताके साथ
प्रक्रम अनुयोगद्वार प्रकृति स्थिति और अनुभागमे आनेवाले सदा तत्पर रहते है।
प्रदेशाग्रकी प्ररूपणा करता है; परन्तु उपक्रम अनुयोगद्वार बन्धके १० अन्य सम्बन्धित विषय
द्वितीय समयसे लेकर सत्त्वरूपसे स्थिति कर्म-पुद्गलोके व्यापारकी
प्ररूपणा करता है । इसलिये इन दोनोमें विशेषता है। * स्वोपकार व परोपकारका समन्वय-दे उपकार /
उपगहन-१.व्यवहार लक्षण * उपकारार्थ धर्मोपदेशका विधि निषेध-दे उपदेश
मू. आ २६१ दंसणचरणविवण्णे जीवे दट्ठूण धम्मभत्तीए । उपग्रहण * उपकारकी अपेक्षा द्रव्यमे भेदाभेद-दे. सप्तभगी ५ करतो सणसुद्धो हव दि एसो।२६१ = सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमें
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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