Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 432
________________ उपगूहन लानि सहित को देखकर धर्मकी भक्ति कर उनके दोषोको दूर करता है. यह शुद्ध दर्शनलाहोता है। र कथा १५ “स्वय शुद्धस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यता यत्प्रमाजन्ति तद्वदन्त्युपगूहनम् ॥१५॥ जो अपने आप ही पवित्र ऐसे जैनधर्मको अज्ञानी तथा असमर्थ जनो से उत्पन्न हुई निन्दाको दूर करते है, उसको उपगूहन अग कहते है (द्र. संटी ४१/१ उपबृहण ण पुसि उ २७ परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपवृ हणगुणार्थम् गुण अर्थ अन्य पुरुषो के दोषोको भी गुप्त रखना कर्तव्य है । का अ/४ को परोक्ष गोवधि कि जो खोए भबियन भावगरओ ग्रहणकारी सो हु जो सम्यग्दृष्टि दूसरो के दोषोको ढांकता है, और अपने सुकृतको लोकमें प्रकाशित नही करता, तथा भवितव्यकी भावनामे रत रहता है। उसे उपग्रहणगुणका धारी कहते है । २ निश्चय लक्षण ससा / मू. २३३ जो सिद्वभत्तिजुत्तो उपग्रहणगोदु सव्वधम्माणं । सो गूणकारी सम्मादिट्ठी मुणेव्वो । २३३ | जो चेतयिता सिद्धो की शुद्धात्मा की भक्ति से युक्त हैं और पर वस्तुओंके सर्वधर्मोको गोपन करनेवाला है (अर्थात् रागादि भावोमे युक्त नही होता है) उसको उपगूहन करनेवाला सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये । ससा / ता वृ २३३ शुद्धात्मभावनारूपपारमार्थिक सिद्धभक्तियुक्त मिथ्यात्वरागादिविभावधर्माणामुपगूहक प्रच्छादको विनाशक । स सम्यग्दृष्टि उपगूहह्नकारो मन्तव्य । =उपगूहनका अर्थ छिपानेका है । निश्चनको प्रधानकरि ऐसा कहा है कि जो सिद्धभक्ति में अपना उपयोग लगाया तब अन्य धर्म पर दृष्टि हो न रही, तब सभी धर्म छिप गये। इस प्रकार शुद्धात्माको भावनारूप पारमार्थिक सिद्धर्भात से युफ होकर मिव्यास रागादि विभानधर्मो का उपगूहन करता है, प्रच्छादन करता है, विनाश करता है उस सम्यग्दृष्टिको उपगूहनकारी जानना चाहिए। प्र स |टो ४२/१०२/१० विनयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारोपग्रहगुणस्य सहकारित्वेन निजनिरञ्जन निर्दोषपरमात्मनामध्यात्वरागादिदोषास्तेषा तस्मिन्नेव परमात्मनि सम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूप यद्धयान तेन प्रच्छादन विनाशनं गोपनं झम्पन तदेवोपगूहनमिति । = निश्चयनयसे व्यवहार उपग्रहण- गुणकी सहायतासे, अपने निरञ्जन निर्दोष परमात्मा को ढकनेवाले रागादि दोषोको, उसी परमात्मामें सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप ध्यानके द्वारा ढकना, नाश करना, छिपाना, झम्पन करना, सो उपगूहन- गुण है। २ उपबृंहण का लक्षण रा. या ६/२४/१/५२१/१२ उत्तमक्षनादिभावनया आत्मनो धर्मपरिबृद्धिकरणमुपयृणस् ।उत्तममादि भावनाओके द्वारा आत्मा के धर्म की वृद्धि करना उपण गुण है ( सिउ २० ) ४१७ भ, आ / वि ४५ / ९४६/१० उपबृंहणं णाम वर्द्धन । बृह बृहि वृद्धाविति वचनात् । धावनुवादी चोपसर्ग उप इति । स्पष्टेनाग्राम्येण श्रोत्रमन प्रोतिदायिना वस्तुयाचारप्रकाशन धर्मोपदेशेन परस्य तत्त्वश्रद्वानवर्द्धन उपबृहत सर्वजनविस्मयकारिणी शतमुखत्रस्वगोर्यासमितिविरचितोपचितसदृशी संपाय दुर्धरतपोयोगानुष्ठानेन वा आत्मनि अद्वास्थिरीकरण उपबृंहण, इसका अर्थ बढाना ऐसा होता है । 'बृह बृहि वृद्धी' इस धातुसे बृहण शब्द की उत्पत्ति होती है । 'उप' इस उपसर्गके योग से 'बृह' धातुका अर्थ बदला नही है । स्पष्ट अग्राम्य, कान और मनको प्रसन्न करनेवाले, वस्तुकी यथार्थताको भव्योके आगे दर्पण के समान दिखाने वाले ऐसे धर्मोपदेशके द्वारा तत्त्व श्रद्धान बढ़ाना वह उपबृहत्र है। इन्द्र प्रमुख देवोंके द्वारा जैसी महत्वयुक्त पूजा की " २७ Jain Education International उपघात जाती है, वैसी जिनपूजा करके अपनेको जिनधर्म में, जिनभक्ति में स्थिर करना; अथवा दुर्धर तपश्चरण वा आतापनादि योग धारण करके अपने आत्मा में श्रद्धा गुण उत्पन्न करना इसको भी उपबृंहण कहते है 1 ससा / २३२ यतो हि सम्यष्टि कोरीवकामयायेन समस्तात्मशक्तीनामुपबृंहणादुब हक ततोऽस्य जीवशक्तिदौर्भव्यकृतो नास्ति बन्ध किंतु निर्जरैव । क्योंकि, सम्यग्दृष्टि टंको कीर्ण एक ज्ञायकभावमयता के कारण समस्त आत्मशक्तियो की वृद्धि। करता है, इसलिए उपबृ हक है। इसलिए उस जीवकी शक्तिकी दुर्बलता होनेवाला बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है। पंध / उ ७७८ आत्मशुद्ध रदौर्बल्यकरणं चोप हणम् । अर्थादग्टज्ञप्तिचारित्रभावादस्खलित हि तब 1७७८ - आत्माकी शुद्धि में कभी दुर्बलता न आने देना ही उपबृहण अग कहलाता है। अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र रूप अपने भावोसे जो च्युत नहीं होता है। वहीं उप गुण कहलाता है। उपग्रह रा. वा /५/१७/३/४६०/२५ द्रव्याणा शक्तचन्तराविर्भावे कारणभावोऽ नुग्रह उपग्रह इत्याख्यायते । द्रव्यकी शक्तिका आविर्भाव करने में कारण होना रूप अनुग्रह कहा जाता है। उपग्रह व्यभिचार 111//८ T उपघातससि ६/१०/३२०/१३ प्रशस्तपणसुप्रभात । आसादनमेवेति चैव सहास्य विनयप्रदानादिगुणकीर्तनानठानमासादनम् । उपघातस्तु ज्ञानमज्ञानमेवेति ज्ञाननाशाभिप्राय | इत्यनयोरयं भेद । प्रशसनीय ज्ञानमें दूषण लगाना उपघात है । प्रश्न- उपघातका जो लक्षण किया है उससे वह आसादन हो ज्ञात होता है ? उत्तर - प्रशस्त ज्ञानकी विनय न करना, उसकी अच्छाई की प्रशंसा न करना आदि आसादन है । परन्तु ज्ञानको अज्ञान समझकर ज्ञानके नाशका इरादा रखना उपघात है इस प्रकार दोनो में अन्तर है । (रा. वा ६ / १० / ७ / ५१७/२३) । रावा. ६/१०/६/१०/२१ स्वमते भावादयुतस्याप्ययुक्ती दोषोभावना इति विज्ञायते हृदयको ताके कारण अपनी बुद्धिमे युक्तकी भी अयुक्तवत् प्रतीति होनेपर, दोषोको प्रगट करके उत्तम ज्ञानको दूषण लगाना उपघात 1 गो, क / जी, प्र ८०० / १७६/८ मनसा वाचा वा प्रशस्तज्ञान दूषणमध्ये तृषु क्षुद्रबाधाकरणं वा उपघात. । = मनकरि वा वचनकरि प्रशस्तज्ञानका दोषी होना, वा अभ्यासक जीवनिको क्षुधादिक बाधाका करना सो उपघात कहिए । २. उपघात नाम कर्मका लक्षण स. सि. ८/११/३६१ / ३ यस्योदयात्स्वयकृतो इन्धनमेरुप्रपतनादिनिमित्त उपघातो भवति तदुपधातनाम । • जिसके निमित्तसे स्वयंकृत उद्बन्धन और पहाड़ से गिरना आदि निमित्तक उपघात होता है वह उपघात नामकर्म हैं । ( रा वा ८/११/१३/५७८/१) । 1 ध ६/१,६,१,२८/५६/१ उपेत्य घात उपघात आत्मघात इत्यर्थ । ज कम्म जीव पीडाहेउ अवयवे कुर्णाद, जीवपीड हेवुदव्वाणि वा विसासिपासादीणि जीवस्स ढाएदि त उवघाद णाम । के जीवपीडा कार्यवयवा इति चेन्महाशुङ्ग लम्बस्तन-तुदोदरादय । जदि उवषादनामक जीवस्स हो तो सरीरादाबाद- पित्त सेभवसिदा जीवस्स पीडा ण होज्ज । ण च एवं अणुवल भादो । स्वयं प्राप्त होनेवाले घातको उपघात अर्थात् आत्मघात कहते है । जो कर्म अवयवोको जीवकी पीडाका कारण बना देता है, अथवा विष, शुग, खड्ग, पाश आदि जीव पीडाके कारण स्वरूप द्रव्योंको जीवके लिए ढोता है, अर्थात लाकर संयुक्त करता है, वह उपघात नामकर्म कहलाता है। प्रश्न- जीवको पीड़ा करनेवाले अवयव कौन-कौन है 1 A जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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