Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 430
________________ उपकार उपकार २ स्वव पर उपकार (और भी दे आगे नं.३) स, सि.७/३८/३७२/१३ स्वपरापकारऽनुग्रह ।. स्वोपकार पुण्यसचय परोपकार सम्यग्ज्ञानादिवृद्धि । -स्वयं अपना अथवा दूसरेका उपकार करना अनुग्रह है । दान देनेसे जो पुण्यका संचय होता है वह अपना उपकार है (क्योकि उसका फल भोग स्वयं को प्राप्त होता है ), तथा जिन्हे दान दिया जाता है उनके सम्यग्ज्ञानादिकी वृद्धि होती है, यह परका उपकार है, (क्योकि इसका फल दूसरेको प्राप्त होता है । (रा. वा ७/३८/१/५५६/१५)। ३ उपकार व कर्तृत्वमे अन्तर रा वा १/१७/१६/४६२/५ स्यादेतत-गतिस्थित्यो धर्मा-धर्मों कर्तारौ इत्ययमर्थप्रसक्त इति तन्न कि कारणम् । उपकारवचनात् । उपकारी बलाधानम् अवलम्बन मित्यनर्थान्तरम् । तेन धर्माधर्मयो गतिस्थितिनितिने प्रधानक्र्तृत्वमपोदितं भवति । यया अन्धस्येतरस्य वा स्वजडवाबलाद्वगच्छत यष्टयाद्य पकारक भवति न तु प्रेरक तथा जीवपुद्गलाना स्वशक्त्यैव गच्छता तिष्ठता च धर्माधर्मी उपकारको न प्रेरकौ इत्युक्त भवति । प्रश्न---धर्म और अधर्म द्रव्योको गति स्थितिका उपकारक कहनेसे उनको गति स्थिति करानेका कर्तापना प्राप्त हो जाएगा । उत्तर---ऐसा नही है ,क्यो कि, 'उपकार' शब्द दिया गया है । उपकार, बलाधान व अबलम्बन इन शब्दोका एक ही अर्थ होता है अत. इसके द्वारा धर्म और अधर्म द्रव्योंका गति स्थिति उत्पन्न करने में प्रधान कर्तापनेका निषेध कर दिया गया। जैसे कि स्वय अपने ज घाअल से चलनेवाले अन्धेके लिए लाठी उपकारक है प्रेरक नहीं, उसी प्रकार अपनी अपनी शक्तिसे चलने अथवा ठहरने वाले जीव व पुहगलद्रव्योको धर्म और अधर्म उपकारक है प्रेरक नहीं। ४ उपकार करके बदला चाहना योग्य नहीं कुरल २२/१ नोपकारपरा सन्त प्रतिदान जिघृक्षया। समृद्ध किमसौ लोको मेधाय प्रतियच्छति ।१३ -महापुरुष जो उपकार करते है, उसका बदला नहीं चाहते। भला ससार जल-बरसानेवाले बादलोंका बदला किस प्रकार चुका सकता है। ५ शरीरका उपकार अपना अपकार है और इसका अपकार अपना उपकार है। इ उ १६ यज्जोवस्योपकाराय तत्देहस्यापकारकम् । यदेहस्योपकराय तज्जोबस्यापकारकम् ।१६।-जो तपादिक आचरण जीवका उपकारक है वह शरीरका अपकारक है । और जो धनादिक शरीरके उपकारक है वे जीवके अपकारक है। अन.ध.४/१४१--१४२/४५७ योगाय कायमनुपालयतोऽपि युक्त्या, क्लेश्यो ममत्वहतये तव सोऽपि शक्त्या। भिक्षोऽन्यथाक्षसुखजीवीतरन्धलाभात तृष्णासरिद्विधुरयिष्यति सत्तपोऽद्रिम् ॥१४१नै ग्रन्थ्यवतमास्थितोपि वपुषि स्निह्यन्नसह्यव्यथा, भीरु वितवित्तलालसतया पञ्चत्वचेक्रोसितम्। याञ्चादै न्यमुपेत्य विश्व महिता न्यक कृत्य देवों प्रपा, निर्मानो धनिनिष्ण्य सघटनयास्पृश्या विधत्ते गिरम् ।१४२॥ . हे चारित्रमात्रगात्र भिक्षो । योगसिद्धि के लिए पालते हुए भी इस शरीरको. युक्तिके साथ--शक्तिको न छिपाकर ममत्व बुद्धि दूर करने के लिए क्लेश देकर कृश कर देना चाहिए। अन्यथा यह निश्चित जानकि यह तृष्णारूपी नदी, ऐन्द्रिय-सुख और जीवन स्वरूप दो छिद्रोंको पाकर समीचीन तपरूपी पर्वतको जर्जरित कर डालेगी ।१४११ नै ग्रन्थ्य व्रतको भी प्राप्त करके भी जो साधु शरीरके विषयमें स्नेह करता है, वह अवश्य ही सदा असह्य दुरवोसे भयभीत रहता है। और इसीलिए वह जीवन व धनमे तीव्र लालसा रखकर याचनाजनित दीनताको प्राप्त कर, अत्यन्त प्रभाव युक्त देवी लज्जाका अभिभव करके, अपनी जगपूज्य वाणीको अन्त्यजनोके समान, दयादाक्षिण्यादिसे रहित धनियोसे सम्पर्क क्रावर अस्पृश्य बना देता है ।१४२। ६ निश्चयसे कोई किसीका उपकार या अपकार नहीं कर सकता स सा /पू २६६ दुविखदसु हिदे जोवे करेमि वधेमि तह विमोचेमि । जा एसा मूढमई णिरत्थया साहु दे मिच्छा ।२६६। - हे भाई । मै जीवोंको दुखी-सुखी करता हूँ, बॉधता हूँ तथा छडाता हूँ, ऐसी जो तेरी यह मूढमति है वह निरर्थक होनेसे वास्तबमे मिथ्या है। यो सा /अ ५/१० निग्रहानुग्रहो क्तु कोऽपि शक्तोऽस्ति नात्मन । रोषतोषौ न कुत्रापि तव्याविति तात्त्विकै । = इस आत्माका निग्रह या अनुग्रह करनेमे कोई भी समर्थ नहीं है, अतः किसीसे भी राग या द्वेष नहीं करना चाहिए। ७ स्वोपकारके सामने परोपकारका निषेध मो पा/पू/१६ परदव्वादो दुग्गई सहव्वादोह सगई हवा सदवे कुणह रई बिरइ इयरम्मि ।१६ - परद्रव्यसे दुर्गति और स्वद्रव्यसे सुगति होती है, ऐसा जानकर स्व द्रव्यमें रति करनी चाहिए और परद्रव्यसे विरत रहना चाहिए। इ. उ. ३२ परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव । उपकुर्वन्परस्यानो दृश्यमानस्य लोक्वत् ।३२। -हे आत्मन 'तू लोक्के समान मुद बनकर दृश्यमान शरीरादि पर पदार्थाका उपकार कर रहा है,यह सब तेरा अज्ञान है। अब तू परके उपकारकी इच्छा न कर, अपने ही उपकार में लीन हो। म. पु. ३८/१७६ नि सङ्गवृत्तिरे काकी विहरन स महातप । चिकीर्ष रात्मसस्कार नान्य सस्कमहति ।१७६। -- जिसकी वृत्ति समस्त परिग्रहसे रहित है, जो अकेला ही विहार करता है, महातपस्वी है, जो केवल अपने आत्माका ही सस्कार करना चाहता है, उसे क्सिी अन्य पदार्थका संस्कार नही करना चाहिए, अर्थात अपने आत्माको छोडकर किसी अन्य साधु या गृहस्थके सुधार की चिन्तामें नहीं पड़ना चाहिए। ८ परोपकार व स्वोपकारमें स्वोपकार प्रधान है भ आ./वि १५४/३५१ में उद्धृत "अप्पहिय काय जह सतह पर किया च कायव्य । अप्पयिपरहियादो अप्पहिद सुट कादब्वं ।" - अपना हित करना चाहिए। शक्य हो तो परका भी हित करना चाहिए, परन्तु आत्महित और परहित इन दोनोमे-से कौन-सा मुख्यतया करना चाहिए ऐसा प्रश्न उपस्थित होनेपर अवश्य ही उत्तम प्रकारसे आत्महित करना चाहिए। (अन ध. १/१२/३५ में उद्धृत), (पंध/उ ८०४ में उद्धृत) प.ध./3 ८०४,८०६ धर्मादेशोपदेशाभ्या तव्योऽनुग्रह परे। नाम व्रत विहायस्तु तत्पर पररक्षणे ८०४) तद्विधाथ च वात्सत्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधान स्वात्मसम्बन्धि गुणो यावश्परात्मनि 1८.। -धर्मके आदेश और उपदेशके द्वारा ही दूसरे जीवोपर अनुग्रह करना चाहिए। किन्तु अपने व्रतोको छोडकर दुसरे जीवोकी रक्षा करने में तत्पर नही होना चाहिए।८०४। तथा वह वात्सल्य अग भी स्व व परके विषय के भेदसे दो प्रकारका है। उनमें से अपनी आत्मासे सम्बन्ध रखनेवाला वात्सल्य प्रधान है तथा सम्पूर्ण पर आत्माओसे सम्बन्ध रखनेवाता जो वात्सल्य है वह गौण है।८८ह। (ला सं. ४/३०५) परोपकारको कथंचित् प्रधानता कुरल ११/१,२/२२/१० या दया क्रियते भरी रामारस्थापन बिना। रबर्यमावुभौ तस्या प्रतिपादनाय नक्षमौ। शिष्टैरवसर वीक्ष्य यानुकम्पा विधीयते । स्वल्पापि दर्शने किन्तु विश्वस्मात सा गरीयसी।। उपकारो विनाशेन सहितोऽपि प्रशस्यते। विक्रोयापि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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