Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 363
________________ . इत्थं ३४८ ईपिथकर्म समग क्रमांक चयिता ई सन् । रचयिता 1 HREE REPEATE है । इत्वरी अर्थात अभिसारिका । इनमें भी जो अत्यन्त अचरट प्रन्थ विषय होती है वह इत्वरिका कहलाती है, यहाँ कुत्सित अर्थ में 'क' प्रत्यय होकर इत्वरिका शब्द बना है । (रा बा ७/२८/२/२५/५५४) ६१४ क्रिया काष १७२७ प.किशनचद गृहस्थोचित क्रियाये । हि. इत्सिग-मि विप्र २१५ महेन्द्रकुमार "चीनी यात्री था। ६५ प्रमाणप्रमेय १७३०-३३ | नरेन्द्रसेन न्याय ई ६७१-६६५ तक भारतकी यात्रा की।" समय-ई श.७ । कालिका ६१६ क्रियाकोष १७३८ प.दौलतराम गृहस्थोचित इला-१ हिमवान् पर्वतका एक कूट व तन्निवासिनी देवी-दे लोक/४ क्रियायें २ रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी --दे लोक ॥१३॥ ६१७ श्रीपाल चारित्र १७२०-७२ यथानाम इलावर्धन-दुर्ग देशका एक नगर - दे मनुष्य ४।। ६१६ गोमट्टसार टीका १७३६-४० टोडरमल कर्म सिद्धान्त इलावृत वर्ष-ज. प /११९/A N. Up . H_L Jain) ६१४ लब्धिसार टो । पुराणोके अनुसार इलावृत चतुरस्र है। इधर वर्तमान भूगोलके अनुसार ६२० क्षपण सार टीका पामीर प्रदेशका मान १५०४ १५० मोल है । अत चतुरस हानेके ६२१ गामसार पूजा, १७३६ यथानाम कारण यह 'पामीर' हो इलावृत है। ६२२/ अर्थ सदृष्टि१७४०-६७ गो सा गणित ६२३ रहस्यपूर्ण चिट्ठी १७५३ अध्यात्म इषुगति-दे, विग्रह गति २ ६२४ सम्यग्ज्ञान (१७६१) इष्ट-पदार्थ की इष्टतानिष्टता रागके कारणसे है वास्तव में कोई भी | चन्द्रिका पदार्थ इष्टानिष्ट नही--दे राग २ ६२५ मोक्षमार्ग प्रका. (१७६७) इष्टवियोगज आर्तध्यान-दे आर्तध्यान १। ६२६ परमानन्द विलास १७५५-६७ 'पं देवीदयाल परसरात ६२७' दर्शन कथा १७५६ भारामल यथानाम इष्टोपदेश-आ पूज्यपाद (ई श५) द्वारा रचित यह ग्रन्थ ५१ ६२८ दान कथा श्लोको में आध्यात्मिक उपदेश देता है। इस पर पं. आशाधर कृत ६२६ निशिकथा (ई ११७३) सस्कृत टीका है (तो २/२२६), (जै २/१९८) । ६३० शोल कथा इष्वाकार-१ (ज प./प्र.१०५ Arc), २ धातकीखण्ड व ६३१/ छह ढाला १७६८-१८६६पं दौलतराम तत्त्वार्थ पु०क्रार्ध इन दोनो द्वीपोंकी उत्तर व दक्षिण दिशाओ मे एक-एक पर्वत स्थित है। इस प्रकार चार इष्वाकार पर्वत है जो उन-उन द्वीपो १९ ईसवी शताब्दी १९ :-- को आधे-आधे भागोमे विभाजित करते है। (विशेष--दे लोक ४/२) ६३२/वृन्दावन विलास १८०३-१८०८, वृन्दावन । पद संग्रह ६३३) छन्द शतक ६३४ अर्हत्पासा भाग्य निर्धारिणी | केवली ६३५ चौबीसी पूजा यथानाम ६३६ समयसार वच | १८०७ जयचन्द ६३७ अष्टपाहूडा , १८१० छाबडा ६३८ सर्वार्थ सिद्धि,. | १८०४ तभीत-संकट व भय । सात ईति व सात भय है।-2 बृहत् जैन ६३६ कार्तिकेया.,, शब्दार्णव द्वितीय खड। ६४० द्रव्यसंग्रह " | १८०६ ६४१ ज्ञानार्णव , १८१२ | इयो-स. सि. ६/४/३२१/१ ईरणमीर्या योगो गतिरित्यर्थः । - ई६४२ आप्तमीमांसा, १८२६ . को व्युत्पत्ति ईरणं होगी। इसका अर्थ गति है। (रा बा 412141 ६४३, भक्तामर कथा ५०८/१७) ध ३/५.४.२४/४७,१०ईर्या योग ।-ईका अर्थ योग है। ६४४ तत्त्वार्थ बोध 1१८१४ प. बुधजन | तत्त्वार्थ , ईर्यापथकर्म-जिन कर्मों का आस्रव होता है पर बन्ध नहीं होता ६४६ सतसई अध्यात्मपद उन्हे ईपिथकर्म कहते है। आनेके अगले क्षण में ही बिना फल दिये ६४६ बुधजन विलास | १८३६ वे झड जाते है। अत इनमें एक समय मात्रकी स्थिति होती है ६४ सप्तव्यसन चारित्र १८५०-१८४० मनर ग लाल यथानाम अधिक नहीं। मोहका सर्वथा उपशम अथवा क्षय हो जाने पर ही ऐसे ६४८ सप्तर्षि पूजा कर्म आया करते है। १०वे गुणस्थान तक जबतक मोहका किचित भी ६४६ सम्मेदाचल सद्भाव है तबतक ईपिथकर्म सम्भव नहीं, क्योकि क्षायके सद्भाव मे । माहात्म्य स्थिति बन्धनेका नियम है। ६५० चौबीसी पूजा १. ईर्यापथकर्मका लक्षण ६५१ महावीराष्टक । प, भागचन्द स्तोत्र प. व १३/४/सू २४/४७ त छदुमत्यवीयरायाणं सजोगिकेवलोण' या इत्थं-दे संस्थान। त सव्वमोरियान हकम्म णाम ।२४। वह छद्मस्थ वीतरागोके और सयोगि केवलियो के होता है, वह सब ईपिथकर्म है। इत्वारका-स सि ७/२८/३६७/१३ परपुरुषानेति गच्छतीत्येवं. स.सू ६/४ सकषायाकषाययो साम्परायिकेपिथयो ।४षायसहित शीला इत्वरी। कुत्सिता इखरी कुत्साया क इत्वरिका । जिसका और कषाय रहित आत्माका योग क्रमसे साम्परायिक और ईर्यापथ स्वभाव अन्य पुरुषोके पास जाना आना है वह (स्त्री) इस्वरी कहलाती कर्म के आस्रव रूप है। १८०६ १८१३ १८२२ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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