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उदयकाल
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१. सदीरणाका लक्षण व निर्देश
विवेकोऽयं श्रेयानत्रादितो यथा। वैकृतो मोहजो भाव शेष सर्वोऽपि लौकिक ।१०२५। इसी न्यायसे मोहादिक घातिया कर्मोके उदयसे तथा अघातिया कर्मों के उदयसे आत्मामें जितने भी भाव होते हैं, उतने वे सब औदयिक भाव हैं।०२४। परन्तु इन भावोंमें भी यह भेद है कि केवल मोहजन्य वैकृति भाव ही सच्चा विकारयुक्त भाव है और बाकी के सब लोकरूढिसे विकारयुक्त औदयिक भाव है ऐसा समझना चाहिए ।१०२५॥ उदयकाल-दे काल १। उदयदेव-(जीवन्धर चरित्र प्र.८/A.N.UP) आप ई.७७०-८६० के एक दिगम्बर आचार्य थे। वादीभसिह आपकी उपाधि थी-दे. वादीभसिंह । (ती.३/२५) उदयनाचार्य-किरणावलीके रचयिता नैयायिक भाष्यकार।
समय-ई १८४ (तो २/३५१); (विशेष दे न्याय १/७)। उदय पर्वत-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे.विद्याधर। उदयसेन-१ लाडबागड संघकी गुर्वावली के अनुसार (दे. इतिहास ७/१०) आप गुणसेन प्रथमके शिष्य तथा नरेन्द्रसेनके सधर्मा थे। समय-वि १९५५ (ई. १०६८) २. उपरोक्त ही संघकी गुर्वावलीमें नरेन्द्रसेनाचार्य के शिष्य । समय–वि. ११८० (ई ११२३/A.N.Up) (सिद्धान्तसार संग्रहको प्रशस्ति १२/८८-६५), (आ. जयसेन कृत धर्मरत्नाकर ग्रन्थकी प्रशस्ति१), (सिद्धान्तसार संग्रह/प्र.८/AN.Up (दे इतिहास ७/१०) उदया-भारतीय इतिहास १/५०१) शिशु नागवंशका एक राजा। उदयादित्य-१.भोजवंशी राजा जयसिंहके पुत्र,नरवकि पिता, मालवा देशके राजा । समय-वि.१११५-११५० (ई १०५८-१०९३) । (दे इतिहास २१)। २. उदयादित्याल कारके रचयिता एक कन्नड कवि । समय-ई. ११५० । (ती. ४/३११) । उदयाभावी क्षय-दे, क्षय । उदयावली-दे आवलो। उदराग्नि प्रशमन वृत्ति-दे भिक्षा १/७ । उदासीन निमित्त-लक्षण-दे निमित्त १. इसकी कथंचिव
मुख्यता-गौणता सम्बन्धी विषय-दे कारण III उदाहरण-दे. दृष्टान्त उदीच्य-उत्तर दिशा उदीरणा-कर्मके उदयकी भाँति उदीरणा भी कर्मफलकी व्यक्तता
का नाम है परन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि किन्हीं क्रियाओं या अनुष्ठान विशेषोके द्वारा कम को अपने समयसे पहले ही पका लिया जाता है। या अपकर्षण द्वारा अपने काल से पहले ही उदयमें ले आया जाता है । शेष सर्व कथन उदयवत् ही जानना चाहिए। कर्म प्रकृतियोंके उदय व उदीरणाकी प्ररूपणाओं में भी कोई विशेष अन्तर नही है । जो है वह इस अधिकारमें दरशा दिया गया है। १ उदीरणाका लक्षण व निर्देश
१ उदीरणाका लक्षण २ उदीरणाके भेद ३ उदय व उदीरणाके स्वरूपमे अन्तर ४ उदीरणासे तीव्र परिणाम उत्पन्न होते है ५ उदीरणा उदयावलीकी नही सत्ताकी होती है
६ उदयगत प्रकृतियों की ही उदीरणा होती है। * बध्यमान आयकी उदीरणा नही होती -दे. आयु ६ * उदीरणाकी आबाधा
-दे. आवाधा २ कर्म प्रकृतियोंकी उदीरणाव उदीरणास्थान प्ररूपणाएँ १ उदय व उदीरणाकी प्ररूपणाओमे कथचित् समानता
व असमानता २ उदीरणा व्युच्छित्तिकी ओघ आदेश प्ररूपणा ३ उत्तर प्रकृति उदीरणाकी ओघ प्ररूपणा
(सामान्य व विशेष कालकी अपेक्षा) ४ एक व नाना जीवापेक्षा मूल प्रकृति उदीरणाकी ओघ
आदेश प्ररूपणा ५ मूल प्रकृति उदीरणास्थान ओघ प्ररूपणा * मूलोत्तर प्रकृतियोको सामान्य उदय स्थान प्ररूपणाएँ
(प्रकृति विशेषता सहित उदयस्थानवत्) * प्रकृति उदीरणाकी स्वामित्व सन्निकर्ष व स्थान प्ररूपणा
-. ध. १५/४४-१७ * स्थिति उदीरणाकी समुत्कीर्तना, भंगविचय व सन्निकर्ष प्ररूपणा
-दे. ध १५/१००-१४७ * अनुभाग उदीरणाकी देश व सर्वधातीपना, सन्निकर्ष, भंगविचय व भुजगारादि प्ररूपणाएँ
-दे.ध. १५/१७०-२३५ * भुजगारादि पदोके उदीरकोंकी काल, अन्तर व अल्प बहुत्व प्ररूपणा
-दे.ध. १४५० * बन्ध उदय व उदीरणाकी त्रिसंयोगी प्ररूपणा
-दे. उदय ७ १ उदीरणाका लक्षण व निर्देश
१ उदीरणाका लक्षण पं.सं./प्रा. ३/३...भुजणकालो उदो उदीरणापक्कपाचणफल ।-कर्मोंके फल भोगनेके कालको उदय कहते है और अपक्ककर्मोके पाचनको
उदीरणा कहते है। (प्र.सं/स. ३/३-४) ध.१५/४३/७ का उदीरणा णाम । अपकपाचणमुदीरणा । आवलियाए बाहिरट्ठिदिमादि कादूण उवरिमाण ठिदीर्ण बधावलियवदिक्कतपदेसग्गमसखेज्जलोगपडिभागेण पलिदोवमस्स असखेज्जदिभागपडिभागेण वा ओक्कडिदूण उदयावलियाए देदि सा उदीरणा। प्रश्नउदीरणा किसे कहते है। उत्तर--(अपक्व अर्थात) नहीं पके हुए कर्मोंको पकानेका नाम उदीरणा है । आवली (उदयावली) से बाहरकी स्थितिको लेकर आगेकी स्थितियोके, बन्धावली अतिक्रान्त प्रदेशाग्रको असंख्यातलोक प्रतिभागसे अथवा पत्योपमके असख्यातवें भाग रूप प्रतिभागसे अपकर्षण करके उदयावलीमें देना, यह उदीरणा कहलाती है। (ध.६/१,६-८,४/२१४), (गो.क./जी.प्र.४३६/५१२/८) पं.सं./प्रा. टी ३/४७/५ उदीरणा नाम अपक्कपाचनं दीर्घकाले उदेव्यतोऽप्रनिषेकाद अपकृष्याल्पस्थितिकाधस्तननिषेकेषु उदयावया दत्वा उदयमुखेनानुभूय कर्म रूपं त्याजयित्वा पुद्गलान्तररूपेण परिणमयतीत्यर्थ · । उदीरणा नाम अपक्कपाचनका है । दीर्घकाल पीछे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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