Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 425
________________ उदोरणा ४१० २. कम प्रकृतियोंको उदीरणा व दीरणा स्थान प्ररूपणाएं तियोको छोडकर (देखो आगे सारणी) शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है। विशेषार्थ-सामान्य नियम यह है कि जहाँपर जिस कमका उदय होता है, वहाँपर उस कर्मकी उदीरणा अवश्य होती है-किन्तु इसमें कुछ अपवाद है (देखो आगे सारणी) (प सं/स ५/४४२) । ल सा./जी.प्र व भाषा ३०/६७/३ पुनरुदयवता प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदे शाना चतुर्णामुदीरको भवति स जीव , उदयोदीरणयो स्वामिभेदाभावात् । प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग जे उदयरूप कहे तिनिहीका यहु उदीरणा करनेवाला हो है जात जाकै जिनिका उदय ताको तिनिहोकी उदीरणा भी सभवै । २ कर्म प्रकृतियोकी उदीरणा व उदीरणा स्थान प्ररूपणाएँ १ उदय व उदीरणाकी प्ररूपणाओंमें कथचित समानता व असमानता सं.प्रा ३/४४-४७ उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जइ विसेसी। मोत्तण तिष्णि-ठाण पमत्त जोई अजोई या४४-स्वामित्व की अपेक्षा उदय और उदीरणामें प्रमत्त विरत, सयोगि केबली और अयोगिकेवली इन तीन गुणस्थानोको छोडकर कोई विशेष नही है। (गो क./मू. २७८/४०७), (कर्मस्त ३८-३६) पंसं /प्रा.५/४७३ उदयस्सुदोरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो । मोत्तण य इगिदालं सेसाणं सध्यपयडीण ।४७३१ = वक्ष्यमा इकतालीस प्रकृतियोको छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नही है । (प.सं./प्रा.५/ ४७३-४७५), (गो क./म. २७८-२८१), (कर्मस्त. ३६-४३); (पं. सं./सं.३/५६-६०) उदय आने योग्य अग्रिम निषेकोको अपकर्षण करके अल्प स्थिति वाले अधस्तन निषेकोमे या उदयावलो में देकर, उदयमुख रूपसे उनका अनुभवकर लेने पर वह कर्मस्कन्ध कमरूपको छोड़कर अन्य पुद्गलरूप से परिणमन कर जाता है। ऐसा तात्पर्य है । विशेष दे -उदय २१७ २ उदीरणाके भेद ध. १५/४३/५ उदीरणा चउबिहा--पयडि-ट्ठिदि-अणुभागपदेसउदीरणा चेदि । - उदोरणा चार प्रकारकी है-प्रकृतिउदीरणा, स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा, और प्रदेशउदीरणा। ३ उदय व उदीरणाके स्वरूपमें अन्तर पं.स प्रा. ३/३ भुजणकालो उदो उदीरणापक्कपाचणकाल । कर्मका फल भोगनेके कालको उदय कहते है और अपक्क कर्मों के पाचनको उदीरणा कहते है। ध.६/१,६-८,४/२१३/११ उदय उदीरणाणं को विसेसो । उच्चदे-जे कम्म खधा ओकड्डुबाडुणादिपओगेण विणा द्विदिक्वयं पाविदूण अप्पप्पणो फल देति,तेसि कम्मखधाणमुदओ त्ति सण्णा जे कम्मरवधा महंतेमु टिदि-अणुभागेसु अवठ्ठिदा अक्कडिदूण फलदाइणो कोरंति तेसिमुदीरणा त्ति सण्णा, अपपक्काचनस्य उदीरणाव्यपदेशात । -प्रश्न-उदय और उदीरणामें क्या भेद है । उत्तर-कहते है-जt कर्म-स्कन्ध अपकर्षण, उत्कर्षण आदि प्रयोगके बिना स्थिति क्षयको प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते है, उन कर्मस्कन्धोंकी 'उदय' यह संज्ञा है। जो महान् स्थिति और अनुभागोंमें अवस्थित कर्मस्कन्ध अपकर्षण करके फल देनेवाले किये जाते है.उन कर्मस्कन्धोकी 'उदीरणा' यह सज्ञा है, क्योंकि, अपक कर्म-स्कन्ध पाचन करनेको उदीरणा कहा गया है। (क पा सुत्त./मू गा. ५६/५.४६५) ४ उदीरणासे तीव्र परिणाम उत्पन्न होते हैं रा. वा. ६/६/१-२/१११/३२ बाह्याभ्यन्तरहेतूदीरणवशादुद्रिक्त परिणाम तीवनात स्थूलभावात तीव्र इत्युच्यते ।१० अनुदोरणप्रत्ययसनि धानात उत्पद्यमानोऽनुद्रिकक्त परिणामो मन्दनाव गमनात् मन्द इत्युच्यते । बाह्य और आभ्यन्तर कारणोसे कषायोंकी उदीरणा होनेपर अत्यन्त प्रवृद्ध परिणामोको तीब कहते है। इससे विपरीत अनुद्रिक्त परिणाम मन्द है। अर्थात् केवल अनुदोर्ण प्रत्यय(उदय)के सन्निधानसे होनेवाले परिणाम मन्द है। ५ उदीरणा उदयावलीकी नही सत्ताकी होती है ध.१५/१४/१णाणावरणीय-दसणावरणीय-अतराइयाण मिच्छाइद्विमादि कादूण जाव खोणकसाओ त्ति ताव एदे उदीरया। णवरि खीणकसायद्वाए समयाहियावलियसेसाए एदासि तिण्णं पयडीण उदीरणा वोच्छिण्णा। -ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, और अन्तराय तीन कोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त. ये जीव उदीरक है। विशेष इतना है कि क्षीण कवायके कालमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर इन तीनो प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। (इसी प्रकार अन्य ४ प्रकृतियोकी भी प्ररूपणा की गयी है। तहाँ सर्वत्र ही उदय व्युछित्तिवाले गुणस्थानको अन्तिम आवली शेष रहनेपर उन-उन प्रकृतियोंकी उदीरणाकी व्युच्छित्ति बतायी है)। पं.सं./प्रा टी ४/२२६ पृ. १७८ अत्रापक्कपाचनमुदीरणेति वचनादुदया वलिकायां प्रविष्टाया कम स्थितेना॑दीरणेति मरणावलिकायामायुष' पदीरणा नास्ति। - अपक्कपाचन उदीरणा है' इस वचनपर-से यह मात जानी जाती है कि उदयावली में प्रवेश किये हुए निषेकों या कर्मस्थितिकी उदीरणा नहीं होती है। इसी प्रकार मरणावलीके शेष रहनेपर आयुकी उदीरणा नहीं होती है। ६ उदयगत प्रकृतियोंकी ही उदीरणा होती है 'सं./प्रा.४७३ उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो। मोत्तण य इगिदाल सेसाणं सव्वपयडीणं । वक्ष्यमाण ४१ प्रकृ अपवाद संख्या अपवाद गत ४१ प्रकृतियाँ साता, असाता व मनुष्यायु इन तीनोकी उदय व्युच्छित्ति १४३ गुणस्थान में होली है पर उदोरणा व्युच्छित्ति ६ठे में। मनुष्यगति, पचेन्द्रिय जाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थकर, उच्चगोत्र इन १० प्रकृतियोकी उदय व्युच्छित्ति १४वे में होती है पर उदीरणा न्युच्छित्ति १३वे में। ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ४, अन्तराय, इन १४ की उदय व्युच्छित्ति १२वे में एक आवली काल पश्चात होती है और उदीरणा व्युच्छित्ति तहाँ ही एक आवली पहले होती है । चारो आयुका उदय भवके अन्तिम समय तक रहता है परन्तु उदोरणाकी व्युच्छित्ति एक आवली काल पहले होती है। पाँचो निद्राओ का शरीर पर्याप्त पूर्ण होने के पश्चात इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने तक उदय होता है उदोरणा नही। अन्तरकरण करनेके पश्चात् प्रथम स्थिति में एक आवली शेष रहनेपर- उपशम सम्यक्त्व सन्मुखके मिथ्यात्वका; क्षायिक सन्मुखके सम्यक् प्रकृतिका; और उपशम श्रेणी आरूढके यथायोग्य तीनो वेदोंका (जो जिस वेदके उदयसे श्रेणी चढा है उसके उस वेदका) इन सात प्रकृतियोका उदय होता है उदीरणा नही। जिन प्रकृतियोंका उदय १४वे गुणस्थान तक होता है उनकी उदीरणा १३वे तक होती है (देखो ऊपर नं.२) ये सात अपवादवाली कुल प्रकृतियाँ ४१ है-इनको छोडकर शेष १०७ प्रकृतियोंकी उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506