Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 423
________________ उदय ४०६ ९. औयिक भाव निर्देश कुलस्थान तस्थाना विशेष ६३ ११ २८,२६,३०,११ | २०,२१,२५-१० ७७,७८,७६ बन्ध स्थान । उदय स्थान | सत्त्व स्थान | ९ औयिक भाव निर्देश स्थान स्थान । स्थान। मार्गणा १ औदयिक भावका लक्षण विशेष विशेष स सि. २११/१४६/९ उपशम. प्रयोजनमस्यैत्यौपशमिक । एवं.. ...... २१ भव्यमार्गणा औदयिक 1-जिस भावका प्रयोजन अर्थात् कारण उपशम है वह | भव्य २३.२५ २६, १२/ २०,२१,२४, १३/७७,७८,७६, औपशमिक भाव है। इसी प्रकार औदयिक भावकी भी व्युत्पत्ति २८.२६,३०. २५.२६,२७, ८०,८२,८४, करनी चाहिए। अर्थात् उदय ही है प्रयोजन जिसका सो औदयिक | २८,२६,३०, ८८,६०,६१, भाव है । (रा. बा. २/१/६/१००/२४)। ३१,६६, (प ६२,६३,ह. ध १/१,१.८/१६१/१ कर्मणामुदयादुत्पन्नो गुण औदयिक' | जो कोके स. में २०, १० (प.सं० उदयसे उत्पन्न होता है उसे औदयिक भाव कहते है । (ध ११,७,१॥ में 8,१० के १८५/१३), (प का /त. प्र.५६/१०६), (गो क /मू.८१/१८८); (गो स्थान नहीं २ | अभव्य जी./जी प्र८/२६/१२); (पं.ध/उ. १७०, १०२४)। स्थान नहीं ६/२३,२५,२६, ||२१,२४,२५०४ २८,२६,३०० ८२,८४,८८, २ औदयिक भावके भेद |२६,२७,२८, ह त.स २६ गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासयतासिद्धलेश्याश्चतुश्च २६.३०,३१, ३ न भव्यनअभव्य तुस्त्र्येकैकैकषड्भेद ६) =औदायिक भावके इक्कीस भेद है१२ सम्यक्त्व | ४ | ३०,३१,६,८६७७,७८,७६, चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, एक मिथ्यादर्शन, एक अज्ञान, | ८०,६,१० । मार्गणा एक असंयम, एक असिद्ध भाव और छह लेश्याएँ । (ष. ख.१४/ उपशम सम्यक्त्व|५|२८,२६,३०,५|२१,२५,२६. | ४ | १०,६१,६२, १५/१०); (स.सि. २/६/१५६), (रा. वा. २/६/१०८); (ध.५/१,७.१/ ३०,३१ ६/१८६); (गो क /मू.८१८/९८६); (न. च. वृ. ३७०), (त. सा/ विदक सम्यश्व ४|२८,२६,३०,८२१.२५.२६, ४| २/७); (नि सा/ता. ४१); (पं ध./उ.६७३-६७५) |२७,२८,२६, ३ मोहज औदयिक भाव ही बन्धके कारण हैं अन्य नहीं ध.७/२.१.७/६/8 जदि चत्तारि चेव मिच्छत्तादीणि बंधकारणाणि ३ क्षायिक ,, || होति तो-'ओदइया बधयरा उवसम-खयमिस्सया य मोक्खयरा। २६,२७.२८ | ८०,80,६१] .../३ ।' पदीए सुत्तगाहाए सह विरोहो होदि त्ति वुत्तेण होदि, २६,३०,३१] ६२,६३,६,१ ओदइया बधयरा त्ति वुत्ते ण सव्वे सिमोदइयाणं भावाणं गहण गदि जादिआदिणं पि ओदइयभावाणं बधकारणप्पसगादो। - प्रश्न-यदि ४सासादन , ३ | २८,२६,३०७ २१,२४,२५.१ १० ये ही मिथ्यात्वादि(मिथ्यात्व,अविरत कषाय और योग) चार बन्धके २६,२६,३० कारण है तो 'औदयिक भाव बन्ध करनेवाले है, औपशमिक, क्षायिक और क्षयोपशमिक भाव मोक्षके कारण है. ' इस सूत्रगाथासम्यग्मिध्यात्व २ २८,२६ ३२६,३०,३१६१०,६२ । मिथ्यात्व ६ के साथ विरोधको प्राप्त होता है। उत्तर-विरोध नहीं उत्पन्न होता २३.२५ २६ २१,२४,२५० ८२,८४,८८ है, क्योकि, 'औयिक भाव बन्धके कारण है' ऐसा कहने पर सभी २८,२६,३० २६,२७,२८ ६०,६१,६२१ १३ संशीमार्गणा २६,३०,३१ औदयिक भावों का ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योकि, वैसा मानने पर गति, जाति आदि नामकर्म सम्बन्धो औदयिक भावोके भी. १ संज्ञी २३,२५,२६८ २१,२५,२६११७७,७८,७६.] २८.२६.३० बन्धके कारण होनेका प्रसंग आ जायेगा। ८०,८२,८४, २७.२८,२६, ३०,३१ ८८,१०,६१, ४ वास्तवमें मोहजनित भाव ही औदयिक हैं, उसके ६२०६३ बिना सब क्षायिक है २ असंज्ञी | २३,२५,२६० | २१,२४,२५०/५ ८२,८४,८८, प्र सा./मू ४५ पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदयिगा। २८,२६,३० २६,२७,२८, | ६०,६२ मोहादी हि विरहिदा तम्हा सा खाइगत्ति मदा ।४। . २६,३०,३१| प्र. सात प्र. ४५ क्रिया तु तेषां औदायिक्येव। अथैव भूतापि सा (पं.स में२५ समस्तमहामोहमूर्दाभिषिक्तस्कन्धावारस्यात्यन्तक्षये सभूतत्वान्मोहराग २७के स्थान द्वेषरूपाणामुपरञ्जकानामभावाच्चैतन्यविकारकारणतामनासादयन्ती १४ आहारक नित्यमौदयिकी कार्यभूतस्य बन्धस्याकारणभूततया कार्यभूतस्य मार्गणा मोक्षस्य कारणभूततया च क्षायिक्येव । - अर्हन्त भगवान पुण्यफलवाले आहारक ८ २३.२५,२६, २४,२५,२६,११७७,७८,७६. है, और उनकी क्रिया औदयिकी है, मोहादिसे रहित है, इसलिए वह ८०,८२,८४, क्षायिका मानी गयी है ॥४५॥ अर्हन्त भगनानकी विहार व उपदेश ८८,६०,६१ आदि सब क्रियाएँ यद्यपि पुण्यके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण औद६२,६३ . यिकी ही है। किन्तु ऐसो होनेपर भी वह सदा औदायिकी क्रिया, ७७,७८,७१ २] अनाहारक ६२३,२५,२६.४२०,२१,६.८१३ महामोह राजाकी समस्त सेनाके सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होती है, इससामान्य |२८६,३० (पं स में२० ८०,८२,८४ लिए मोह रागद्वेष रूपी उपर ज कोका अभाव होनेसे चैतन्यके विकारक स्थान ८८,६०,६१ का कारण नहीं होतो इसलिए कार्यभूत बन्धको अकारणभूततासे और नहीं) ! E२,६३,६,१० कार्यभूत मोक्षकी कारणभूततासे क्षायिकी ही क्यो न माननी चाहिए। ३ अनाहारक २६.१० प.ध/उ १०२४-१०२५ न्यायादप्येवमन्येषा मोहादिधातिकर्मणाम् । | अयोगी यावांस्तत्रोदयाज्जातो भावोऽस्त्यौदयिकोऽखिल ।१०२४। तत्राप्यस्ति नहीं) २८,२६,३०, २७,२८,२६, ८.६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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