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दय
२ स्वोदय परोदय व उभयबन्धी प्रकृतियाँ * आतप व उद्योतका परोदय बन्ध होता है- उद ४० * यद्यपि मोहनीयका जघन्य उदय स्व प्रकृतिका बन्ध करनेको असमर्थ है परन्तु वह भी सामान्य बन्धमे कारण है- दे. बन्ध/३
३ किन्ही प्रकृ तियोके बन्ध व उदयमे अविनाभावी सामानाधिकरण्य
४ मूल व उत्तर बन्ध उदय सम्बन्धी संयोगी प्ररूपणा ५ मूल प्रकृति बन्ध, उदय व उदीरणा सम्बन्धी संयोगी
प्ररूपणा
* सभी प्रकृतियोंका उदय बन्धका कारण नही
८ बन्ध उदय सत्त्वकी त्रिसंयोगी स्थान- प्ररूपणा १ मूलोतर प्रकृति स्थानोकी त्रिसयोगी ओपप्ररूपणा २ चार गतियोमे आयुकर्म स्थानोकी त्रिसंयोगी सामान्य व ओष प्ररूपणा
३ मोहनीय कर्मकी सामान्य त्रिसंयोगी स्थान प्ररूपणा
-दे उदय ६
१ बन्ध आधार -- उदय सत्त्व आधेय । २ उदय आधार बन्ध सत्त्व आधेय । ३ सत्त्व आधार-बन्ध उदय आधेय । ४ बन्ध उदय आधार- सत्त्व आधेय । ५. बन्ध सत्व आधारउदय आधेय । ६ उदय सत्त्व आधार-बन्ध आधेय । ४ मोहनीय कर्म स्थानोको त्रिसंयोगी ओष प्ररूपणा ५ नामकर्मकी सामान्य त्रिसंयोगी स्थान प्ररूपणा
१. बन्ध आधार-उदय सत्व आधे । २. उदय आधार--बन्ध सत्त्व आधेय । ३ सत्त्व आधार-बन्ध उदय आधेय । ४ बन्ध उदय आधार -- सत्त्व आधेय । ५ बन्ध सत्त्व आधार-उदय आधेय । उदय सत्त्व आधार-बन्ध आधेय ।
६ नामकर्म स्थानोकी विसयोगी ओध प्ररूपणा
७ जीव समासोंकी अपेक्षा नामकर्म स्थानकी त्रिसंयोगी
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प्ररूपणा
८ नामकर्म स्थानोकी त्रिसंयोगी आदेश प्ररूपणा
* मूलोत्तर प्रकृतियोके चारो प्रकारके उदय व उनके स्वामियो सम्बन्धी सस्था, क्षेत्र, काल, अन्तर व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ
६ औदयिक भाव निर्देश
१ औदयिक भावका लक्षण
२ औदयिक भावके भेद
* औदयिक भाव बन्धका कारण है- दे. भार
३ मोहज औदयिक भाव हो बन्धके कारण है अन्य नही ४ वास्तवमे मोहजनित भाव ही औदयिक है, उसके बिना
सब औदयिक भी क्षायिक है
* असिद्धत्यादि भावोमे औदयिकपना दे, वह वह नाम
•
वह वह नाम
१ भेद लक्षण व प्रकृतियाँ
* क्षायोपशमिक भावमे कथञ्चित् औदायिकपना --दे क्षयापशम
* गुणस्थानो व मार्गणास्थानो में औदायिकभावपना तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान --- दे वह वह नाम
* कषाय व जीवत्वभावमे कथञ्चित् औदयिक व पारिणामिनादे वह वह नाम
* औदयिक भाव जीवका निज तत्त्व है ३. भाग २
* औदयिक भावका आगम व अध्यात्म पद्धतिसे निर्देश - दे. पद्धति
१. भेद, लक्षण व प्रकृतियाँ
१ अनेक अपेक्षाओसे उदयके भेद
सखि ८/२/३८० एव प्रत्ययवशात्तोऽभवद्विधायते स्वमुखेन परमुखेन च । इस प्रकार कारणवशसे प्राप्त हुआ वह अनुभव दो प्रकारसे प्रवृत्त होता है -१ सुरवसे और २ परमुखसे । (रावा ८/२१/१/५८३/१६)
प. प्रा ४ / ५१३ काल-भव-खेत्तपेही उदओ सविवाग अविवागो । काल, भव और क्षेत्रका निमित्त पाकर कर्मो का उदय होता है। वह दो प्रकारका है - १. सविपाक उदय और २ अविपाक उदय । (पं. सं / सं ४ / ३६८ ) । तीव्र मन्दादिउदय घ १/१.१३८/३८८/२ षड्विध कषायोदय । तद्यथा तीव्रतम तीव्रतरः, तीव्र, मन्द, मन्दतर, मन्दतम इति । षायका उदय छह प्रकारका होता है । वह इस प्रकार है। तीव्रतम तं व्रतर, तीव्र, मन्द मन्दतर, मन्दतम । प्रकृति स्थियि आदिको अपेक्षा भेद :१५/२८५-२८६
+
माल
पृ. २०६
1
मूल
1
प्रकृति
उत्कृष्ट
1
उत्तर मूल
T प्रयोग जनित
उदय 1
}
स्थिति
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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१ पृ. २८६
1 उत्तर
अनुत्कृष्ट २. द्रव्य कर्मोदयका लक्षण
I स्थिति क्षय जनित
अनुभाग
अजघन्य
1
प्रदेश
पृ २८
जघन्य
प सं./प्रा /३/३ घण्णस्स संगहो वा संतं जं पुत्रसनिय कम्म। भुजणकालो उदओ उदीरणाऽपक्वपाचफल व | ३| धन्य के संग्रह के समान जो पूर्व संचित धर्म है, उनके आरमामे अवस्थित रहनेको स कहते है । कर्मों के फल भोगने के कालको उदय कहते है । तथा अपक्व कर्मो के पाचनको उदीरणा कहते है ।
ससि २ / २ / ९४६/८ अव्यादिनिमित्तवशाद कर्मणा प्राविरुद
= द्रव्य, क्षेत्र, काल व भवके निमित्तके धशसे कर्मों के फलका प्राप्त होना उदय है (रावा. २/१/४/२०० / ११) ( रा वा ६/१४/१/१२/२६) ( प्र सा / त प्र. ५६ / १०६/१)
क पा/वेदक अधिकार न६ कम्मेण उदयो कम्मोदयो, अवक्कपाचणाए विणा जहाकालजणिदो कम्मान ठिदिवखरण जो विवागो सो कम्मादयोति भण्णदे । सो पुन खेत्त भव काल पोग्गल द्विदी विवागादयत्ति एदस्सगाहाथच्छद्धस्स समुदाय त्यो भवदि । कुदो । खेत्त भव काल मोग्गले अस्सिऊण जा द्विदिवखओ उदिण्णफलबखघ
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