Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 383
________________ उदय ३६८ ३ निषेक रचना ७ कर्मप्रकृतियोंका फल यथाकाल भी होता है और अयथाकाल भी क. पा. सुत्त/वेदक अधिकार नं ६/म. गा.५६/४६५ कदि आवलियं पवेसेइ कदि च पविस्सति कस्स आवलियं । प्रयोग विशेषके द्वारा कितनी कर्मप्रकृतियोको उदयावलीके भीतर प्रवेश करता है । तथा किस जीवके क्तिनी कर्मप्रकृतियो को उदीरणाके बिना (यथा काल) ही स्थितिक्षयसे उदयावलीके भीतर प्रवेश करता है। श्ल वा २/सू ५३/वा २ कर्मणामयथाकाले विपाकोपपत्ते च आम्रफलादिवत् । -आम्र फलके अयथाकालपाककी भाँति कर्मोका अयथाकाल भी विपाक हो जाता है। ज्ञा. ३५/२६-२७ मन्दवीर्याणि जायन्ते कर्माण्यतिबलान्यपि । अपक्कपाचानायोगात्फलानीव वनस्पते' २६। अपक्वपाक क्रियतेऽस्ततन्द्रस्तपोभिरुव शुद्धियुक्त: । क्रमाद्गुणश्रेणिसमाश्रयेण सुसंवृतान्त:करणे मुनीन्द्र ।२७। पूर्वोक्त अष्ट कर्म अतिशय बलिष्ठ है, तथापि जिस प्रकार वनस्पतिके फल बिना पके भी पवनके निमित्तसे (पाल आदिसे) पक जाते है उसी प्रकार इन कर्मोकी स्थिति पूरी होनेसे पहले भी तपश्चरणादिकसे मन्दवीर्य हो जाते है २६ नष्ट हुआ है प्रमाद जिनका और सम्यक् प्रकारसे संवररूप हुआ है चित्त जिनका ऐसे मुनीन्द्र उत्कृष्ट विशुद्धतासहित तपोसे अनु क्रमसे गुणश्रेणी निर्जरा का आश्रय करके बिना पके कर्मों को भी पकाकर स्थिति पूरी हुए बिना ही निर्जरा करते है ।२७१ ८ बन्ध, उदय व सत्त्वमें अन्तर क.पा १/१२५०/२६१/३ बंधसंतोदयसरूवमेग चेव दव्वं । तं जहा, • कसायजोगबसेण लोगमेत्तजीवपदेसेसु अक्कमेण आगतूण सबंधकम्मक्वधा अणताणं तापरमाणुसमुदयसमागमुप्पण्णा कम्मपज्जाएण परिणयपढमसमए बंधववएसं पडिवज्जति । ते चेव विदियसमयप्पहुडि जाब फलदाणहेट्ठिमसमओ त्ति ताव संतववएस पडिवज्जंति। ते चेय फलदाणसमए उदयववएस पडिवज ति। ण च णामभेदेण दव्वभेओ। ण कोहजणणाजणणसहावेण ट्ठिदिभेएण च भिण्णदव्वाणमेयत्तविरोहादो। ण च लक्रवणभेदे सते दवाणमेयत्तं होदि तिहबणस्स भिण्णलक्खणस्स एयत्तप्पसंगादो तम्हा ण बधसतदव्वाण कम्मत्तमस्थि; जेण कोहोदय पडुच्च जीवो कोहकसायो जादो त कम्ममुदयगय पच्चयकसाएण कसाओ त्ति सिद्ध ण च एत्थ दब्बकम्मस्स उबयारेण कसायत; उजुसुदे उवयाराभावादो।-प्रश्न-एक ही कम-द्रव्य बन्ध, सत्त्व और उदय रूप होता है। इसका खुलासा इस प्रकार है कि अनन्तानन्त परमाणुओके समुदायके समागमसे उत्पन्न हुए कर्मस्कन्ध आकार कषाय और योगके निमित्तसे एक साथ लोकप्रमाण जीवके प्रदेशों में सम्बद्ध होकर कर्म पर्याय रूपसे परिणत होनेके प्रथम समय में 'बन्ध' इस सज्ञाको प्राप्त होते है । जीवसे सम्बद्ध हुए वे हो कर्मस्कन्ध दूसरे समयसे लेकर फल देनेसे पहले समय तक 'सत्त्व' इस संज्ञाको प्राप्त होते है, तथा जीवसे सम्बद्ध हुए वे ही कर्मस्कन्ध फल देनेके समयमें 'उदय' इस स ज्ञाको प्राप्त होते है। यदि कहा जाय कि द्रव्य एक ही है, फिर भी बन्ध आदि नाम भेदसे द्रव्यमें भेद हो ही जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है। उत्तरनहीं, क्योकि, बन्ध उदय और सत्त्वरूप कर्मद्रव्य में क्रोध (आदि) को उत्पन्न करने और न करने की अपेक्षा तथा स्थितिकी अपेक्षा भेद पाया जाता है। (अर्थात उदयागत कर्म क्रोधको उत्पन्न करता है बन्ध व सत्त्व नही। तथा बन्ध व उदयकी स्थिति एक-एक समय है, जब कि सत्यकी स्थिति अपने-अपने कर्म की स्थितिके अनुरूप है)। अतः उन्हे सर्वथा एक मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि लक्षणकी अपेक्षा भेद होनेपर भी द्रव्यमें एकत्व हो सकता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योकि, ऐसा माननेपर भिन्न-भिन्न लक्षणवाले (ऊर्ध्व, मध्य व अधो) तीनो लोकों को भी एकत्वका प्रसग प्राप्त हो जाता है । इसलिए ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा बन्ध और सत्त्वरूप द्रव्यके कर्मपना नहीं बनता है। अत: चूकि क्रोधके उदयकी अपेक्षा करके जीव क्रोध वधायरूप होता है, इसलिए ऋजुसूत्र न यकी दृष्टि में उदयको प्राप्त हुआ क्रोधकर्म ही प्रत्यय कषायकी अपेक्षा कषाय है यह सिद्ध होता है। यदि कहा जाय कि उदय द्रव्यकर्मका ही होता है अत' ऋजुसूत्र नय उपचारसे द्रव्यर्मको भी प्रत्यय कषाय मान लेगा सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योकि, ऋजुसूत्र नयमें उपचार नही होता है। ३ निषेक रचना १ उदय सामान्यकी निषेक रचना गो. जी /जी. प्र २५८/५४८/५ ननु एकैक्समये जीवेन बद्ध कसमयप्रबद्धस्य आबाधावजितस्थितिप्रथमसमयादारभ्य तच्चरमसमयपर्यन्तं प्रतिसमयमेकैकनिषेक एवौदेति। कथमेकैक्समयप्रबद्ध उदेति प्रश्ने उच्यने-अनादिबंधनिबंधनबद्धविवक्षितसमयप्रबद्धनिषेक ६. उदेति, तदा तदन्तरसमये बद्धसमयप्रबद्धस्य द्विचरम निषेक उदेति १०. तदन्तरसमये बद्धसमयप्रबद्धस्य त्रिचरमनिषेक उदेति ११. एवं चतुर्थादिसमयेषु बद्धसमयप्रबद्धाना चतुश्चरमादिनिषकोदयक्रमेण आबाधावजित विवक्षितसमयमात्रस्थानेषु गत्वा चरमतत्समय प्रबधस्य प्रथमनिषेक उदेति, एवं विवादितसमये एक समयप्रबद्धो बटनाति एक उदेति किंचिदूनद्वयर्धगुणहानिमात्रसमयप्रबद्धसत्त्वं भवति । प्रश्न-एक समयविषै जीवकरि बान्ध्या जो एक समय प्रबद्ध ताके आनाधा रहित अपनी स्थितिका प्रथम समयतै लगाइ अंतसमय पर्यत समय-समय प्रति एक एक निषेक उदय आवै है। पूर्व गाथाविषै समय प्रति एक-एक समयप्रबद्धका उदय आवना कैसे कहा है। उत्तर-समय-समय प्रति बन्धे समयप्रबद्धनिका एक-एक निषेक इकट्ठे होइ विवक्षित एक समयविषै समय प्रबद्ध मात्र हो है। कैसे। सो कहिए है-अनादि बन्धनका निमित्तकरि बन्ध्या विवक्षित समयप्रबद्ध ताका जिस काल विषै अन्तनिषेक उदय हो है तिस कालविषे, ताके अनन्तर बन्ध्या समयप्रबद्धका उपान्त्य निषेक उदय हो है. ताके भी अनन्तर बन्ध्या समयप्रबद्धका अन्तसे तीसरा निषेक उदय हो है। ऐसे चौथे आदिसमय निविषै बन्धे समयप्रबद्ध निका अन्तते चौथा आदि निषेकनिका उदय क्रमकरि आबाधाकाल रहित विवक्षित स्थितिके जेते समय तितने स्थान जाय, अन्तविषे जो समयप्रबद्ध बन्ध्या ताका आदि निषेक उदय हो है। ऐसे सबनिको जोडै विवक्षित एक समयविषै एक समय प्रबद्ध उदय आवै है। अंक संदृष्टि करि जैसे (स्थिति बन्धकी निषेक रचनाके अनुसार (देखो आगे) ६ गुण हानियोके ४८ निषेकोमें-से) जिन समयप्रबद्धनि के सर्व निषेक गलि गये तिनिका उदय तो है नाहीं। बहुरि जिस समयप्रबद्धके ४७ निषेक पूर्वे गले ताका अन्तिम ६ (प्रदेशों) का निषेक वर्तमान समयवि उदय आवै है । बहुरि जाकै ४६ निषेक पूर्वै गले ताका अन्तिमसे पहला १० (प्रदेशो) का निषेक उदय हो है । और ऐसे ही क्रम जाका एक हू निषेक पुर्वे न गला ताका प्रथम ५१२ का निषेक उदय हो है। ऐमे वतमान कोई एक समय विर्ष सर्व उदयरूप निषेकनिका उदय हो है। ६,१०११,१२,१३,१४,१५,१६॥ १८,२०,२२,२४,२६,२८,३०,३२/ ३६,४०,४४,४८.५२५६ ६०,६४/ ७२, ८०,८८,६६,१०४,११२,१२०,१२८/ १४४,१६० १७६,१६२,२०८,२२४,२४० २५६ २८८,३२०.३५२,३८४,४१६,४४८४८०,५१२/ ऐसे इनिको जोडै सम्पूर्ण समयप्रबद्धमात्र प्रमाण हो है। आगामी कालविषै जैसे-जैसे नवीन समयप्रबद्धके निषेकनिके उदयका सद्भाव होता जायेगा, तैसेते से पुराने समयप्रबद्धके निषेकनिके उदय अभाव होता जायेगा। जैसे-आगामी समयविषै नवीन समयप्रबद्धका प्रथम ५१२ का निषेक उदय आवेगा तहाँ वर्तमानविषै जिस समयप्रबद्धका ५१२ का निषेक उदय था ताका ५१२ वाले निषेकका अभाव होइ दूसरा ४८० का [क्रमश पृ. ३७१]] जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506