Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 386
________________ उदय निषेक उदय आवेगा । बहुरि जिस समय प्रबद्धका वर्तमान विषै ४८० का निषेक उदय था ताका तिस निषेकका अभाव होइ ४४८ के निषेकका उदय होगा । ऐसें क्रमते जिस समयबद्धका वर्तमान विषै १ का ह अन्तिम निषेक उदय था ताका आगामी समय विषै सर्व अभाव होगा। ऐसे प्रति समय जानना । २. सत्त्वको निषेक रचना गो. जी /जी. प्र / भाषा ६४२ / ११४१ तातै समय प्रति समय एक-एक समयबद्धका एक-एक निषेक मिलि (कुल) एक समयप्रबद्धका उदय हो है बहुरि गते पौधे अवशेष रहे सर्व निषेक शिनिको जोड़े किंचिडून अर्धगुणहानिगृणित समय प्रमाण सत्य हो है कैसे सो कहिये है। जिस समयबद्धका एक हू निषेक गरया नाही ताके सर्व निषेक नीचे लिखिये बहुरि तार्क ऊपर जिस समयप्रबद्धका एक निषेक गन्या होई ताके आदि (५१२वाले) निषेक बिना अवशेष निषेक पक्ति विषे शिखिये बहुरि साके ऊपर जिस समयबद्ध होय निषेक गले छोए ताके आदिके दो (१२.४८०) बिना अवशेष निषेविलिखिये ऐसे ही ऊपर-ऊपरि एक-एक निषेक घटता लिखि सर्व उपरि जिस समय के अन्य निषेक गलि गये, एक अवशेष रहा होइ ताका अन्त ( ६ का ) निषेक लिखना । ऐसे करते त्रिकोण रचना हो है । अक संदृष्टि करि जैसेनीचे ही ४८ निषेक लिखे ताके उपरि ५१२ वालेके बिना ८० निषेक लिखे। ऐसे ही क्रमले उपरि हो उपरि वाला निषेक लिया। ऐसे लिखते त्रिकूण हू रचना हो है । तातै तिस त्रिकोण यन्त्रका जोडा हुआ सर्व द्रव्यप्रमाण सत्त्व द्रव्य जानना । सो कितना हो है सो कहिये है - किंचिदून द्वर्ध गुणहानि गुणित समयप्रबद्धप्रमाण हो है । ३. सव व उदयगत द्रव्य विभाजन १. सत्त्व गत- एक समयप्रबद्ध में कुल द्रव्यका प्रमाण ६३०० है । तो प्रथम समयसे लेकर सत्ता के अन्तसमय पर्यन्त यथायोग्य अनेको गुण हानियोद्वारा विशेष चय होन क्रमसे उसका विभाजन निम्न प्रकार है । यद्यपि यहाँ प्रत्येक गुणहानिको बराबर बराबर दर्शाया है, परन्तु इसको एक दूसरे के ऊपर रखकर प्रत्येक सत्ताका द्रव्य जानना । अर्थात् षष्ठ गुणहानिके उपर पंचमको और उसके ऊपर चतुर्थ आदिको रखकर प्रथम निषेक अन्तिम निषेक पर्यन्ते क्रमिक हानि जाननी चाहिए। निषेक स० ३ ४८० ५१२ कुल द्रव्य ६३०० | ३२०० २ २ Jain Education International ३२ २८८ ३२० ३५२ १०६ ३८४ R ४१६ २०८ ४४८ २२४ २४० २५६ १६०० गुण हानि आयाम ३ ४ गुण हानि चय प्रमाण १६ ८ 1 ४ १४४ ७२ ३६ १६० ८० ४० ४४ ८५ ६६ ४८ १०४ ११२ १२० ५२ ५६ ६० १२८ ६४ ८०० २ १८ २० २२ २४ २६ २८ १ ह १० ११ १२ २७१ १३ १४ ३० १५ ३२ १६ ४०० २०० १०० २. उदय गत- प्रत्येक समयप्रबद्ध या प्रत्येक समयका द्रव्य उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता जाता है । क्योकि उसमें अधिक-अधिक 'सत्त्वगत' निषेक मिलते जाते है । सो प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय पर्यन्त विशेष वृद्धिका क्रम निम्न प्रकार है । यहाँ भी बराबर बराबर लिखी ४. उदय प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम गुण हानियोको एक दूसरी के ऊपर रखकर प्रथम निषेकसे अन्तिमपर्यन्त वृद्धि क्रम देखना चाहिए । निषेकस. गुण हानि आयाम 3 ४ " ६ ३३६ ७७२ १६४४ ३३८८ ३७६ ८५२ १९०४ ३७०८ ४२० ६४० १६८० ४०६० १०३६ २१७२ ४४४४ ११४० २३८० ४८६० २६०४५३०८ १२५२ १३७२ २८४४५७८८ १५०० | ३९०० ६३०० १६१६ ४०३२ ८८६४ १८५२८ ३७८५६ १ ४ ८ ह १६ ३० ४२ ५५ ६६ ८४ १०० ४०८ ११ १३८ १६० १८४ ४६८ २१० ५२० २३८ ५७६ २६ ६३६ ३०० ७०० कुल द्रव्य इन उपरोक्त दोनो यन्त्रोको परस्परमे सम्मेन देखनेके लिए देखो यन्त्र (गो, जी / भाषा २५८/५) ४ दप्रागत निषेकोका त्रिकोण यंत्र ५. सत्यगत निषेोका त्रिकोण यंत्र १२०० निषेक रचनामें ६. उपशमकरण द्वारा उदयागत परिवर्तन 1 लसा / भाषा २४७/३०३/२० जब उदग्रावलीका एक समय व्यतीत होइ तत्र पो मर्जका एक समय उदयावलोव मिर्च और तब ही गुणश्रेणीव अन्तरायामका एक समय मिले और तब ही अन्तरायामवि द्वितीयस्थितिका (उपरला) एक निषेक मिले, द्वितीय स्थिति घटे है। प्रथम स्थिति और अन्तरायाम जेताका तेता रहै। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only ४. उदय प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम १. मूल प्रकृतिका स्वमुख तथा उत्तर प्रकृति का स्व व परमुख उदय होता है। ४४४४५० पति पूर्ण समुहे जीवाणं । समुहेण परमुहेण यमोहारविवज्जिया सेसा |४४६ पञ्चइ णो मणुयाऊ निरयाहेण समयभिदि । तह परियमोहनीय एसयमोहन सजुत्त । ४५० = मूल प्रकृतियाँ नियमसे सर्व जीवोके स्वमुख द्वारा ही पचती है, अर्थात स्वोदय द्वारा ही विपाकको प्राप्त होती है । किन्तु मोह और आयुकर्मको छोडकर शेष (तुल्य जातीय ) उत्तर प्रकृतियों पमुख भी विकको प्राप्त होती है और परमुखसे भी विपाकको प्राप्त होती है, अर्थाद फत देती है ४४ भुज्यमान मनुष्यायु नरकामुखसे विपाकको प्राप्त नहीं होती है. ऐसा परमागमने कहा है, अर्थात कोई भो विवक्षित आयु किसी भी अन्य बायुके रूपसे फह नही देती है (दे खासु/५) तथा चारित्रमोहनीय कर्म भी दर्शनमोहनीयसे सयुक्त होकर अर्थात दर्शनमोहनीय रूपसे फट नहीं देता है। इसी प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म भी चारित्रमोहनके रूपसे फल नहीं देता है 1४५०१ (स. सि २१ / ३६८ / ८ ), ( रा वा ८२१ / ५८३ / १६ ), ( प स / स ४ / २७०-२७२ ) २ सर्वघाती में देशघातीका उदय होता है पर देशघातीमें सर्वघातीका नही गो. जी / भाषा६५९/६ यद्यपि क्षायोपशमिकविषै तिस आवरणके देशघाती स्पर्धकनिका उदय पाइये है, तथापि वह तिस ज्ञानमा घात करनेकू' समर्थ नाही है, तातें ताकी मुख्यता न करी । याका उदाहरण कहिये है - अवधिज्ञानावरण कर्म सामान्यपने देशघाती है तथापि www.jainelibrary.org

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