________________
उदय
३८२६
कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं
मार्गणा
कुल
गुण | स्थान
अनदय पुनः
नसक वेद ।
११४
व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ अनुदय पुन उदय | उदय
| कुल व्युच्छि .
योग्य | उदय । उदय उदय योग्य-देवत्रिक, आहा द्वि., स्त्री-पुरुष वेद, तीर्थकर इन ८ के बिना सर्व १२२-६-११४ मिथ्यात्व, आतम, सूक्ष्म, अपर्याप्त, । सम्य., मिश्र साधारण अनन्ता. चतु, १-४ इन्द्रिय, स्थावर,
नरकानु. -१ मनु तिर्य आनु मिश्रमोह अप्रत्या, चतु., वैक्रि द्वि., नरक
मिश्रमोह -१६५ त्रिक, दुर्भग, दुःस्वर, अयश -१२
सम्य., नरप्रत्या.चतु., तिर्य. आयु व गति, नीच
कानु, -२ गोत्र, उद्योत स्त्यान. त्रिक सम्य, मोह, ३ अशुभ संहनन -४ हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा नपुंसक वेद, क्रोध, मान, माया -४
गुणस्थान सम्भव नही
|१०-१४
६. कषाय मार्गणा--(गो क./मू. ३२२-३२३/४५६-४६१) चतुर्विध क्रोध उदय योग्य-शेष १२ क्षाय (चारो प्रकार मान, माया, लोभ) और तीर्थंकर इन १३ के बिना सर्व-१२२-१३-१०६
मिथ्यारव, सूक्ष्म, अपर्याप्त, आतप, / सम्य., मिश्र.. साधारण
-५ | आहा द्वि.-४ अनन्ता क्रोध,१-४इन्द्रिय,स्थावर- नारकानुपूर्वी-१ मिश्र
-१ मनु.देव,तिर्य, मिश्रमोह -१
आनु. =३ वैकि, द्वि., देव त्रिक, नारक त्रिक,
सम्य, चारों मनु तिर्य आन , अप्रत्या क्रोध,
आनु. =k दुर्भग, अनादेय, अयश -१४ प्रत्या क्रोध, तिर्य, गति व आयु,
नीचगोत्र, उद्योत ६-८ मूलोघवत
-१५ आहा, द्वि.
२ ७८ | १५ तीनों वेद संज्वलन क्रोध
-
आगे
अप्रत्या.,प्रत्या. व सज्वलन
क्रोध
1-8
गुणस्थान सम्भव नहीं स्थान--अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके मिथ्यादृष्टि गुणस्थान विष प्राप्त भया ताके वे ते इक काल अनन्तानु
बन्धीका उदय न होय, ताकी अपेक्षा यह कथन है। उदय योग्य--१-४ इन्द्रिय, चारो आनु , आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अनन्ता क्रोध, चारो प्रकार
मान-माया-लोभ, तीर्थकर, मिश्र, सभ्य मोह, आहा द्वि., इन ३१ के बिना सर्व-६१ उपरोक्त चारो क्रोधवत । विशेष इतना कि अपने उदय के अयोग्य प्रकृतियोंको व्युछिप्तिमे न गिनाना । उदय योग्य-१. चारो प्रकार क्रोधवाली १०६ में स्व स्व कषाय चतुष्कको उदय योग्य करके शेष १२का अनुदय है।
२. अप्रत्या.. प्रत्या, व सज्वलन इन तीन कषायोवाले विकल्पमें भी हमें स्व स्व कषायका ही ग्रहण करके अन्यका अनुदय है। ३ लोभ कषायमें गुण स्थान है की बजाय १० बताना। और सूक्ष्म लोभकी व्युच्छित्ति १०वे गुणस्थानमें मूलोषवत करनी।
क्रोधवत् केवल लोम कषायमें मूलोधवत सूक्ष्म लोभकी व्युच्छित्ति
चतुर्विध मान माया लोभ
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org