Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 414
________________ B/22 ७ " ५० ५२ ५५ ५८ ६५ ४० ५६ ४२ ३० ५२ ४२ ४. मूल व उत्तर प्रकृति बन्ध उदय सम्बन्धी संयोगी प्ररूपणा (घ१३-१८/०-०३) बोध या निर्देशके जिस स्थान में जिस विवक्षित प्रकृति के प्रतिपक्षीका भी उदय सम्भव हो उस स्थान मे स्वपरोदयका, तथा जहाँ प्रतिपक्षीका उदय सम्भव नहीं वहाँ स्वोदयका; तथा जहाँ प्रतिपक्षीका हो उदय है वहाँ परोदय बन्धी प्रकृतियों का बन्ध जानना । संकेत - स्त्रो = स्वोदय बन्धी प्रकृति, परोरोदय बन्धी प्रकृति; स्वपरो = स्वपरोदयवधी प्रकृति, सासान्तरबन्धो प्रकृतिः नि - निरंतर बन्धी प्रकृति; सा. नि. सान्तर निरन्तर बन्धो प्रकृति । 1 ३५ ३० ३८ ४० ४२ २० १८-२० अनन्तानन् ४६ उदय ३० ६१ ६४ ७१ ६६ ३० संख्या १-५ ज्ञानावरण ६-६ चक्षुदर्शनावरणादि४ १०-११ निद्रा प्रचला ਨਹਿ १२- १४ निद्रानिद्रादि ३ सातावेदनीय असातावेदनीय १५ १६ १७ मिथ्यात्व २२-२५ अप्रत्याख्यानावरण ४ | २६ - २६ प्रत्याख्यानावरण ४ ३०-३२ संज्वलनक्रोधादि ३ ३३ |३३-३५ सज्वलन लोभ हास्य, रति ३६-३७ अरति, शोक ३८-३६ भय, जुगुप्सा नपुंसकमेद ४० ४१ खीवेद ४२ पुरुषवेद ४३ नारकामु ४४ तिर्यगायु ४५ ४६ देवायु ४२ ४७ ३० ४८ ४६ ४६ मनुष्यगति ६६ देवगति ५० ४२ ५१-५४ एकेन्द्रियादि ४ जा ६६ पचेन्द्रियलात औवारिक शरीर ४६ ६६ जे क्रियक ७१ ५८ 44 ५१.६० से जस ४६ ६६ ५५ २६ ५७ मनुष्यावु ६५ ६६ नरकगति तिर्यग्गति आहारक ६९ ६२ यिक ६३ आहारक ६४ निर्माण 31 Jain Education International 41 37 " स्वोदयबन्धी सान्तरबन्धी आदि आदि 19 11 स्व-परो, "" " परो " स्वो, स्त्र परी, बन्ध उदय ४२ स्व-बन्धी | निरंतरबन्धी १-१० | १-१२ ६६ 15 "" " 11 परो स्व परो 19 स्वो. 19 बहारिक अहोई प परो 11 स्व-परो, परो. स्व-परो. घरो 11 "1 स्वो समचतुरस्र सस्थान स्व-परो न्य परिमण्डल सारि सान्तर बन्धी ਜਿ 31 सा निर सा. नि :: सा. सा. नि नि. :::: सा. नि सा नि मि. ::: सा सानि dat सा 15 21 सा नि. E = 10 निः किससे किस गुण स्थान तक 1 7 1 1 -11 11: Â १-८ १-२ १-६ १-४ १-५ 19 १-८ १-८ १-२ १-६ " १-१३ १-१४ ४२ ३९९ १-२ १-२ १-४ १-८ 11: १-६ १-२ 1111111 1111: १-४ १-५ १-६ ३०| ६७ ६८ " ४२ ४६ ३० " १ ४६ १-२ ६६ १-१४ ३० " ४२ १-१० ३० १-८ ६६ :: १-४४२ १-५ ६६ १,२,४१-१४३० १-७ ३ नहीं १-४ ६६ ३० ६६ 31 १-६६६ ३० |४२ 99 १-५१४० ६ ६ १०४ ४२ संरूपा 44499655 3ggi wwww ७१ ७६ ७. उदय उदीरणा व बन्धकी संयोगी स्थान प्ररूपणाएँ ८१ ८२ ८३ ८४ ८५ ८६ ८७ tc ८६ १० ६१ २ १३ ६४ ६५ ६६ ६७ १०० १०१ १०२ १०३ १०४ १०५ १०६ १ હૃદ १-८ १-१४ ४२ 8-= ७०८ ११० १-४ १ १३ ६६ १०८ १-४ ४० ६ ६६ / १०६ १-८१-१३३० १-४ ,, १-८ १-४ ४० १७३ ११३ ६ ७-८ १-८१-१३ ७ १११ ११२ स्वाति कुब्जक वामन हुण्डक प्रकृति गन्ध वर्ण बज्रवृषभनाराच स वज्रनाराच सहनन नाराच अर्धनाराच कोलित असंत्राट स्पर्श रस नरकगत्यानृपूर्वी पूर्वी मनुष्यगस्यानुपूर्वी देवगाथानुपूर्वी अगुरुलघु उपधात परघात आताप उद्योत उच्छ्वास प्रशस्त विहायोगति त्रस स्थावर सुभग दुभंग अप्रशस्त 99 प्रत्येक शरीर साधारण सुस्वर दुस्वर शुभ अशुभ बादर सूक्ष्म पर्याष्ठ अपर्या १०७ स्थिर सस्थान अस्थिर आदेय अनादेय ::::::: यह कीर्ति अयश कीर्ति तीर्थङ्कर ७ ११४ उच्चगोत्र ३० ११५ नीचगोत्र ७ ११६-२० अन्तराय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only " स्वोदयबन्धी सान्तरबन्धी आदि | आदि स्व-परी, सा 19 34 ॐ श्री 14 77 परो स्वो. " 17 स्वो = स्व-परो. 39 परो. स्वो स्व-परो, 19 37 ११ "" 11 स्वो. स्त्र - परो 11 स्व-परो पो स्व-परी स्वो, " सा. नि. सा. គ नि. 17 नि. :::: सा. नि सा. = = सा. नि. सा सा.नि. == सा सा, नि, सा. सा. नि. सा. सानि ཝ ཤྲཱ ཤྲཱ ཝཱ ཝཱ ཝཱ བྷ སྠ ཀྲྀ ཀ ཟྭ सा. सा. नि. सा. नि. सा, नि, सा. नि. सानि 行 सा. नि. सा. नि. सानि नि. किससे किस गुण स्थान तक बन्ध उदय १-२ | १-१३ 21 59 १-४ १-२ 好 כן 39 १-८ १ 10 १ 474******2-2477777~*~*7* $$«••• 224 १-८ १-२ ?-- १-६ १०८ १-६ १-८ १-२ १-१० "1 95 .I.L. II. II. ~~*~*~*~* **TIFII १-११ १-७ १-१३ १,२,४ १-१३ १-१३ १-१३ १-१४ १-१४ १-१३ १-१४ १-९४ १-१३ १- १४ १-४ १-१४ १-४ ४-८ १३-१४ १-१० १-२ १-१४ १-२ www.jainelibrary.org

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