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उदय
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४. उदय प्रमाणा सम्वन्धी कुछ निया
अनुभागका विशेष की याके केई स्पर्धक सर्वघाती है, केई स्पर्धक देशघाती है। तहाँ जिनिके अवधिज्ञान कुछू भी नाहीं तिनिके सर्वघाती स्पर्धकनिका उदय जानना। बहुरि जिनिके अवधिज्ञान पाइये है और आवरण उदय पाइये है तहाँ देशघाती स्पर्धकनिका उदय जानना। ३. ऊपर-ऊपरको चारित्रमाह प्रकृतियोमें नीचे-नीचे
वाली तज्जातीय प्रकृतियोंका उदय अवश्य होता है गो.क /जी प्र५४६/७०८/१४ क्रोधादीनामनन्तानन्ध्यादिभेदेन चतुरात्मकत्वेऽपिजाच्याश्रयेण कत्वमभ्युपगत शक्तिप्रधान्येन भेदस्याविवक्षितत्वात् । तद्यथा अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदये इतरेषामुदयोऽस्त्येव तदुदयसह चरितेतरोदस्यापि सम्यक्त्व संयमगुणघातक्त्वात् । तथाअप्रत्याख्यानान्यतमोदये प्रत्याख्यानाद्युदयोऽस्त्येव तदुदयेन सम तद्द्वयोदयस्यापि देशसं यमघातकत्वाद, तथा प्रत्यारण्यानान्यतमोदये सज्वलनोदयोऽस्त्येव प्रत्याख्यानवत्तरवापि सकलसंयमघातकस्वात् । न च केवल सज्वलनोद ये प्रत्याख्यानादीनामुदयोऽस्ति तस्पर्धकाना सकलस यमविरोधित्वात। नापि केवल प्रत्याख्यानसंज्वलनोदये शेषकषायोदय तस्पर्धकाना देशसकलसयमघातीत्वात् । नापि केवलअप्रत्यारण्यानादित्रयोदयेऽनन्तानुबन्ध्युदय तत्स्पर्धकाना सम्यक्त्व देशसकलस यमघातकत्वात । =क्रोधादि कनिकै अनन्तानुबन्धी आदि भेद करि च्यार भेद हो है तथापि जातिका आश्रयकरि एक्त्वपना हो ग्रह्या है जातै इहाँ शक्ति की प्रधानता करि भेद कहने की इच्छा नाही है। सोई कहिए है --अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, विषै (कोई) एकका उदय होते संते अप्रत्याख्यानादि तीनोका भी उदय है ही, जातै अनन्तानुबन्धीका उदय सहित औरनिका उदयकै भी सम्यक्त्व ब सयम गुणका घातकपणा है। बहुरि तैसे ही अप्रत्याख्यान क्रोधादिकविषै एकका उदय होते प्रत्याख्यनादि दोयका भी उदय है ही जाते अप्रत्यारण्यानका उदयकी साथि तिनि दोऊ निका उदय भी देशसंयमको घात है। बहुरि प्रत्यारल्यान क्रोधादिक विषै एकका उदय होते सज्वलनका भी उदय है ही जातै प्रत्याख्यानवत सज्वलन भी सकलसयमको घात है। बहुरि सज्वलन का उदय होतें प्रत्याख्यानादिक तीनका उदय नाहीं हो है । जाते और कषायनिके स्पर्धक सकल सयमके विरोधी है । बहुरि केबल प्रत्याख्यान सज्वलनका भी उदय होते शेष दो कषायनिका उदय नाहीं जाते अवशेष कषायनिके स्पर्धक देश-सकल-संयमको पाते है। बहुरि केवल अप्रत्यारण्यानादिक तीनका उदय होत अनन्तानुबन्धीका उदय नाहीं है। जात अनन्तानुबन्धीके स्पर्धक सम्यक्त्व देशसंयम सकलसंयमको पाते हैं। गो. क./जी,प्र. ४७६/६२५/५ चतसृष्वेका कषायजाति । - अनन्तानअन्ध्यादिक च्यारि कषायनिकी क्रोध मान, माया, लोभ, रूप च्यारि तहाँ (चारोंकी) एक जाति का उदय पाइये है। (गो. क. भाषा/७६४/ ६६५/७)
४. अनन्तानुबन्धीके उदय सम्बन्धी विशेषताएँ गो.क./जो प्र.६८०/८६४/१२ सम्यक्त्वमिश्रप्रकृतिकृतोद्वेल्लनत्वेनानन्तानुबन्ध्युदयरहितत्वाभावात् ।- सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीयकी उद्वेलनायुक्तपनेत अनन्तानुबन्धी रहितपन का अभाव है । ( अर्थात जिन्होने सम्यक्प्रकृति मिश्रमोहनीयकी उद्वेलना कर दी है ऐसे जीवोमें नियमसे अनन्तानुबन्धोका उदय होता है।) गो क /मू वा टो ४७८/६३२/१ अणस जोजिदसम्मे मिच्छ पत्तण
आवलित्ति अणं । ..।४७८ अनन्तानुबन्धिविसंयोजितवेदकसम्यग्दृष्टौ मिपारवकर्मोदयान्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान प्राप्ते आवलिपर्यतमनन्वानुबन्ध्युदयो नास्ति । तावत्कालमुदयावत्या निक्षेप्तुमशवप. अनन्तानुबन्धीका जाकै विसंयोजन भया ऐसा वेदक
सम्यग्दृष्टि सो मिथ्यात्व कर्म के उदयतै मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको प्राप्त होइ ताके आवली काल पर्यंत अनन्तानुबन्धीका उदय नाही है। जात मिथ्यात्वको प्राप्त होई पहिलै समय जा समय प्रबद्ध बान्धै ताका अपकर्षण करि आवली प्रमाण काल पर्यत उदयावली विर्षे प्राप्त करनेकौ समर्थपना नाही, अर अनंतानुबन्धीका बन्ध मिथ्याष्टि विषै ही है । पूर्व अनन्तानुबन्धी था ताका विसयोजन कीया (अभाव किया) । ताते तिस जीवकै आवली काल प्रमाण अन तानुबन्धीका उदय नाही। ५. दर्शनमोहनीयके उदय सम्बन्धी नियम गो क /मू. व टो.७७६ मिच्छ मिस्सं सगुणोवेदगसम्मेव होदि सम्मत्त • १७७६। मोहनीयोदयप्रकृतिषु मिथ्यात्व मिश्र च स्वस्वगुणस्थाने एवोदेति । सम्यक्त्वप्रकृति वेदक सम्यग्दृष्टावेवासयतादिचतु देति ।
मोहनीयकी उदय प्रकृतिनि विषै मिथ्यात्व और मिश्र ये दोऊ मिथ्यावृष्टि और मिश्र (रूप जो) अपने-अपने गुणस्थान (तिनि) विर्षे उदय हो है। अर सम्यक्त्वमोहनीय है सो वेदक्सम्यक्त्वी के असंयतादिक च्यारि गुणस्थाननिवि उदय हो है। ६ चारित्रमोहनीयको प्रकृतियोंमें सहवर्ती उदय सम्बन्धी
नियम गो क मूवटी ७७६-७७/६२५. । एकाक्सायजादी वेददुगलाणमेवक
च ७७६ भयसहियं च जुगुच्छा सहियं दोहिवि जुद च ठाणाणि । मिच्छादि अपुव्य ते चत्तारि हव ति णियमेण ।४७७) - अनन्तानुबन्ध्यादिक च्यार कषायनिकी क्रोध, मान, माया, लोभ ये च्यारि जाति, तहाँ एक जातिको उदय पाइये (अर्थात एक काल में अनन्तानुबध्यादि च्यारो क्रोध अथवा चारो मान आदिका उदय पाइये। इसी प्रकार प्रत्यारण्यानादि तीनका अथवा प्रत्याख्यानादि दो का अथवा केवल संज्वलन एकका उदय पाइये) तीन वेदनविषै एक बेदका उदय पाइये, हास्य-शोकका युगल, अर रति-अरतिका युगल इन दोऊ युगल नि विषै एक एकका उदय पाइये है।४७६। बहुरि एक जीवके एक काल विर्षे भय हीका उदय होइ,अथवा जुगुप्सा हीका उदय होइ, अथवादोउनिकाउदय होइ याते इनकी अपेक्षा च्यारि कूट (भंग)करने। ७. नाम कर्मकी प्रकृतियोंके उदय सम्बन्धी
१.१-४ इन्द्रिय व स्थावर इन पाँच प्रकृतियोकी उदय ___ व्युच्छित्ति सम्बन्धी दो मत गो. क /भाषा २६३/३६५/१८ इस पक्ष विष-एकेन्द्री, स्थावर, केंद्री, तेद्री, चौद्री इन नामकर्मकी प्रकृतिनिकी व्युच्छित्ति मिथ्याष्टि विषै कही है। सासादन विषै इनका उदय न कहा। दूसरी पक्ष विषै इनका उदय सासादन विष भी कहा है, ऐसे दोऊ पक्ष आचार्य नि कर जानने। (विशेष देखो आगे उदयकी ओध प्ररूपणा)
२. संस्थानका उदय विग्रह गतिमे नही होता ध १५/६४६ विग्गहगदीए वट्टमाणाणं सठाणुदयाभावादो। तरथ स ठाणाभावे जीवभावो किण्ण होदि। ण, आणुपुब्बिणिव्यत्तिदसठाणे अववियस्य जीवस्स अभावविरोहादो। -विग्रहगतिमें रहनेवाले जीवोके सस्थानका उदय सम्भव नहीं है। प्रश्न-विग्रहगतिमें संस्थानके अभावमें जीवका अभाव क्यों नहीं हो जाता • उत्तर-- नहीं, क्योकि, वहाँ आनुपूर्वीके द्वारा रचे गये सस्थानमें अवस्थित जीवके अभावका विरोध है। ३. गति, आयु व आनुपूर्वी का उदय भवके प्रथम समय
ही हो जाता है ध १३/५,५,१२०/३७८/४ आणुपुविउदयाभावेण उजुगदीए-जुगतिमें
आनुपूर्वी का उदय नही होता। (इसका कारण यह है आनुपूर्वीयक
जैनेन्द्र सिहान्त कोश
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