Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 389
________________ उदय ३५४ कर्म प्रतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं - उदय नही होने पर देवोके शरीरकी दीप्ति कहाँसे होती है । उत्तर- ६. कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएँ देबोके शरीरमें दीप्ति वर्ण नामकर्म के उदयसे होती है। १. सारणी में प्रयुक्त संकेतोके अर्थ ३ एकेन्द्रियोंमें अंगोपांग व संस्थान क्यों नहीं ? संके अर्थ संकेत अर्थ ध.६/१,६-२,७६/११२/८ एइ दियाणमंगोवर्ग किण्ण परूबिद । ण, तेसि णलय बाहू-णिद अ-पट्टि-ससो राणयभावादो तदभावा। एइंदियाण छ संठाणाणि किण्ण परविदाणि । ण पच्चक्यवपरू विदलवरवणपंच १. कर्म प्रकृतियोंके लिए छोटे नाम संठाणाण समूहसरूवाण छसंठाणत्थित्तविरोहा। = प्रश्न-एकेन्द्रिय १. दर्शनावरणी | वै. षटक नरक द्वि., देव द्वि, जोवो में अंगोपांग क्यो नहीं बतलाये । उत्तर-नहीं, क्योकि उनके निद्रा द्विक-निद्रा, प्रचला वै क्रियिक द्वि. पैर, हाथ, नितम्ब, पीठ, शिर और उर (उदर) का अभाव होनेसे आनु. स्त्यानत्रिक स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, आनुपूर्वी अंगोपांग नहीं होते। प्रश्न-एकेन्द्रियोके छहो स स्थान क्यो नही | विहा. प्रचलाप्रचला बिहायोगति उत्तर-नहीं, क्योकि, प्रत्येक अवयवस प्ररूपित लक्षणवाल निद्रापंचक निद्रा, निद्रानिद्रा, बिहा द्वि. प्रशस्ताप्रशस्त विहायोपाँच संस्थानोको सघहरूपसे धारण करनेवाले एकेन्द्रियों के पृथक् प्रचला, प्रचलाप्रचला, गति पृथक छह संस्थानोके अस्तित्वका विरोध है। स्त्यान गृद्धि अगुरु. अगुरुलघु ४ विकलेन्द्रियोंमें हुंडक संस्थान व दुःस्वर ही क्यों ? र दर्शन चतु. चक्षु, अचक्षु, अवधि अगुरु. द्वि. अगुरुलघु. उपधात व केवल दर्शनावरण अगुरु, चतु. अगुरुलघु, उपघात ध ६/१,६-२,६८/१०८/७ विगलिदियाण बंधो उदओ विहु डसठाणमेवेत्ति २. मोहनीय परघात, उच्छवास सुत्ते उत्त। णेदं घडदे, विगलि दियाण छस्संठाणुवलंभा । ण एस दोसो, वर्ण चतु वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श सवावयवेमु णियदसरूवपचसं ठाणेम वे-तिष्णि--चदु-पंच-सठाणाणि मिथ्या. मिथ्यात्व त्रस चतु. प्रस, बादर, प्रत्येक, संजोगेण हु इसठाणमणेयभेदभिण्णमुप्पज्जादि । ण च पंचसठाणाणि । मिश्र मिश्र मोहनीय या पर्याप्त पञ्चवयवमेरिसाणि त्ति जते, संपहि तथाविधोवदेसाभावा। ण च सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति । त्रस दशक त्रस, नादर, पर्याप्त, तेस अविण्णादेसु एदेसिमेसो संजोगो त्ति णाद सकिज्जदे । तदो सम्य सम्यकप्रकृति मिथ्यात्व प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सम्वे वि विगलि दिया हुडसंठाणा वि होता ण णज्जति त्ति सिद्ध। या सम्यग्मोहनीय सुभग, सुस्वर, आदेय, विलिदियाणं बंधो उदओ वा दुस्सरं चेव होदि त्ति सुत्ते उत्तं । अनन्तचतु. अनन्तानुबन्धी चतुष्क यश कीति भमरादओ सुस्सरा वि दिस्स ति, तदो कधमेग घडदे । ण, भमरादिसु अप्र चतु. अप्रत्याख्यान चतुष्क स्थावर- स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, कोइलासु व्व महुरो ब्ब रुच्चाइ, त्ति तस्स सरस्स महुरत्त किण्ण प्रचतु. प्रत्याख्यान चतुष्क दशक साधारण, अस्थिर, इच्छिज्जदि । ण एस दोसो, पुरिसिच्छादो वत्युपरिणामाणुवल भा। सं. चतु संज्वलन चतुष्क अशुभ, दुर्भग, दु स्वर, ण चणिबो केसि पि रुच्चदि त्ति महुरत्तं पडिवज्जदे, अव्यवस्था- स्त्री. स्वी वेद अनादेय, अयश कीर्ति वत्तीदो। १. प्रश्न-'विकलेन्द्रिय जीवो के हु डकसंस्थान इस एक पुरुष वेद सुभग त्रय सुभग. आदेय, सुस्वर. प्रकृतिका ही बन्ध और उदय होता है' यह सूत्र में कहा है। किन्तु यह नपुं. नसक वेद धटित नही हाता, क्योकि विक्लेन्द्रिय जीवोके छह संस्थान पाये । सदर चउक्त तियं चगति, आनुपूर्वी, वेदत्रिक खो,पुरुष व नप सक वेद जाते है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योकि, सर्व अवयवो में नियत आयु, उद्योत भयद्विक भय जुगुप्सा स्वरूपवाले पाँच सस्थानोके होनेपर दो, तीन, चार और पाँच हास्य द्विक हास्य, रति तिर्यगेका- तिर्य द्विक (गतिसंस्थानोके सयोगसे हडकसंस्थान अनेक भेदभिन्न उत्पन्न होता है। दश आनुपूर्वी) आद्य जाति ३. नामकर्म ये पाँच संस्थान प्रत्येक अवयबके प्रति इस प्रकार के आकार वाले होते चतुष्क (१-४ इन्द्रिय), है, यह नहीं जाना जाता है. क्योकि, आज उस प्रकारके उपदेशका तिर्य तिथंच गति आतप, उद्योत, स्थावर, अभाव है। और उन स योगो भेदोके नही ज्ञात होने पर इन जीवोके मनु. मनुष्य गति सूक्ष्म, साधारण 'अमुक सस्थानोके स योगात्मक ये भंग है,' यह नहीं जाना जाता नरक द्विक नरकगति व आनुपूर्वी | धुव/१२ । धू वोदयी १२ प्रकृहै । अतएव सभी विकलेन्द्रिय जीव हु डकस स्थानवाले होते हुए भी तिर्य द्विक तिर्यचगति व आनुपूर्वी तियाँ (तैजस, कार्माण, आज नहीं जानेजाते है, यह बात सिद्ध हुई। २ प्रश्न-'विकलेन्द्रिय मनु, द्विक मनुष्यगति व आनुपूर्वी वर्णादि चार, स्थिर, जीबोके बन्ध भी और उदय भी दु स्वर प्रकृतिका होता है' यह देव द्विक देवगति व आनुपूर्वी अस्थिर, शुभ, अशुभ, सूत्र में कहा है। किन्तु भ्रमरादिक कुछ विकलेन्द्रिय जीव सुस्वरवाले नरकादि- नरकादि गति आन अगुरुलघु. निर्माण) भी दिखलाई देते है, इसलिए यह बात कैसे घटित होती है, कि विक पूर्वी व आयु ८ युगलोकी २१ प्रकृउनके सुस्वर प्रकृतिका उदय व बन्ध नहीं होता है ? उत्तर-नहीं, देवादि चतु गति, अनुपूर्वी, यथा तियों में अन्यतम उदय क्योकि, भ्रमर आदिमें कोकिलाओके समान स्वर नही पाया जाता योग्य शरीर व अंगोपाग योग्य ८ प्रकृति (चार है। प्रश्न-भिन्न रुचि होनेसे कितने ही जीवोको अमधुर स्वर भी औ. औदारिक शरीर गति; पाँच जाति; त्रस मधुरके समान रुचता है। इसलिए उसके अर्थात भ्रमरके स्वरकी वै वैक्रियिक शरीर स्थावर; बादर सूक्ष्मः मधुरता क्यों नहीं मान ली जाती । उत्तर -यह कोई दोष नही. आहारक शरीर पर्याप्त-अपर्याप्त; सुभगक्योंकि, पुरुषोको इच्छासे वस्तुका परिणमन नही पाया जाता है। औ,वै, औदारिकादि शरीर दुर्भग, आदेय अनानीम कितने ही जीवोको रुचता है; इसलिए वह मधुरताको नहीं आ.द्वि. व अंगोपांग देय; यश-अयश) प्राप्त हो जाता है, क्योकि, वेसा मानने पर अव्यवस्था प्राप्त औ..वै.. औदारिकादि शरीर श./३ शरीर, संस्थान तथा होती है। आ., चतु. अंगोपांग, बन्धन, प्रत्येक व साधारणमें संघात से एक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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