Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 381
________________ उदय परिसडणलक्खणो सोदयो त्ति सुत्तत्थावलवणादो। कर्म रूप से उदयमें आनेको कर्मोदय कहते है । अपक्वपाचनके बिना यथाकाल जति जो कमका विवाक होता है, उसको कर्मोदय कहते है । ऐसा इस गाथाके उत्तरार्धका अर्थ है। सो कैसे क्षेत्र, भव, काल और पुद्गल द्रव्यके आश्रयसे स्थितिका क्षय होना तथा कर्मस्कन्धोंका अपना फल देकर झड़ जाना उदय है । ऐसा सूत्र के अवलम्बनमे जाना जाता है । गो. जी / की प्र. ८/२६/१२ स्वस्थितिक्षयवशादुदयनिषेके गलत कार्मणस्कन्धानां फलदानपरिणति' उदय । - अपनी अपनी स्थिति क्षयके बरसे उदयरूप निषेको के गलनेपर कर्मस्कन्धोंकी जो फलदान परिणति होती है, उसे उदय कहते है । (गो.क जी. ४३१/१२/८)। गो.क/जी.प्र. २६४/३६७/११ स्वभावाभिव्यक्ति' उदय', स्वकायं कृत्वा रूपपरित्यागो वा । - अपने अनुभागरूप स्वभावको प्रगटताको उदय कहिए है। अथवा अपना कार्यकरि कर्मणाको छोडे ताको उदय कहिये । २. भावकर्मोदयका लक्षण ससा / मू. १३२-१३३ अण्णाणस्सस उदओ जा जीवाणं अतच्चउवली । मिच्छत्तस्स दु उदओ जीवस्स असदहाणत्त । १३२ । उदओ असंजमस्स दुजं जीवाणं हवेह अविरमगं जो सोओगो बाण सो दु कसायउदओ | १३३| = जीवोंके तो जो तत्वका अज्ञान है वह अज्ञानका उदय है और जीवके जो अश्रद्धान है वह मिथ्यात्वका उदय है । और जीवोके अविरमण या अत्यागभाव है वह असंयमका उदय है और जीवोंके मलिन उपयोग है वह कषायका उदय है । स. सि ६/१४/३३२/७ उदयो विपाकः । - कर्मके विपाकको उदय कहते है। ४. स्वमुखोदय व परमुखोदयके लक्षण गो.जी. ३४२/४६३ / १० अनुदयगताना परमुत्योदयत्वेन स्वसमयोदया एकैकनिषेडा स्थित संक्रम्य गच्छन्तीति स्वमुखमुखोदय विशेष अवगन्तव्य उदयको प्राप्ति नाहीं जे नपुंसक वेदादि परमुख उदयकरि समान समय निविषै उदयरूप एक-एक निषेक, कला अनुक्रमकरि संक्रमण होइ प्रम (विशेष दे स्तुविक सक्रमण ) ऐसे स्वमुख व परमुख उदयका विशेष जानना । जो प्रकृति आपरूप ही होइ उदय आवै तहाँ स्वमुख उदय है । जो प्रकृति अन्य प्रकृतिरूप हो (उदय) तहाँ पर मुल उदय है। पृ. ४६४ /१० (रा. वा / हि ८/२१/६२६) ५. सम्प्राप्तिजनित व निषेक जनित उदय घ. १५/२/१ संतसीदो एगा दिट्ठदि उदिण्णा, सहि उदिगपरमाणुमेगा मोसून दुसमयादि अवाणं तरावल भादो । सेविवाद जगाओ हिदीओ उदिष्णाओ. एहि जं पदेसग्ग उदिणं तस्स दव्बयिणय पडुच्च पुब्बिल्लभावोवयारसभवादो । संप्राप्तिको अपेक्षा एक स्थिति उदीर्ण होती है, क्योकि इस समय उदय प्राप्त परमाणुओके एक समयरूप अवस्थानको छोडकर दो समय आदिरूप अवस्थानान्तर पाया नहीं जाता। निषेककी अपेक्षा अनेक स्थितियों उदीर्थ होती है, क्योंकि इस समय जो प्रदेश है उसके अभ्यार्थिक नयकी अपेक्षा पूर्वीभाव के उपचारकी संभावना है।" ६. उदयस्थानका लक्षण रा. वा. २/५/४/२०७/१३ - एकप्रदेशो जघन्यगुण परिगृहीत', तस्य चानुभाग विभागप्रतिच्छेदाः पूर्ववत्कृताः। एवं समगुणा वर्गा समुदिता वर्गणा भवति । एकाविभागपरिचोदाधिका पूर्ववद्विरीकृता वर्गावर्गणाश्च भवन्ति यावदन्तरं भवति तावदेकं स्पर्धकं भवति । एवमनेन क्रमेण विभागे क्रियमाणेऽभव्यानामनन्तगुणानि Jain Education International २. उप सामान्य निर्देश सिद्धानामनन्तभागप्रमाणानि स्पर्धकानि भवन्ति तदेतत्समुदितमेकमुदयस्थान भवति । एक प्रदेशके जघन्य गुणको ग्रहण करके उसके अविभाग प्रतिच्छेद करने चाहिए। समान अविभाग प्रतिच्छेदोकी पक्तिसे वर्ग तथा वर्गोंके समूह से वर्गणा होती है। इस क्रमसे समगुणवाले वर्गो के समुदायरूप वर्गणा बनानी चाहिए। इस तरह जहाँ तक एक-एक अविभाग परिच्छेदका लाभ हो वहाँ तककी वर्गणाओं के समूहका एक स्पर्धक होता है। इसके आगे एक दो आदि अविभागप्रतिच्छेद अधिकवाले वर्ग नहीं मिलते. अनन्त अविभागप्रतिच्छेद अधिक बाते ही मिलते है। वहाँ से आगे पुन जब तक क्रम वृद्धि प्राप्त होती रहे और अन्तर न पडे तबतक स्पर्धक होता है। इस तरह सम गुणवाले वर्गों के समुदायरूप वर्गणाओ के समूहरूप स्पर्धक कि एक उदयस्थान में अभव्योसे अनन्तपुणे तथा सिद्धो के अनन्तभाग प्रमाण होते है । ३६६ मम ५ / १६४ / ३८१/१२ याणि देव अणुभागबन्धभवसारठाणाणि ताणि पेत्र अणुभागमन्चद् हाणागि अग्नानि को परिणामद्यागि ताणि चैव कसायउदयठाणाणित्ति भणति । जो अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान है वे ही अनुभाग वन्धस्थान है । तथा अन्य जो परिणामस्थान है वे ही कषाय उदयस्थान कहे जाते हैं । ससा आ३ यानि स्वतसम्पादन समर्थ कर्मावस्मालक्षणान्युदयस्थानानि । - अपने फलके उत्पन्न करने में समर्थ कर्मअवस्था जिनका लक्षण है ऐसे जो उदयस्थान | ७. सामान्य उदय योग्य प्रकृतियाँ पंस / प्रा २ / ७ वण्ण-रस- गन्ध फासा चउ चउ सत्तेक्कमणुदयपयडीओ । ए ए पुण सोलसयं बन्धण संघाय प चैवं 191 - चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध, सात स्पर्श, पॉच, बन्धन और पॉच सवात मे छब्बीस प्रकृतियों उदयके अयोग्य है १२२ प्रकृतियों उदयके योग्य होती है । (पं. स २ / ३८) गो, क / जी. प्र ३७ / ४२ / १ उदये भेदविवक्षायां सर्वा अष्टचत्वारिशच्छत अमेदविवक्षायाद्वात्रिंशत्युत्तरशतं उदयमे भेदकी अपेक्षा सर्व १४८ प्रकृतियाँ उदयोग्य है और अभेदको अपेक्षा] १२२ प्रकृतियों उदय योग्य है । ( प स / सं. १४८ ) । ८. भुवोदयी प्रकृतियाँ मो. ७२ सामवोदयनारस गाई चततिम्माण | सुभगादेज्जसाणं जुम्मे विग्गारी जस, कार्मण, वर्णादिक ४, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण ये नाम कर्मकी १२ प्रकृतियों मोदी है। २. उदय सामान्य निर्देश १. कर्म कभी बिना फल दिये नहीं झड़ते = कपा, ३/२२/१४३०/२४५/२ ण च कम्मं सगरूवेण परसरूवेण वा अदत्तफलम कम्मभाव गच्छदि, विरोहादो । एगसमयं सगसरूवेणच्छिय विदियसमए परपसिसिम अम्ममा दि ति दुसमयकाल दिजिद्द सो को कर्म स्वरूपसे या पररूपसे फल बिना दिये अकर्म्मभावको प्राप्त होते नहीं क्योंकि, ऐसा माननेमें विरोध आता है । किन्तु अनुदयरूप प्रकृतियो के प्रत्येक निषेक एक समय तक स्वरूपसे रहकर और दूसरे समय में परप्रकृतिरूपसे रहकर दोसरे समय अकर्मभावको प्राप्त होते है. ऐसा नियम है। अत सूत्रमे (सम्यग्मिथ्यात्व के ) दो समय काल प्रमाण स्थितिका निर्देश दिया है (अ आ / १८५० / १६६९) । २. उदयका अभाव होने पर जीवमें शुद्धता आती है ष ख ७/२९ / सू. ३४-३५/७८ अजोगि नाम कथं भवदि । ३४० खड्याए लदीए|३०|- जीव अयोगी कैसे होता है 1३४ क्षापि सन्धिसे जीन अयोगी होता है ॥३३॥ 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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