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उत्प्रेक्षा
दादि तीनों लोकोमें प्रसिद्ध है उसी प्रकार अमूर्त मुक्तजी मे भी जानना । १ यद्यपि संसारकी जन्ममरण रूप कारण समयसारकी पर्यायका विनाश हो जाता है परन्तु केवलज्ञानादिकी व्यक्तिरूप कार्यसमयसाररूप पर्यायका उत्पाद भी हो जाता है, और दोनो पर्यायोसे परिणत आत्मद्रव्यरूप से श्रीव्यत्व भी बना रहता है, क्योकि वह एक पदार्थ है २. अब दूसरी प्रकारसे ज्ञेय पदार्थों प्रतिक्षण तीनो भङ्गो द्वारा परिणमन होता रहता है और ज्ञान भी परिच्छित्तिकी अपेक्षा तदनुसार ही तीनो भङ्गोसे परिणमन करता रहता है । ३ तीसरी प्रकार से षट्स्थानगत अगुरुलघुगण में होनेवाली वृद्धिहानिकी अपेक्षा भी सोनो भइ तहाँ जानने चाहिए। ऐसा सूत्रका तात्पर्य है ( प्र / टी १/५६) (इ स ट २४/४६/१)
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* उत्पादव्यय सापेक्ष निरपेक्ष द्रव्यार्थिक नय-दे, नय IV/२० उत्प्रेक्षा - एक अकार इसने भेदज्ञानपूर्वक उपमेयमे उपमानकी प्रतीति होती है।
उत्संज्ञासंज्ञ - अपर नाम अवसन्नासन्न । क्षेत्र प्रमाण का एक भेद है। - दे गणित 1 / १ ।
उत्सरण - स्थिति बन्धोत्सरण दे उत्कर्षण । उत्सर्ग- १/३२ / १४०/९ द्रव्यं सामान्यमु
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अनुवृतिरित्यर्थ । द्रव्यका अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है । उसको विषय करनेवाला नय द्रव्यार्थिकनय है । द पा / टी २४/२१/२० सामान्योक्तो विधिरुत्सर्ग । कही जानेवाली विधि उत्सहते है।
- सामान्य रूपसे
२ अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जितोत्सर्ग
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ससि ७/३४/३७०/११ अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जिताया भूमौ मूत्रपुरीषोत्सर्ग अपव्यय बेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग बिना देखी और बिना प्रमाजिस (पीडी आदि से झाडो गयी) भूमिमें मलमूत्रका त्याग करना अप्रत्य सामाजितोस है ।
उत्सर्ग तप-दे व्युत्सर्ग २ |
उत्सर्ग व अपवाद पद्धति पद्धति।
उत्सर्ग मार्ग
"दे अपवाद ।
उत्सर्ग लिंग गि ।
उत्सर्ग समिति — प्रतिष्ठापना समिति - दे. समिति १ । उत्सर्पिणि- -१० कोडाकोडी सागरोका एक उत्सर्पिणी काल होता है । इस काल सम्बन्धी विशेषताएँ- दे. काल ४
उत्साह भूत कालीन ये सीर्थंकरदे तीर्थंकर | उत्सेध - Height ऊँचाई;
उत्सेधांगुल — क्षेत्र प्रमाण का एक भेद--दे गणित 1/१/३ | उदक - अपर नाम 'प्रभादेव' । यह भावी चौबीसी में आठवे तीर्थंकर है --- दे तीर्थंकर ५ ।
उदंबर - बड बटो, पीपल बटी ऊमर, कटूमर, पाकर, गूलर, जंजीर
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आदि फल उदबर फल है इनमें उडते हुए त्रस जीव प्रत्यक्ष देखे जा सकते है । उदम्बर फल यद्यपि पाँच बताये जाते है, परन्तु इसी जातिके अन्य भी फल इन्ही में गर्भित समझना ।
१ उदंबर फलोके अतिचार
साध ३/१४ स तमविहारी मार्ताकादि दारितं १४- उदम्बर व्यापम
नीला
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तद्भादिपालन करने
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उदय
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वाला श्रावक सम्पूर्ण अज्ञात फलोको तथा बिना चीरे हुए भटा वगैरहको और उसी तरह बिना चीरी की फली न खाये खा.सं. २०६१०३ म्रन्दस्तु नूनं स्यादुपलक्षण तेन साधारस्त्याज्या ये वनस्पतिकायिका ७६ | मलबीजा यथा प्रोक्ता फलकाद्याद्रकादय' । न भक्ष्या दैवयोगाद्वा रोगिणाम्यौषधच्छलात् १८० | एवमन्यदपि त्याज्यं यत्साधारण लक्षणम् । त्रसाश्रितं विशेषेण तद्वि युक्तस्य का कथा | १०| साधारणं च केषांचिन्मूलं स्कन्धस्तथागमात् । शाखाः पत्राणि पुष्पाणि पर्व दुग्धफलानि च । कुंपलानि च सर्वेषा मृदूनि च यथागमम् । सन्ति साधारणान्येन प्रोसकालामधेरध
| = यहाँपर उदम्बर शब्दका ग्रहण उपलक्षण रूप है । अत. सर्व ही साधारण वनस्पतिकायिक त्याज्य है | ७ | मूलबीज, अग्रबीज, पोरबीज और किसी प्रकारके भी अनन्तकायिक फल जैसे अदरख आदि उन्हे नही खाना चाहिए। न दैवयोगसे खाने चाहिए और नही रोग औषधि के रूपमें खाने चाहिए |८०| इसी प्रकारसे अन्य भी साधारण लक्षण वाली तथा विशेषत' त्रसजीवोके आश्रयभूत वनस्पतिका त्याग कर देना चाहिए |१०| किसी वृक्षकी जड़ साधारण होती है और किसीकी शाखा, स्कन्ध, पत्र, पुष्प व पर्व आदि साधारण होते है। किसी वृक्षका दूध व फल अथवा क्षीर फल ( जिन फलों को तोडनेपर दूध निकलता हो) साधारण होते है | ११ | कंपलें तथा सर्व ही कोमल पत्ते व फल आगमके अनुसार यथाकालेकी अवधि पर्यंत साधारण रहते है, पीछे प्रत्येक हो जाते है। उनका भी त्याग करना चाहिए ।
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★ पंच उदम्बर फलोका निषेध - दे. भक्ष्याभक्ष्य ४ उदक-१ उत्तर दिशा; २ उत्तर दिशा की प्रधानता दे, दिशा, ३ जलके अर्थ में - दे, जल, ४ राक्षस जातिका एक व्यंतर देव-दे राक्षस, ५. लवण समुद्रमे स्थित एक पर्वत-दे लोक ५ / ६, ६. लवण समुद्र में स्थित शख पर्वतका रक्षक एक देव-दे, लोक ५/६ । उदक वर्ण
एक ग्रह - दे, ग्रह ।
उदकावास- - १. लवण समुद्र में स्थित एक पर्वत- दे. लोक ५/१६; २ लवण समुद्र में महाशंख पर्वतका रक्षक देव - दे. लोक ५/६ । उदधि कुमार भवनवासी देवोका एक भेद--दे. भवन / १,४ । उदयजीव पूर्वकृत जो शुभ या अशुभ कर्म उसकी सिभूमिवर अकित पड़े रहते है, वे अपने-अपने समयपर परिपक्क दशाको प्राप्त होकर जीवको फल देकर खिर जाते है। इसे ही कर्मोंका उदय कहते है। कर्मोंका यह उदय द्रव्य क्षेत्र काल व भवकी अपेक्षा रखकर आता है। कर्मके उदयमे जीवके परिणाम उस कर्मकी प्रकृति अनुसार ही नियमसे हो जाते है. इसीसे कर्मका जीवका पराभव करनेवाला कहा गया है।
१ भेद, लक्षण व प्रकृतियाँ
१ अनेक अपेक्षाओसे उदयके भेद
१. स्वमुखोदय परमुखोदय २ सविपाक अनिपाल ३. तीन मन्दादि ।
२ द्रव्य कर्मोदयका लक्षण
३ भाव कर्मोदयका लक्षण
४ स्वमुखोदय व परमुखोदयके लक्षण
५ सम्प्राप्ति जनित व निषेक जनित उदयका लक्षण
६ उदयस्थानका लक्षण
७ सामान्य उदय योग्य प्रकृतियों
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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