Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 376
________________ उत्पादव्ययीव्य या होंति उप्पादोदोपादादिप दाचोदो नाम दयिते सद असन्ते बुद्धिविसय चाक्कतभावेण वयणगोयराइवकते अभावववहा राणुववत्तदो । णच अभावो णाम अत्थि, तपरिच्छिद तपमानाभावादी, सन्तविसयाणं पमाणाणमसते वावारविरोहादो। अविरोहे वा गद्दहसिगं पि पमाणविसय होज्ज । ण च एव अणुवलंभादो । तम्हा भाव चैव अभावो ति सिद्धं । अणुय्यदाणुच्छेदो णाम पज्जवट्ठओ गयो । तेण असतावत्थाए अभाववव समिच्छदि, भावे उबलब्भमाणे अभावत्तविरोहादो । ण च पडिसेहविसओ भावो भारत मल्लियर, पडिसेहस्स फलाभावप्पसगादो। णच विणासो णत्थि घडियादीणं सव्वद्धमवद्वाणाणुवलंभादो। ण च भावो अभावो होदि, भावाभावाणशोविरुद्वाणमेतविरोहादो रोग व्य गयो उप्पादादिमीर भन्दिज्जयिये पुत्र अरस मिमोह अग गुनहगा होग अस्थि ति बस सुि स्थानके अन्तिम समय में वेदनीयका अनुभागबन्ध उत्कृष्ट हो जाता है परन्तु उस सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान में मोहनीयका भाव नहीं हो, ऐसा सम्भव नही है, क्योंकि भावके बिना द्रव्य कर्म के रहनेका विरोध है अथवा वहाँ भारके माननेपर सूक्ष्म-साम्परायिक' यह संज्ञा ही नही बनती है। इस कारण ( तहाँ ) मोहनीयकी भावविषयक वेदना नहीं है यह वहना उचित नहीं है। उत्तरयहाँ इस शंकाका परिहार करते है। विनाशके विषय में दो नय है-उत्पादानुच्चदेव और अनुपादानुच्छेद । उत्पादानुच्छेदका अर्थ द्रव्यादिकमय है इसलिए वह सद्भावकी अवस्थायें ही विनाशको स्वीकार करता है, क्योंकि बस और वृद्धिविषयतासे अतिक्रान्त होनेके कारण वचन के अविषयभूत पदार्थ में अभावका व्यवहार नहीं बन सकता। दूसरी बात यह है कि अभाव नामका कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है, क्योंकि उसके ग्राहक प्रमाणका अभाव है। कारण कि सतको विषय करनेवाले प्रमाणोके असत् में प्रवृत्त होनेका विरोध है अथवा असदके विषय में उनकी प्रवृतिका विरोध न माननेपर गधे का सौंग भी प्रमाण का विषय होना चाहिए। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वह पाया नहीं जाता। इस प्रकार भावस्वरूप ही अभाव है यह सिद्ध होता है। अनुत्यादानुच्छेदका अर्थ है इसी कारण वह असत् अवस्था में अभाव सज्ञाको स्वीकार करता है, क्योकि इस नकी दृष्टि भावकी उपलब्धि होनेपर अभाव रूपताका विरोध है । और प्रतिषेधका विषयभूत भाव भावरूपताको प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर प्रतिषेध निष्फल होने का प्रसंग आता है । विनाश नहीं है यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, घटिका आदिकोका सर्वकाल अवस्थान नही पाया जाता। यदि कहा जाय कि भाव ही अभाव है (भावको छोड़कर तुच्छाभाव नहीं है। तो यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, भाव और अभाव ये दोनों परस्पर विरुद्ध है, अतएव उनके एक होनेका विरोध है । यहाँ चूंकि द्रव्यार्थिक नयस्वरूप उत्पादानुच्छेदका अवलम्बन किया गया है, अतएव 'मोहनीय कर्म की भाव वेदना यहाँ नहीं है' ऐसा कहा गया है। परन्तु यदि पाकनका लम्ब किया जाय तो मोहनीमकी भाववेदना अनन्तगुणी होन होकर यहाँ विद्यमान है ऐसा कहना चाहिए। 9 गोजी १४/८०/११ प्रध्यार्थिकनयापेक्षया स्वस्वगुणस्थानचरनसमये च मन्वविनाय पार्थकयेन तु अनन्तरसमये बन्धनाश | द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे स्वस्व गुणस्थान के चरमसमय में बन्धव्यु या मम्पविनाश होता है। और पर्यायाधिकनकी अपेक्षासे उस उस गुणस्थानके अनन्तर समय में बन्धविनाश होता है । Jain Education International ३६१ ३. द्रव्य गुण पर्याय तीनों लक्षणात्मक हैं ३. द्रव्य गुण पर्याय तीनों त्रिलक्षणात्मक हैं। १. सम्पूर्ण द्रव्य परिणमन करता है द्रव्यांश नहीं पं. ध. / पू. २११-२१५ ननु भवतु वस्तु नित्यं गुणरश्च नित्या भवन्तु माचिरिव भाषा को सिनो ह |२१| तन्न यतो दृष्टान्त प्रकृतार्थस्यैव बाघको भवति । अपि तदनुक्तस्यास्य प्रकृतविपक्षस्य साधकत्वाच्च । २१२ । अर्थान्तर हि न सत परिणामेभ्यो गुणस्य कस्यापि । एकत्वाज्जलधेरिव कलितस्य तरङ्गमालाभ्य । २१३ | किन्तु य एव समुद्रस्तरङ्गमाला भवन्ति ता एव । यस्मात्स्वयं स जलधिस्तरङ्गरूपेण परिणमति २१४|तस्माद स्वयमुत्पाद सदिति धौव्य व्योऽपि सदिति । न सतोऽ तिरिक्त एव हि व्युत्पादो वा व्ययोऽपि वा धौव्यम् ॥ २१५ ॥ प्रश्न-समुद्रकी तरह मरतो नित्य माना जाये और गुण भी नित्य माने जावे, तथा पर्याये कल्लोल आदिकी तरह उत्पन्न व नाश होनेवालो मानी जावे । यदि ऐसा कहो तो । २९९० उत्तर- ठीक नही है, क्योकि समुद्र और लहरोका दृष्टान्त शंकाकार के प्रकृत अर्थकाही बाधक है, तथा शकाकारके द्वारा नहीं कहे गये प्रकृत अर्थके विपक्षभूत इस वक्ष्यमाण कथचित् नित्यानित्यात्मक अभेद अर्थ का साधक है । २९२ कैसे तर गमालाओ से व्याप्त समुद्री तरह निश्चयसे किसी भी गुणके परिणामोसे अर्थात् पर्यायोंसे सतकी अभिन्नता होनेसे उस सत्का अपने परिणामोसे कुछ भो भेद नहीं है। | २१३ | किन्तु जो हो समुद्र है वे हो तर गमालाएं है क्योंकि वह समुद्र स्वयं तर गरूपसे परिणमन करता है | २१४ | इसलिये 'सव' यह स्वयं उत्पाद है स्वयं भी है और स्वयं ही व्यय भी है। क्योंकि से भिन्न कोई उत्पाद अथवा व्यय अथवा धौव्य कुछ नहीं है । २१५। विशेष उत्पाद २/५) रावा./३/२२६ द्रव्यको पर्यायके परिवर्तन होनेपर परिवर्त कोई नहीं रहता। यदि कोई अंश परिवर्तनशील और कोई अंश परिवर्तन हो तो सर्वथा निश्य या सर्वथा अनित्यका दोष आता है। २ द्रव्य जिस समय जैसा परिणमन करता है उस समय वैसा ही होता है प्र. सा / मू. ८-६ परिणमदि जेण दव्व तक्काल सम्मयन्ति पण्णत्त । तम्हा धम्म परिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो । जीवो परिणमदि जदा अगा सही असुद्ध तदा दोहनदि हि परिणाम सम्भावो || द्रव्य जिस समय जिस भावरूपसे परिणमन करता है उस समय तय है, ऐसा कहा है। इसलिए धर्मपत्माको धर्म समझना चाहिए |८| जीव परिणामस्वभावी होनेसे जब शुभ या अशुभ भावरूप परिणमन करता है, तब शुभ या अशुभ होता है और जय शुद्धभावरूप परिणति होता है तब शुद्ध होता है ३ उत्पाद व्यय द्रव्यांशमें नहीं पर्यायांशमें होते हैं का./मू १९ उपत्ती व विणासो दव्वस्स य णत्थि अस्थि सम्भावो । विगमुपादधुवत्त करेति तस्सेव पज्जाया । द्रव्यका उत्पाद या विनाश नही है, सद्भाव है । उसोको पर्याये विनाश उत्पाद व ध्रुवता करती है | ११ | ( प्र सा / म. २०१) । पं. हद भवति पूर्व पूर्व भाव विनाशेन नश्यतोऽशस्य यदि मा उदुसरभावोत्पावेन जायमानस्य ९७ मह परिणमन पूर्व पूर्व भाव के विनाश रूपसे नष्ट होनेवाले अशका और केवल उत्तर उत्तर भाव के उत्पादरूप उत्पन्न होनेवाले अशका है, परन्तु द्रव्यका नहीं है। ४ उत्पादव्ययको द्रव्यका अंश कहनेका कारण प्र. स. पू. २०१ उपदिहि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं । १०९ । उत्पाद, स्थिति और 10 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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