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उत्पादव्ययत्रीव्य
प्रगट अन्वय स्वरूप है । और विशेष स्वरूपसे उपजे भी है, बिनरौ भी है। युगपत् एक वस्तुको देखनेपर वह उपजै भी है, विनशे भी है और स्थिर भी रहे है ।
यावि/१/११८/४३५ भेदज्ञानात् प्रतीयेते प्रादुर्भावात्ययौ यदि । अभेदज्ञानत सिद्धा स्थितिर शेन केनचित् । ११८ - भेद ज्ञानसे यदि उत्पाद और विनाश प्रतीत होता है तो अभेदज्ञानसे वह सत् या द्रव्य किसी एक स्थिति अंश रूपसे भी सिद्ध है। (विशेष देखो टीका) कपा १/१.१३/१३५/५४/१ ण च जोवस्स दव्वत्तमसिद्ध, मज्भावस्थाए अक्रमेण दत्ताविणाभावितितत्तु वस भादो ।
कपा ९/११/१८० / २१६/४ सत. आविर्भाव एव उत्पाद, तस्यैव तिरोभाव एवं विनाश इति द्रव्यार्थिकस्य सर्वस्य वस्तु नित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेति स्थितम् । मध्यम अवस्थामें द्रव्य
अभी उत्पाद व्यय और रूप युगप उपलब्धि होनेसे जीत्र में द्रव्यपना सिद्ध हो है । विशेषार्थ - जिस प्रकार मध्यम अवस्था अर्थात जानी चेतम्यमें अनन्तरपूर्ववर्ती बचपन के चैतन्यका विनाश, जवानीके चैतन्यका उत्पाद और चैतन्य सामान्यकी सिद्धि होती है. इसी प्रकार उत्पादव्ययव्यरूप लक्ष rant एक साथ उपलब्धि होती है । उसी प्रकार जन्मके प्रथम समयका चेतन्य भी क्षिणात्मक हो सिद्ध होता है अर्थसत्का आविर्भाव हो उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है, ऐसा समझना चाहिए। इस प्रकार यानिकी अपेक्षासे समस्त वस्तुएँ नित्य है । इसलिए न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है, और न विनष्ट होती है, ऐसा निश्चित हो जाता है (यो सा/अ २०) (पं. ध. १९.१३८)
प.ध / पू ६०,६१ न हि पुनरुत्पाद स्थितिभङ्गमयं तद्विनापि परिणामात् । असतो जन्मादिह तो विनाशस्य दुनिया द्रव्यं कथचिदुत्पद्यते हि भावेन । व्येति तदन्येन पुननैतद्वितय हि वस्तुतया । ६१| वह सत् भी परिणामके बिना उत्पादस्थिति भंगरूप नहीं हो सकता है, क्योकि ऐसा माननेपर जगत् में असत् का जन्म और सदका विनाश दुर्निवार हो जायेगा | १०| इसलिए निश्चयसे द्रव्य कथचित् किसी अवस्थासे उत्पन्न होता है और किसी अन्य अवस्था न होता है, किन्तु परमार्थ रोड निक्षय करके ये दोनों (उत्पाद और विनाश) है हो नही |११| पं. १२०-१२३, १४, २३६२४०
परिणामित्यादुत्पादय मयाय एव गुणा । टोत्कीर्णन्यायात्त एव नित्या यथा स्वरूपत्वात् १२०० न हि पुनरेकेाहि भवति गुणानां निरन्वयो नाश | अप रेषामुत्पादो द्रव्य यत्तद्वयाधारम् । १२१ दृष्टान्ताभासोऽस्याद्धि विपक्षस्य मृत्तिकायां हि । एके नश्यन्ति गुणा जायन्ते पाकजा गुणास्त्वन्ये । १२२ । तत्रोत्तरमिति सम्यक् सत्यां तत्र च तथाविधायां हि । किं पृथिवीत्वं नष्ट न नष्टमथ चेत्तथा कथं न स्यात् ॥ १२३ ॥ अयमर्थ पूर्व यो भाव सोऽयुत्तरत्र भार भूत्वा भवनं भावो नष्टात्पन्न न भात्र इह कश्चित् | १८४| असमर्थो वस्तु यथा केवल मिह दृश्यतेन परिणाम निश्य तदव्ययादिह सर्व स्यादम्वयार्थनययोगात् । ३३ । अपि च यदा परिणाम केवलमिह दृश्यते न किल वस्तु । अभिनवभावाभावादनित्यमशनयात् । ३४०। नियमसे जो गुण हो परिणमनशील होनेके कारणसे परपम कहलाते है. वही गुण टकोल्कीर्ण न्याय से अपने-अपने स्वरूपको कभी भी उल्लघन न करनेके कारण नित्य कहलाते है । १२० । परन्तु ऐसा नहीं है कि यहाँ किसी गुणका तो निरन्वय नाश होना माना गया हो तथा दूसरे गुणोका उत्पाद माना गया हो। और इसी प्रकार नवीन-नवीन गुणोंके उत्पाद और व्ययका आधारभूत कोई द्रव्य होता हो । १२१ | गुणों को नष्ट व उत्पन्न माननेवाले वैशेषिकोंका 'पिठरपाक' विषयक यह दृष्टान्ताभास है कि मिट्टीरूप द्रव्यमें घडा बन जाने पर कुछ गुण तो नष्ट हो जाते है और दूसरे पत्र उत्पन्न हो जाते हैं । १२२॥ इस
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२ उत्पादादिक तीनोंका समम्यय
विषय में यह उत्तर है कि इस मिट्टी में से क्या उसका मिट्टीपना नाश हो गया ' यदि नष्ट नहीं होता तो वह निरूपण कैसे न मानी जाय | १२३ | सारांश यह है कि पहले जो भाव था, उत्तरकाल में भी वही भाव है, क्योंकि यहाँ हो होकर होना यही भाव है। नाश होकर उत्पन्न होना ऐसा भाव माना नहीं गया । १८४। सारांश यह है कि जिस समय केवल वस्तु दृष्टिगत होती है, और परिणाम दृष्टिगत नहीं होते, उस समय हाँ इम्याधिक नयी अपेक्षा से स्नेा नाश नहीं होनेके कारण सम्पूर्ण वस्तु नित्य है | ३३६ | अथवा जिस समय यहाँ निश्चयसे केवल परिणाम दृष्टिगत होते हैं और वस्तु दृष्टिगत नहीं होती, उस समय पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा मे नवीन पर्यायकी उत्पत्ति तथा पूर्व पायका अभाव होनेके कारण सम्पूर्ण वस्तु ही अनित्य है | ३४०
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५. उत्पादादिकमें परस्पर मेद व अभेदका समन्वय
प्र. सा / मू. १००-१०१ण भवा भंगविहिणा भंगा वा णत्थि संभव विहीणो । उप्पाद विभगो ण विणा धोब्वेण अध्थेण | १०| उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जते पज्जएस पज्जाया। दव्वे हि संति ण्यिदं सम्हा दव्वं हर्वाद सम्म १०१६ - उत्पाद' भगसे रहित नहीं होता और भंग बिना उत्पादके नहीं होता। उत्पाद तथा भंग (ये दोनों ही ) श्रीव्य पदार्थके बिना नहीं होते । १००| उत्पाद धौव्य और व्यय पर्यायोंमें वर्तते है पर्यायें नियम में होती है, इसलिए वह राम द्रव्य है । १०१। (विशेष दे. उ.प्र. टोका)
रामा ५/३०/१२/४४व्यादाव्यतिरेकाद्व द्रव्यस्य भौव्यानुपपत्तिरिति चेत न अभिहिताननमोधात स्ववचनविरोधाच |१०| उत्पादादीनां द्रव्यस्य चोभयथा लक्ष्यलक्षणभावानुपपतिरिति चेत न अग्यानप्रयमेकादोपपते. 1११1 - प्रश्न- व्यय और उत्पाद क्योंकि द्रव्य से अभिन्न होते हैं, अतः द्रव्यधव नहीं रह सकता ? उत्तर- शंकाकारने हमारा अभिप्राय नहीं समझा। क्योंकि हम द्रव्यसे व्यय और उत्पादको सर्वथा अभिन्न नहीं कहते, किन्तु कथंचित् कहते है। दूसरे इस प्रकारकी शकाओंसे स्ववचन विरोध भी आता है, क्योंकि यदि आपका हेतु साधकत्व से सर्वथा अभिन्न है तो स्वपक्षकी तरह परपक्षका भी साधक ही होगा। प्रश्न- उत्पादादिकोका तथा द्रव्यका एकत्व हो जानेसे दोनों में लक्ष्यलक्षण भावका अभाव हो जायेगा | उत्तर- ऐसा भी नहीं है, क्योंकि इनमें कपि भेद और कथंचित अभेद है ऐसा अनेकान्त है ।
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घ. १०/४.२.१.२/९/१ अपिदपायभावाभावख उप्पादविनासवदिति अवद्वाणाणुबलभादो। णच पढमसमए उप्पण्णस्स विदियादिसमएस अवद्वाणं, तत्थ पढमविदियादिसमयकप्पणाए कारणाभावादो। ण च उप्पादो चेन अवद्वाणं, विरोहादो उप्पाद्दलक्खणभाववदिरित अलगावादी च तदो अवद्वाणाभावादो उप्पादविशालवण (ऋजुसूत्र नयसे विवक्षित पर्यायका सद्भाव ही उत्पाद है और विमति पर्यायका अभाव ही व्यय है । इसके सिवा अवस्थान स्वतन्त्र रूपसे नहीं पाया जाता यदि कहा जाय कि प्रथम समयमे पर्याय उत्पन्न होती है और द्वितीयादि समय में उसका अवस्थान होता है, सो यह बात भी नही बनती खोकि उस (नय) में प्रथम द्वितीयादि समयोंकी कल्पनाका कोई कारण नहीं है। यदि कहा जाय कि उत्पाद हो अवस्थान है सो भी बात नही है, क्योंकि, एक तो ऐसा मानने मैं विरोध आता है, दूसरे उत्पादस्वरूप भावको छोड़कर अवस्थान का और कोई लक्षण (इस नयमें) पाया नहीं जाता। इस कारण अवस्थानका अभाव होनेसे उत्पाद व विनाश स्वरूप द्वव्य है, यह सिद्ध हुआ !
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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